राकेश अचल
नागिन सेंक रही है धूप जरा ठहरो
दमक रहा है उसका रूप जरा ठहरो
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घर से निकली है अक्षत यौवन लेकर
प्रिय के लिए, साथ में कोरा मन लेकर
मौसम है उसके अनुरूप, जरा ठहरो
नागिन सेंक रही है धूप, जरा ठहरो
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डस लेगी यदि बिफर गई ये विष कन्या
है स्वभाव से अल्हड़ वैसे ये वन्या
हैं आसक्त हजारों भूप, जरा ठहरो
नागिन सेंक रही है धूप, जरा ठहरो
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इतराती, बल खाती जब ये चलती है
देख इसे हिरणों की छाती जलती है
चढ़ जाती है हर स्तूप, जरा ठहरो
नागिन सेंक रही है धूप, जरा ठहरो
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प्रिय से मिलकर बेसुध होकर झूमेगी
विष उड़ेल देगी, अधरों को चूमेगी
विचलित होंगे वापी, कूप जरा ठहरो
नागिन सेंक रही है धूप, जरा ठहरो
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नागिन सेंक रही है धूप, जरा ठहरो…