राकेश दुबे
सरकार ने संसद में माना है कि देश में वर्ष 2001 से 2011 के बीच भूमिहार किसानों की संख्या कम होने के बाद भी कृषि श्रमिकों की संख्या बढ़ी है। आंकड़ा साफ कहता है भारत में किसानों की संख्या घट रही है, कृषि श्रमिकों की नहीं, उनका जेंडर बदल रहा है। सही मायने में विश्व भर में खेतिहर श्रमिकों के लिए तापमान वृद्धि घातक होती जा रही है।
सब जानते हैं कि लगातार बढ़ते तापमान में कृषि श्रमिकों को लगातार धूप में काम करना होता है, और इस कारण उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। तापमान वृद्धि पर पिछले 20 वर्षों से किये जा रहे अध्ययन के अनुसार पृथ्वी का तापमान वर्ष 1990 के बाद से हरेक दशक में औसतन 0.26 डिग्री सेल्सियस बढ़ रहा है।
लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में भारत समेत विश्व के 43 देशों में 750 स्थानों से प्राप्त जलवायु के आंकड़ों का और मृत्यु दर का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि हरेक वर्ष अत्यधिक सर्दी या अत्यधिक गर्मी के कारण विश्व में 50 लाख से अधिक व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हो जाती है, यह संख्या दुनिया में कुल मृत्यु का 9.4 प्रतिशत है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में कृषि श्रमिक समाज का सबसे बदहाल तबका है, इसके बाद भी बेरोजगारी के कारण इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही इनका शोषण भी बढ़ रहा है। हमारे देश में भी कृषि श्रमिक हमेशा से बदहाल रहे हैं। 4 फरवरी 2020 को लोकसभा में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक लिखित जवाब में बताया था कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 26.31 करोड़ किसान और कृषि श्रमिक थे। 11.88 करोड़ किसान, और 14.43 करोड़ कृषि श्रमिक।
वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार यह संख्या क्रमशः 12.73 करोड़ और 10.68 करोड़ थी। इसका सीधा सा मतलब है कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच भूमिहार किसानों की संख्या कम होने के बाद भी कृषि श्रमिकों की संख्या बढ़ी है। वर्ष 2001 में देश के कुल कामगारों में से 58.2 प्रतिशत कृषि से जुड़े थे, जबकि वर्ष 2011 में इनकी संख्या 54.6 प्रतिशत ही रह गई।
2017–2018 के आर्थिक सर्वेक्षण में उल्लेख किया गया है कि भारत में कृषि का महिलाकरण हो रहा है। अधिकतर पुरुष श्रमिक अब रोजगार की तलाश में शहरों में जा रहे हैं और पूरा कृषि कार्य महिलाओं के कंधे पर आ रहा है। महिलायें घर संभालने के साथ ही खेती भी अपने बल-बूते पर करने लगी हैं। इस सर्वे के अनुसार किसानों की आत्महत्या भी एक बड़ी समस्या है और आत्महत्या के बाद खेती का सारा बोझ महिलाओं के जिम्मे आ जाता है।
सबसे बुरी हालत में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या फिर दिहाड़ी पर खेतों में काम करने वाली महिलायें हैं, जिन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता है और वेतन पुरुषों से कम मिलता है। सर्व मान्य तथ्य है कि सुगम जीवन की चाह ने हमारे जीवन को तापमान वृद्धि के साथ ही तरह-तरह के प्रदूषण से भर दिया है। इसमें सबसे आगे वायु प्रदूषण है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व की 99 प्रतिशत से अधिक आबादी वायु प्रदूषण की मार झेल रही है।
प्रदूषण का असर अब गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी पड़ रहा है और अनेक वैज्ञानिक इन्हें प्रदूषित शिशु या पोल्युटेड बेबीज कहने लगे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों ने 171 गर्भवती महिलाओं के विस्तृत परीक्षण और विश्लेषण के बाद निष्कर्ष निकाला है कि 90 प्रतिशत महिलाओं के शरीर के उत्तकों और रक्त में कम से कम 19 ऐसे खतरनाक रसायन या कीटनाशक हैं जो गर्भ में पल रहे शिशुओं तक पहुंचने की क्षमता रखते हैं। जाहिर है, इन महिलाओं के गर्भ में पल रहे शिशु अपने शरीर में प्रदूषण के साथ ही दुनिया में प्रवेश करेंगे।
आधुनिक दौर में प्रदूषण, तापमान वृद्धि और जैव-विविधता का विनाश, पर्यावरण से जुड़ीं सबसे बड़ी समस्याएं हैं, पर चर्चा में केवल तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन ही रहता है। कुछ दशक पहले तक प्रदूषण की खूब चर्चा की जाती थी, पर अब यह एक उपेक्षित विषय है। प्रदूषण के कारण दुनिया को प्रतिवर्ष 4.6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यानि प्रति मिनट लगभग 90 लाख डॉलर का नुकसान होता है। अब वैज्ञानिक तो यह भी कहने लगे हैं कि यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोक भी दिया जाए तब भी ऐसी समस्याएं कम नहीं होंगी।(मध्यमत)
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