अनिल कर्मा
बहस का मुद्दा अक्सर हम लोग गलत पकड़ लेते हैं। भोली जनता की इस कमजोरी को चतुर नेता बखूबी जानते हैं। इसलिए वे बे-मुद्दे को उछालते हैं और उसके ‘मुद्दा’ बनने तक वही चीज अलग-अलग रागों में अलापते रहते हैं। फिर उस बे-मुद्दे का मालिकाना हक लेकर अपना वर्तमान और भविष्य सुरक्षित करते हैं और असल मुद्दों को गिरवी रखकर राजनीति की दुकान चलाते रहते हैं।
भारतीय करेंसी (नोट) पर भगवानों के चित्र लगाने की मांग को इससे अलग हटकर बिलकुल नहीं देखा जा सकता। नहीं देखा जाना चाहिए। भगवान गणेश और मां लक्ष्मी में अगाध आस्था के बावजूद इस मांग या मुद्दे को आस्था की दृष्टि से देखना-सोचना तो गलत ही होगा। दरअसल यहां मुद्दा यह है ही नहीं। ना करेंसी मुद्दा है, ना फोटो, ना गणेश-लक्ष्मी। ना कोई करेंसी पर फोटो बदलने का दिल से हिमायती है, ना कोई ऐसा करना चाहता और ना ही ऐसा कुछ होने जा रहा है। ना कोई आग्रह है और ना कोई आंदोलन। फकत राजनीति है।
बे-मुद्दे का एक ऐसा मुद्दा जिस पर ‘हां’ या ‘ना’ कहना दूसरे दलों के लिए मुश्किल हो और आम आदमी को जो भला-भला सा लगे। और इससे भी बड़ा उद्देश्य यह कि एक हल्ला खड़ा हो जाए। यहां बानगी देखिए। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के गणेश-लक्ष्मी के फोटो वाले शिगूफे के बाद जिस तरह से भांति-भांति की मांग शुरू हुई है, उससे सभी कुछ मजाक में बदलता जा रहा है। कांग्रेस के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले ने मांग कर दी है कि भारतीय नोट पर डॉ. भीमराव आंबेडकर की तस्वीर लगनी चाहिए।
महाराष्ट्र के भाजपा नेता राम कदम ने फोटोशॉप कर बनाए गए 500 रुपये के नोटों पर 4 फोटो ट्वीट किए। इनमें शिवाजी, भीमराव आंबेडकर, वीर सावकर और प्रधानमंत्री मोदी के फोटो लगाए हैं। महाराष्ट्र में ही भारतीय जनता पार्टी से विधायक नीतेश राणे ने छत्रपति शिवाजी की फोटो लगाने का सुझाव दिया। इससे पहले पिछले हफ्ते अखिल भारत हिंदू महासभा ने नोटों पर महात्मा गांधी की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर छापने की मांग की थी। यानी जिसको जो सूझ रहा है उसको नोटों पर वही चाहिए। और हां, इन सब से अर्थव्यवस्था सुधरने की ‘गारंटी’ है। आस्था की इन अर्थियों पर गांधी का सत्य कितना सिसक रहा होगा, कौन जाने।
इन सब के बीच जो देखा जाना चाहिए या जो देखा जाना रोचक हो सकता है वह यह कि राजनीति में एक नई उम्मीद जगाने वाले किसी केजरीवाल के आम नेता बनने की प्रक्रिया क्या है। या कैसे नकल का पोस्टर फाड़कर असल बाहर आता है। भ्रष्टाचार और अराजकता के खिलाफ खड़े हुए अन्ना आंदोलन की कोख से पब्लिक में जन्मे इस मूलभूत सरकारी अफसर की पहली एंट्री ही ‘पलटने वाली’ थी। एक गैर राजनीतिक, सामाजिक आंदोलन की सीढ़ियों पर पैर रखकर जिस तरह से राजनीतिक मंच सजाया गया, उससे खुद अन्ना हतप्रभ थे। लेकिन घोर निराशा में डूबी भारतीय जनता ने अन्ना की फर्जी परछाई मात्र में भी आशा की किरण ढूंढने में देर नहीं की। वैकल्पिक राजनीतिक मॉडल लोगों को जमा। धर्मनिरपेक्ष और विकासपरक राजनीति की बातों ने लुभाया।
दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में मोहल्ला क्लीनिक, स्कूलों के कायाकल्प, बिजली-पानी बिल में कमी जैसे कामों ने भरोसा भी जगाया। लेकिन इन्हीं सबके बीच केजरीवाल ‘राइजिंग सिंबल’ के खाके से निकलकर ‘पॉपुलर पॉलीटिशियन’ बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे थे या स्वयं उस प्रक्रिया को आकार दे रहे थे। दिल्ली की दूसरी पारी, दिल्ली से बाहर निकलने की शुरुआत और फिर इससे आगे की यात्रा में यह प्रक्रिया साफ-साफ दिखती है। हो सकता है यह केजरीवाल के लिए पलटने के मूल स्वभाव का विस्तार भर हो, या महज स्वांग हो, एक सोचा समझा क्रमिक एजेंडा मात्र, लेकिन मंचित को मिथक सा मान देते हुए उस पर ‘क्यों-कैसे’ की वैचारिक कशीदाकारी तो बनती ही है।
यहां खोजा यह जाना जरूरी है कि क्या राजनीति में यह प्रक्रिया स्वाभाविक है? या मजबूरी है? या अपरिहार्य है? क्या विकास की राजनीति को लंबे समय तक साधे रखना मुश्किल है? या असंभव है? या सीमित सफलता तक ही यह कारगर है? क्या धर्म की राजनीति इतनी जरूरी है? क्या ‘इस तरफ’ या ‘उस तरफ’ दिखना ही अब राजनीति में निर्णायक हो गया है? धर्मनिरपेक्ष चेहरा लेकर सियासत के अखाड़े में उतरे केजरीवाल को जल्दी ही ‘मुसलमानों के मसीहा’ के पोस्टर क्यों लगवाने पड़े थे? ऐसे एकतरफा पर्चे क्यों बटवाना पड़े थे जिस पर चुनाव आयोग तक को आपत्ति लेना पड़ी?
फिर ‘शाहीन बाग’ आते-आते इसी ‘मसीहा’ का उन्हीं लोगों और उन्हीं के मुद्दों से परहेज तथा सुंदरकांड की तरफ झुकाव भी इसी यात्रा का एक पड़ाव रहा है। कभी नानी की कहानी तो कभी नेहरू की नीति का जिक्र कर मंदिर की राजनीति पर विकास के मॉडल को श्रेष्ठ बताने वाले लोग गुजरात में यह दावा करने के लिए क्यों विवश हैं कि हम जीते तो अयोध्या यात्रा मुफ्त करवाएंगे? कभी भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति पर सवाल खड़े करने वाले केजरीवाल आज खुद उसी राह पर चलते नजर क्यों आ रहे हैं?
सवाल कई हैं। केजरीवाल के हाल के बयान ने इन सवालों को फिर ताकत के साथ जिंदा कर दिया है। हालिया बयान जिस वक्त और जिस तरह से दिया गया है, उसने यह सिद्ध कर दिया कि अब केजरीवाल में वैकल्पिक राजनीति के कण ढूंढना समय बर्बाद करने के अलावा कुछ नहीं है। अब वे मुख्यधारा की राजनीति के आम नेता हैं। अब उनकी हर सांस हिंदू बनाम मुस्लिम के मुद्दे पर लड़े जाने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर आ-जा रही है।
यही कारण है कि करेंसी पर हिंदू देवी देवताओं के चित्र की मांग उन्होंने ऐसे समय उठाई जब एक तरफ हिंदू समाज लक्ष्मी का महापर्व दीपावली मना रहा है और दूसरी तरफ ब्रिटेन में ऋषि सुनक के पीएम बनने के बाद से भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यक पीएम का मुद्दा जोर पकड़ने लगा है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से यह मुद्दा कांग्रेस बनाम भाजपा और मुस्लिम बनाम हिंदू हो रहा है। इन सबके बीच गुजरात में कांग्रेस की जगह हासिल करने के लिए भाजपा के एजेंडे और वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में ‘आप’ ने ‘करेंसी’ और ‘लक्ष्मी- गणेश’ को थाम लिया है।
सियासत में, और खासतौर से चुनाव के वक्त मुद्दे उछालना, हल्ला खड़ा करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार जिस तरफ से और जिस तरह से यह शुरू हुआ है वह एक उम्मीद का गला घोटता है और एक सवाल को फिर खड़ा करता है कि क्या राजनीति के मंच पर कभी जनता को वह ‘विकल्प’ नहीं मिल पाएगा जिसे वह अलग कह सके और लंबे समय तक वह उसे अलग पा भी सके? आपकी क्या राय है?
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)