कोरोना महामारी ने दुनिया भर में लगभग सब कुछ उलट-पलट कर रख दिया है। इसके कारण उद्योग, व्यापार, रोजगार और मानवीय संबंधों में काफी कुछ विपरीत प्रभाव पड़ा है। पिछली महामारियों का इतिहास देखें, तो पाएंगे कि समय के साथ बहुत सारी चीजें सुधर भी जाती हैं। लेकिन, विशेषज्ञों और सरकारों के अध्ययनों पर भरोसा करें, तो पाएंगे कि एक नुकसान स्थाई और अपूरणीय हुआ है, वह है हमारी अगली पीढ़ी की ‘बौद्धिक क्षमता’ का स्थाई नुकसान। यही बात करता यह लेख –
कमलेश पारे
कोविड’19 की विश्वव्यापी महामारी ने जिन्दगी के लगभग हर हिस्से को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। मानव संबंधों से लगाकर उसके शरीर, स्वास्थ्य, आत्मविश्वास, भावनात्मक या मानसिक और बौद्घिक क्षमता तक इस महामारी में विपरीत रूप से, या कहें कि स्थाई रूप प्रभावित हुये हैं। एक बड़े घाव की खरोंच की तरह इनके निशान शायद ही कभी मिटें। यह बात इन विषयों पर खूब हुये अध्ययनों से निकलकर आई है। सही तो यह भी है कि उद्योग, व्यापार, रोजगार, अर्थतन्त्र या अन्य भौतिक विकास भी उतनी ही बुरी तरह से पिछड़े हैं, लेकिन वे लौट भी सकते हैं।
चिंता इस बात की है कि इन अध्ययनों में बौद्धिक और भावनात्मक विकास में आई स्थाई ‘बाधा’ मय प्रमाणों के सिद्ध हो गई है। अंग्रेजी भाषा में भले ही इस क्षति के लिये इकलौता शब्द ‘लर्निंग लॉस’ है, लेकिन यह अपने समाज का एक बहुत बड़ा और स्थाई नुकसान है। संसद की एक संयुक्त समिति ने हाल ही में दी अपनी एक रिपोर्ट में यह बात सरकार को बताई भी है। मार्च ‘2020 से निरंतर बन्द रहे स्कूल-कालेजों में शिक्षा के वैकल्पिक साधनों की खूब बातें हुई हैं। सरकार सहित कुछ राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने अपनी रिपोर्टों या दावों में कहा है कि शिक्षा के वैकल्पिक साधन काफी हद तक कारगर रहे हैं। किन्तु, जब जमीनी हकीकत देखी गई, तो स्थितियाँ बहुत निराशाजनक मिलीं।
भारत अपनी तरह का अकेला देश है, इसलिये यहाँ की स्थितियां भी अलग हैं। एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाले अपने देश में 32 करोड़ विद्यार्थी हैं, जो पूर्व प्राथमिक स्कूल से विश्वविद्यालयों तक में पंजीकृत हैं। इन 32 करोड़ बच्चों या युवकों का फैलाव ऐसा है कि किसी के पास तो सब कुछ है, और किसी के पास कुछ भी नहीं है। सरकारें या शिक्षा से जुड़ी संस्थाएं ‘दूरस्थ’ या ‘इंटरनेट’ शिक्षा के परिणामों से काफी उत्साहित हैं। वे इस वैकल्पिक व्यवस्था को अपनी तथाकथित सफलता के लिये ‘शो-केस’ भी कर रही हैं। किन्तु, जब बात जमीन की आती है, तो पता चलता है कि भारत में कुल 25 प्रतिशत से भी कम परिवारों की पहुंच इंटरनेट तक है। इस संख्या का 42 प्रतिशत शहरों में रहता है, और गांवों में तो अभी भी 14 प्रतिशत लोग ही ‘इंटरनेट’ से परिचित हैं।
समस्या यहीं समाप्त नहीं होती है। सवाल बचा ही रहता है कि जिनकी पहुंच या जिनका परिचय ‘इंटरनेट’ से है, वे भी अपने बच्चों की शिक्षा के लिये इसका कितना उपयोग करते हैं। यह आंकड़ा राज्यवार भिन्न है, दिल्ली या कुछ शहरी बहुल आबादी वाले राज्य आगे तो हैं, किन्तु वे भी 50 प्रतिशत से ज्यादा बच्चों को अभी भी इस माध्यम से शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं। ‘इंटरनेट’ के माध्यम से दूरस्थ शिक्षा की बात जब भी आती है, तो सबसे बड़ी भूमिका बच्चों के पालकों या माता-पिता की होती है। अभी हुए ताजा सर्वेक्षणों में पाया गया है कि 77 प्रतिशत पालकों के पास अपने बच्चों को पढ़ा पाने की योग्यता ही नहीं है ।
चूंकि देश की 26 प्रतिशत आबादी अशिक्षित है, और 19 प्रतिशत को औपचारिक या प्राथमिक स्तर की ही शिक्षा मिल पाई है, इसलिये वे भी अपने बच्चों की शिक्षा में सहायता करने में सक्षम नहीं हैं। बावजूद इन तथ्यों के हमारी ‘व्यवस्था’ समस्या से मुंह चुरा रही है, और हम इस पर बात ही नहीं करना चाहते। कोविड-19 वैश्विक आपदा है इसलिये इसका प्रभाव दुनिया के दूसरे हिस्से में है। ‘जी-7’ देश समूह, जिसमें कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, इंग्लैण्ड और अमेरिका हैं, उनकी तुलना में हम इस मामले में 85 प्रतिशत पीछे हैं।
संसद की समिति के साथ ‘यूनिसेफ’ ने भी इसी मामले में एक समानांतर अध्ययन किया था। ‘बौद्धिक स्तर’ की गिरावट के साथ दोनों ने एक चिन्ताजनक बात समान रूप से कही है कि यदि अब स्कूल खुल भी गये, तो 20 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे पढ़ने के लिये वापस नहीं आयेंगे। उनके मां बाप ही अब उन्हें स्कूल नहीं भेजेंगे, क्योंकि वे बच्चे घर को पालने-पोसने के लिये मजदूरी में लग गये हैं। इसका प्रमुख कारण परिवारों के रोजगार जाना है। इसके बाद एक और बड़ी समस्या दैत्याकार रूप में खड़ी है, लेकिन हम हैं कि इसे नज़रंदाज़ करते हुए किन्हीं और काल्पनिक खेलों में व्यस्त हैं। हम जानते हैं कि अपने देश में स्कूली शिक्षा में 12 करोड़ बच्चे आहार या पोषण आहार के लिए ‘मध्यान्ह भोजन’ पर आश्रित हैं। वे बच्चे मार्च’ 2020 से पोषण आहार से पूरी तरह से वंचित होंगे। पोषण आहार से वंचित इन छात्रों की संख्या कुल छात्र संख्या का 60 प्रतिशत है।
अब आप ही बताइये कि जुलाई से सितम्बर के बीच होने वाले संसद के ‘पावस सत्र’ में आपने किसी भी जनप्रतिनिधि को यह बात करते सुना? प्रदेशों की विधानसभाओं में ऐसी बातें होती हुई सुनीँ, या तमाम तरह की आजादी के लिये जान निछावर करने वाले लोगों से यह बात सुनी। यानी अशिक्षा, अल्प शिक्षा और कुपोषण से होने वाली स्थाई और अपूरणीय क्षति से हम पूरी तरह से बेखबर हैं। इसलिये जैसे भी हो, कठिन से कठिन उपाय हों, हमें पहली प्राथमिकता पर सरकार को स्कूल-कालेज पूरी क्षमता पर खोलने के लिये मजबूर करना ही पडेगा।
और हाँ, विकास की तमाम ‘गप्पों’ और बिना परिणाम की चिंताओं के बीच यह और जान लें कि शिक्षा या मानव संसाधन विभाग सरकारी बजट में ‘सी’ श्रेणी में रखा गया है। इसका मतलब यह है कि चाहे जो मजबूरी हो, इस काम के लिये बजट में कुल राशि का 15 प्रतिशत से ज्यादा रखा ही नहीं जा सकता। इस पर कौन और कब चिंता करेगा? क्योंकि, अब तो शिक्षा पर बड़ा ही नहीं, बहुत बड़ा खर्च करना पडेगा। बात मानिये 15 अगस्त’ 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “आज हमारी भेंट नियति से हो रही है”, लेकिन अब परिस्थितियां ‘भविष्य से युद्ध’ की हैं। शिक्षा पर होने वाले खर्च में कटौती की या उसे उपयुक्त रूप से नहीं बढ़ाया तो हम हार जायेंगे। यहाँ सवाल एक पूरी की पूरी पीढ़ी का है। पूरे देश में आने वाले अंधकार पूर्ण कल का है, और हम इस पर बात ही नहीं कर रहे हैं।
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)