हिन्‍दुस्‍तान के संपादक ने जंगल में इंसानों को सिखाया सबक

0
3117

 

शशि शेखर

दृश्य-1: जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क। सूरज आसमान पर धीमे-धीमे चढ़ रहा है। जीपों पर सवार सैकड़ों सैलानी ‘शेर’ देखने के लिए निकल पड़े हैं। बहुत कम जंगल की मर्यादा रखते हुए शांत हैं, अधिकतर हो-हल्ला मचा रहे हैं। शेर उनके लिए आग्रह या आदर नहीं, बल्कि तफरीह का साधन भर है। इसी बीच पक्षियों की आवाज गूंजती है। बंदर पेड़ों पर छलांगें मारने लगते हैं। समूचे जंगल में अदृश्य सहमेपन की आहट महसूस होने लगती है। जीप-ड्राइवर कुछ उत्तेजना के साथ बताता है- ‘कॉलिंग’ हो रही है। ‘कॉलिंग’ यानी पक्षियों द्वारा छोटे जानवरों को दिया जाने वाला संकेत कि शेर आसपास है। अचानक दिखता है कि थोड़ी दूर पर तीन जीपें खड़ी हैं। तमाम लोग एक तरफ उंगली दिखा-दिखाकर बतिया रहे हैं। ड्राइवर जीप रोक देता है। उस दिशा में गौर करने पर पाया कि बाघ की आंखें चमक रही हैं। वह घास के बिस्तरे पर आराम फरमा रहा था, पर इस कोलाहल ने उसे व्याकुल कर दिया है। बेचैन सतर्कता से वह हमारी ओर देख रहा है।

दूसरी तरफ सैलानी, जिनमें छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े तक हैं, आवेश में आपा खो रहे हैं। दर्जन भर उंगलियां बाघ की तरफ तनी हुईं, मोबाइल के फ्लैश चमक रहे हैं। इसी बीच किसी की घंटी बज उठी। बाघ पहले दुबकता है, फिर कहीं गुम हो जाता है। सैलानी उन हिदायतों को भूल गए हैं, जो जंगल में दाखिल होते वक्त वन रक्षकों ने उन्हें दी थीं। जंगल के राजा की ओर उंगली मत उठाओ, मोबाइल फोन बंद रखो, फोटो मत खींचो। इससे यह ताकतवर जानवर उत्तेजित हो सकता है। पर नहीं, कौन सुनता है? मैंने बाद में उन सैलानियों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया, तो वे आपा खो बैठे।

एक महिला ने फर्राटेदार अंग्रेजी में कहा कि ‘आप कौन होते हैं, हमें सलीका सिखाने वाले?’ एक नौजवान ने मेरी भलमनसाहत का लिहाज किए बिना कहा कि ‘तुम कोई प्रधानमंत्री लगे हो, जो हमें समझा रहे हो?’ शांत से लगने वाले बुजुर्गवार ने तो कमाल ही कर दिया। अपनी आवाज में उपेक्षा और घृणा भरकर उन्होंने कहा कि ‘ऐसे लोगों के मुंह लगने की क्या जरूरत है, अनसुना कर दो। जो करना है, कर लें।’ मेरा खून खौल उठा। वनकर्मियों को अपना परिचय देता हूं और जंगल में उनके उत्पात की जानकारी भी। फिर क्या? उन मनहूसों की सारी मस्ती हवा हो गई। वनकर्मियों ने उन्हें घेर लिया और तमाम कानूनों का हवाला देते हुए बताया कि उन्होंने जेल जाने का काम किया है।

थोड़ी देर पहले गुर्राते लोग अब गिड़गिड़ा रहे हैं। महीनों बीत गए, पर आजतक शर्मिंदा हूं कि इंसान उन जानवरों से कैसा अभद्र बर्ताव करता है, जिन्हें वह जंगली कहता है! जंगल तो उनका घर है। हम वहां जाने से पहले न उनकी इजाजत लेते हैं और न कुदरती कानून का मान रखते हैं। ऊपर से बढ़ती आबादी ने वनों को समेटना शुरू कर दिया है, इसीलिए प्राय: हर हफ्ते यह खबर सुनने-पढ़ने को मिलती है कि हिंसक पशुओं ने किसी शहर की जिंदगी में दखल दे दिया। गुजरात के गिर में तो करीब 20 बब्बर शेर नरभक्षी हो गए। बमुश्किल उन्हें काबू में लाया जा सका। अब कानून के तहत उन्हें पिंजड़ों में बंद कर दिया गया है। इतने सारे शेरों के आजन्म कारावास का यह मामला अनोखा है।

दृश्य-2: नोएडा का एक पार्क। लोग चहलकदमी कर रहे हैं। भयंकर जाड़ा है। देखता हूं कि एक पेड़ के साये में दो महिलाएं एक कुतिया को कंबल से ढक रही हैं। मादा गर्भवती है। उसकी आंखों से कातरता और कृतज्ञता, दोनों झलक रही है। दो-तीन दिन में ही ‘नेकदिल’ लोगों की जमात इकट्ठी हो जाती है। उसके लिए ईंटों का अस्थायी बसेरा बना दिया जाता है। सुबह-शाम लोग उसे रोटी, डबल रोटी, मांस के टुकड़े देने लगते हैं। सुरक्षित कुतिया स्वस्थ पिल्ले-पिल्लियों को जनती है। भोजन की आमद अब अधिक मात्रा में जारी रहती है। महीनों बीत जाते हैं। पिल्ले बडे़ हो गए हैं। पार्क में धमा-चौकड़ी मचाते हैं। उनके खैरख्वाह अब असहज महसूस करने लगे हैं। वजह? कुत्ते ‘वॉकिंग ट्रैक’ पर कब्जा जमा लेते हैं। राहगीरों को उनसे बचकर निकलना पड़ता है। कभी वे बच्चों पर गुर्राते हैं, तो कभी आपस में लड़ने लगते हैं, जिसे देखकर छोटे बच्चे डर जाते हैं। कुछ लोगों को तो उन्होंने इतना ‘पसंद’ कर रखा है कि पार्क में आते ही वे उनके पीछे-पीछे दौड़ने लग जाते हैं। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि इससे मिस्टर या मिस ‘वॉकर’ को कितनी दिक्कत होती है?

इन दिनों सुबह-शाम वहां बहस होती है कि ‘सीजन’ आने पर ये पगला जाएंगे। तब न जाने कितने लोगों को उनके दांतों का दंश झेलना पड़ेगा। यह आशंका निर्मूल नहीं है। भारतीय शहर पहले से ही आवारा कुत्तों के आतंक से ग्रस्त हैं। रेबीज के टीकों का अकाल है और ऊपर से कुत्तों की तादाद बढ़ती जा रही है। सरकार इनकी आबादी पर नियंत्रण क्यों नहीं करती? इस पर भी लच्छेदार तर्क दिए जाते हैं। लेकिन कुछ ‘कृपालु’ हैं, जो इन कुत्तों को भोजन उपलब्ध कराने से बाज नहीं आ रहे। आशंकाओं और पशु प्रेम के इस द्वंद्व का अंजाम जो भी हो, मगर यह सच है कि खूबसूरत पार्क में तनाव तिरने लगा है। सवाल उठते हैं कि क्या उस कुतिया को तभी मरने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए था, जब वह गर्भ से थी? क्या उसकी अनदेखी अमानवीय नहीं होती?

ऐसे ही मुद्दों पर समूचे देश में बहस पुरगर्म है। चेन्नई में आवारा कुत्तों ने इतनी दहशत मचाई कि उन्हें जलाकर मारना पड़ा। बिहार में नीलगायों को मारने के लिए शिकारियों को बुलाया गया। इससे किसी की धार्मिक भावना आहत हो रही है, तो कोई पशु-प्रेम में दीवाना हुआ जा रहा है। इस लफ्फाजी में उन लोगों का दर्द बिसरा दिया गया है, जो कुत्तों के काटने से जलातंक जैसे मारक रोग के शिकार हुए। हमेशा बदहाल रहने वाले वे किसान भी हाशिये पर चले गए हैं, जिन्हें पहले से दो जून की रोटी मुश्किल से मिलती थी। नीलगायों के जत्थे उनके लिए चंगेज खां के फौजियों से कम नहीं हैं। वे उनकी हरियाई फसल नष्ट कर देते हैं। खड़ी फसल का नुकसान किसी नौजवान परिजन की मौत से कम कष्टदायी नहीं होता।

मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि मुझे पशुओं से कोई परेशानी नहीं। वे उसी प्रकृति का हिस्सा हैं, जिसने मुझे जना है, लेकिन मैं इन गाल बजाने वालों से जरूर पूछना चाहूंगा कि क्या वे इस बात की कसम खा सकते हैं कि वे तफरीह के लिए जंगल में नहीं जाएंगे? क्या वे उन लोगों के खिलाफ गांधीगीरी करना चाहेंगे, जो वनभूमि पर अवैध कब्जे कर पशुओं की जिंदगी तबाह कर रहे हैं? उन किसानों के लिए कुछ करना चाहेंगे, जो हमें-आपको अन्न देने के लिए भूखे पेट सोते हैं? वे यह भी बताएं कि उन्होंने मजलूम इंसानों के लिए क्या किया? इनमें से अधिकतर ऐसे हैं, जो दुर्घटना में घायल लोगों को दम तोड़ने के लिए छोड़ आगे बढ़ जाते हैं। आज ‘फादर्स डे’ को इस गंभीर मुद्दे पर दो पल सोचिए। प्रकृति, पशु और इंसान एक-दूसरे के पूरक हैं, शत्रु नहीं।

@shekharkahin

लेखन दैनिक हिन्‍दुस्‍तान के समूह संपादक हैं

श्री शशिशेखर के और ब्‍लॉग पढि़ए livehindustan.com पर 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here