मुझे केंद्रीय बजट को कवर करने का अवसर कभी नहीं मिला क्योंकि मैंने दिल्ली में रहकर काम नहीं किया। संसद में बजट को सुनना और कवर करना कैसा होता है इसका अनुभव मुझे नहीं है। वैसे भी हमारी पीढ़ी ने जिस कालखंड में काम किया उसमें कई वर्षों तक बजट सबसे पहले रेडियो से पता चलता था और बाद में सरकारी प्रेसनोट से।
उस समय अखबारों के लिए बजट की रिपोर्टिंग का एकमात्र या सबसे बड़ा सोर्स समाचार एजेंसियां हुआ करती थीं। चूंकि मैंने करीब बीस साल न्यूज एजेंसी में काम किया इसलिए मैं कह सकता हूं कि उस समय एजेंसी में बजट के दिन जो माहौल होता था उसकी आप आज कल्पना भी नहीं कर सकते। मोबाइल और गूगलविहीन दुनिया में बजट की रिपोर्टिंग का वो मजा अलग ही था।
मैं इसी कॉलम में पहले भी लिख चुका हूं कि उस समय बजट में सिर्फ आमदनी और खर्च के आंकड़े ही नहीं होते थे, एक तरह से वो पूरे देश की अर्थव्यवस्था की इन्वेंटरी होता था। आपको जानकर आश्यर्च हो सकता है कि बजट में वित्त मंत्री यह तक बताता था कि माथे की बिंदी और मांग में भरा जाने वाला सिंदूर से लेकर चप्पल की बद्दी, जूते के फीते या चश्मे की फ्रेम कितनी महंगी या सस्ती हुई। उसी महंगे सस्ते की सूची से बजट की हेडिंग बना करती- मांग का सिंदूर तक महंगा हुआ-
ऐसा नहीं कि सिर्फ घरेलू चीजों का ही बजट में जिक्र होता हो। आज भले ही उस सूची में सिर्फ सोना और चांदी बच गए हों, लेकिन एक समय था जब धातुओं की पूरी लिस्ट आया करती थी जिसमें लोहा, तांबा, पीतल और कांसे से लेकर अभ्रक, मैगनीज और फास्फोरस जैसे खनिज भी शामिल होते। मुझे याद है एक बार जब अभ्रक और फास्फोरस महंगा होने का जिक्र आया तो अखबारों ने निष्कर्ष निकाला दियासलाई और प्रेस के दाम भी बढ़ेंगे। क्योंकि फास्फोरस का दियासलाई के मसाले में और अभ्रक की प्लेट का बिजली से चलने वाली प्रेस में इस्तेमाल होता था।
उसके बाद ट्रेंड बदला और धीरे धीरे ये सब ब्योरे आना बंद हो गए। बाद में बजट को विभागवार बजट के आवंटन से रिपोर्ट किया जाने लगा। किस विभाग को कितना महत्व मिला इस आधार पर खबरें बनने लगीं। बजट का आकार कितना हो गया और सरकार की आय में कितना इजाफा हुआ इस पर बात होने लगी। सरकार ने देश प्रदेश चलाने के लिए कितना कर्ज लिया इस पर विश्लेषण होने लगे।
वह समय तो आज की पीढ़ी के भी कई लोगों को याद होगा। अभी अभी कुछ सालों तक जो लोग संसद या विधानसभाओं में बजट की रिपोर्टिंग करते आए हैं, वे इस अनुभव से जरूर गुजरे होंगे। उनकी बजट रिपोर्टिंग की कॉपी ऐसे ही आंकड़ों से बनती थी। बरसों तक यह ट्रेंड चला कि कितने करोड़ के घाटे का बजट पेश हुआ। रुपया कहां से आएगा, कहां जाएगा टाइप के चार्ट छपते रहे। इलेक्ट्रानिक मीडिया जब तक मैदान में नहीं उतरा था तब तक एक ट्रेंड बजट को अखबारों में ‘थीमबेस्ड’ बनाने का भी रहा। जैसे यदि क्रिकेट का सीजन है तो क्रिकेट की थीम पर और होली का त्योहार है तो उसकी थीम पर। होली की थीम पर तो मुझे लगता है सबसे ज्यादा बजट अखबारों ने बनाए होंगे।
पर अब सबकुछ बदल गया है। पिछले दिनों जब केंद्रीय बजट प्रस्तुति के दौरान निर्मला सीतारमन ने अपने भाषण में आय-व्यय का बगैर कोई आंकड़ा दिए यह कह दिया कि इससे संबंधित सारी जानकारी संलग्न परिशिष्टों में दी गई है तो एक विश्लेषक की टिप्पणी थी कि जब सरकार ने आय व्यय के आंकड़े ही नहीं दिए तो बजट पर बात क्या करें।
दरअसल मूल बात यही है। चाहे केंद्र सरकार का बजट हो या राज्य सरकार का। सरकारें अब चाहती ही नहीं कि आमदनी और खर्च के दायरे में रहकर बजट को देखा जाए। क्योंकि भले ही वो पुराना ट्रेंड था पर आम आदमी की समझ में इतना तो आ ही जाता था कि सरकार की आर्थिक सेहत कैसी है। उसकी जेब फटी हुई है या सिली हुई। बजट की नई परिभाषा लोगों को ऐसी कोई भनक तक नहीं लगने देना चाहती।
अब सरकारें बजट में आंकड़ों पर नहीं नीतियों पर बात करती है। निर्मला सीतारमन के बजट में भी नीतियों पर जोर था और बुधवार को मध्यप्रदेश विधानसभा में वित्त मंत्री तरुण भनोत द्वारा प्रस्तुत बजट में भी यही बात दिखाई दी। सरकारें चाहती हैं कि अब बजट को आंकड़ों के लिहाज से नहीं, बल्कि भावनाओं के लिहाज से समझा जाए। ऐसे में बजट पर बोलना और भी मुश्किल हो जाता है क्योंकि- ‘जाकी रही भावना जैसी’ की तर्ज पर हर व्यक्ति अपने हिसाब से उस भावना को ग्रहण या अस्वीकृत करता है।
ऐसे में आप यदि पूछें कि केंद्र सरकार के बजट से देश को क्या मिला तो जवाब होगा- पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थ व्यवस्था बनने का सपना- और मध्यप्रदेश के बजट से क्या मिला तो जवाब होगा- अंधेरे में उजाला देखने का सपना- विपरीत परिस्थितियों में, वादों के बोझ तले दबा कोई वित्त मंत्री जो कर सकता है, तरुण भनोत ने वही किया।
भनोत ने कौटिल्य की इस उक्ति के साथ अपनी बात आरंभ की कि-‘’प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में उसे अपना हित देखना चाहिए। जो स्वयं को प्रिय लगे उसमें राजा का हित नहीं है, उसका हित तो प्रजा को प्रिय लगे उसमें है। कौटिल्य का यही सूत्र वाक्य हमारी सरकार का मूल मंत्र है।‘’
और अपनी बात का अंत भनोत ने प्रदेश के विकास में अब तक की सभी सरकारों के योगदान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए इन पंक्तियों के साथ किया- दुआ कौनसी थी, हमें याद नहीं/ दो हथेलियां जुड़ी थी, एक तेरी थी, एक मेरी थी…
क्या संयोग है कि केंद्र की सरकार कहती है, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ और राज्य की सरकार कहती है ‘दो हथेलियां जुड़ी थी, एक तेरी थी, एक मेरी थी’… भाव दोनों का एक है। दिक्कत बस इतनी है कि चाहे केंद्र हो या राज्य, क्रियान्वयन के समय यह भाव कुछ यूं हो जाता है- एक सरकार तेरी थी/एक सरकार मेरी थी…