यदि वास्तव में भारत पांच ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने के लिए चीन का मॉडल अपनाना चाहता है तो पहले उसे कई ऐसे सवालों का जवाब देना पड़ेगा जो इस लक्ष्य के पूरा होने के प्रति संदेह पैदा करते हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत और चीन के राजनीतिक ढांचे में बुनियादी अंतर है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और चीन, एक पार्टी द्वारा संचालित व्यवस्था।
हमारे आर्थिक सर्वेक्षण से लेकर बजट तक में इस बात के संकेत दिए गए हैं कि सरकार चीन की तर्ज पर ही मेगा प्रोजेक्ट की धारणा पर काम कर सकती है। लेकिन चीन में सरकार के लिए यह मुमकिन है कि वह ऐसी विशाल परियोजनाओं की कल्पना भी करे और तय समयसीमा में उन्हें जमीन पर उतार भी दे। इधर भारत में ऐसे प्रोजेक्ट्स की बात तो छोडि़ये, छोटी सी दुकान खोलने तक के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह किसी से छिपा है क्या।
पिछले दिनों एक न्यूज चैनल ने एक रिपोर्ट प्रसारित की थी जिसमें कहा गया था कि 7 लाख करोड़ रुपए की लागत वाली परियोजनाएं किसी न किसी कारण से अदालती पचड़ों में फंसी पड़ी है। इसी चैनल के एक कार्यक्रम में सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को मीडिया से यह अनुरोध करते भी सुना गया था कि ऐसे मामलों में कभी आप न्यायालय की भी घंटी बजाइए, डरिये मत हम आपके साथ हैं।
हमारे यहां प्रोजेक्ट वर्षों तक लटके रहना आम बात है। जो योजना दो साल में पूरी होनी होती है उसे पूरा होने में आठ दस साल तक लग जाते हैं और इस बीच उसकी लागत कई करोड़ रुपए बढ़ जाती है। बढ़ी हुई यह लागत जनता की जेब पर भारी पड़ती है और सरकारों का बजट बिगाड़ती है। जबकि चीन में ऐसा कोई झंझट ही नहीं है। अब आप इसे किसी भी दृष्टि से देखिए लेकिन क्या हम चीन की तरह डंडा चलाकर योजनाओं के लिए लोगों को बेदखल कर सकते हैं, क्या हम वैसी दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाकर योजनाओं को सख्ती से समय सीमा में पूरा करवा सकते हैं?
3 फरवरी 2019 को इकानॉमिक टाइम्स ने एक खबर प्रकाशित की थी, जिसमें योजना एंव सांख्यिकी मंत्रालय की अक्टूबर 2018 की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया था कि 150 करोड़ रुपये (प्रत्येक) से अधिक की लागत वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर के 363 प्रोजेक्ट ऐसे हैं जिनके समय पर पूरा न हो पाने के कारण लागत में 3 लाख 42 हजार करोड़ रुपए का इजाफा हो गया है। ये प्रोजेक्ट एक माह से लेकर पांच साल से भी अधिक समय से लंबित चल रहे थे।
ऐसे में हम यदि निवेश लेकर आ भी जाते हैं और उस निवेश को इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में लगा भी देते हैं तो क्या गारंटी है कि किसी भी परियोजना को समय पर पूरा न करने का जो खून हमारे तंत्र की दाढ़ें चख चुकी हैं, वे उसके स्वाद को भुला देंगी। यदि हम ज्यादा से ज्यादा विदेशी निवेश को आकर्षित करना चाहते हैं, और जैसीकि सरकार की मंशा दिखाई भी देती है,तो हमें अनिवार्य रूप से ऐसे हर निवेश का उचित रिटर्न समय पर देने लायक व्यवस्था बनानी होगी।
सरकार के पांच ट्रिलियन डॉलर वाले सपने में कोई बुराई नहीं है। देश के विकास के लिए ऐसे सपने देखे भी जाने चाहिए और उन्हें पूरा भी किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसे सपने पूरे करने के लिए जरूरी है कि हम गवर्नेंस का ढर्रा और ढांचा दोनों बदलें। उसे बदले बिना कोई भी लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं होगा। सरकारों का मूल्यांकन उनकी सदेच्छा से नहीं, बल्कि उन सदेच्छाओं के कार्यरूप में परिणत होने, जमीन पर उतरने के आधार पर होता है।
और हमारा ढांचा व ढर्रा कैसा है, इसका एक उदाहरण मंगलवार को ही संसद में देखने को मिला जहां वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने लोकसभा को बताया कि पिछले पांच सालों में देश के सार्वजनिक बैंकों के 71 हजार करोड़ रुपए घोटालेबाज डकार गए।2014-15 में बैंकों में धोखाधड़ी की 2630 घटनाओं में 20,005 करोड़ रुपये की चपत लगी। इसी तरह 2015-16 में 2,299 मामलों में 15,163 करोड़ की धोखाधड़ी हुई। 2016-17 में 1,745 मामलों में 24,291 करोड़ की गड़बड़ी सामने आई तो 2017-18 में 6,916और 2018-19 में पांच हजार 149 करोड़ की धोखाधड़ी के मामले हुए। कुल 71 हजार करोड़ में से 64 हजार करोड़ रुपये के घोटाले तो खुद बैंक स्टाफ की सांठगांठ से हुए।
अब बताइये, यदि वो संस्थाएं जिन पर बचत और निवेश के लिए आने वाले धन की निगरानी और संरक्षण की जिम्मेदारी है,यदि वे ही सार्वजनिक या निवेशित धन को लूटने में लग जाएं, तो कौनसी अर्थव्यवस्था होगी जो सुचारू रूप से चल सके। ऐसे में हम यदि यह संकेत देते हैं कि हम चीन के मॉडल को अपनाएंगे तो क्या यह समझा जाए कि सरकार ऐसे मामलों में वैसी ही सख्ती करने के मूड में है जैसी चीन में होती है। बहस में इस बात को जायज ठहराया जा सकता है लेकिन क्या देश का सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक मानस इसे गले उतारने के लिए तैयार है?
ये ट्रिलियन ट्रिलियन क्या है?
देश के आर्थिक परिदृश्य पर चल रही इस श्रृंखला को लेकर एक पाठक ने बहुत दिलचस्प सवाल पूछा। उन्होंने कहा- आप तो बस यह बता दीजिए कि इस पांच ट्रिलियन में कितने शून्य होते हैं। पहले से ही शून्य में भटक रहे हम लोग क्या उतने और शून्यों का बोझ उठा पाएंगे?
हंसी मजाक अपनी जगह पर, लेकिन यदि आप एक ट्रिलियन को अंकों में लिखना ही चाहें तो1 के बाद आपको 12 शून्य और लगाने होंगे यानी इसे इस तरह लिखेंगे- 1 000 000 000 000, मतलब दस खरब। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने पांच जुलाई को जब बजट पेश किया था, उस दिन अमेरिका का एक डॉलर 68.475 रुपये के बराबर था। यदि यही रेट लें तो एक ट्रिलियन डॉलर का मतलब हो जाता है 68475 000 000 000 अब जिन्होंने हिन्दी की गिनती सीखी है वे यह संख्या पढ़कर रोमांचित हो सकते हैं। क्योंकि यह संख्या पढ़ी जाएगी 6 नील, 84 खरब, 75 अरब रुपये।
और जब हम अपनी अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर वाली बनाने की बात करते हैं तो इसका मतलब हो जाता है 342375 000 000 000 और इसे पढ़ा जाएगा 34 नील, 23 खरब 75 अरब रुपये। मोटे तौर पर इसे आप यूं समझिये कि यह इतनी बड़ी राशि है कि हम अपने 2000 रुपए के नोट की करीब दो परतें इस पृथ्वी पर बिछा सकते हैं।
अब समझ में आया यह कितना बड़ा मामला है…