मेरे पड़ोस में रहने वाले एक परिवार के घर में दो छोटे बच्चे हैं। एक लड़का, एक लड़की। लड़की की उम्र तीन-चार साल होगी, लड़का उससे छोटा है। कुछ दिन पहले की ही बात है मैंने उस घर की नौकरानी को दोनों छोटे बच्चों से बातचीत करते गौर से सुना। घर में झाड़ू लगाती नौकरानी बच्चों से कह रही थी पीछे हटो, कचरे में नहीं आना, तुम्हारी झाड़ू कहां है… तुम दूसरे कमरे में जाकर झाड़ू लगाओ…
पड़ोसी के घर में क्या चल रहा है यह मुझे दिखाई तो नहीं दे रहा था, लेकिन मैं उस दृश्य की कल्पना जरूर कर पा रहा था। झाड़ू लगाती नौकरानी और कचरे में कूदते फांदते बच्चे… झाड़ू के तिनकों से अपनी छोटी झाड़ू बनाकर नौकरानी की नकल करते हुए, खुद भी कमरे का कचरा बुहारने की कोशिश करते हुए बच्चे…।
नौकरानी बार बार कह रही थी… तुम्हारी छोटी झाड़ू कहां है, तुम उस कमरे में जाकर झाड़ू लगाओ, यहां मुझे काम करने दो… लेकिन बच्चे थे कि मानने को तैयार ही नहीं थे। अंतत: वह महिला बच्चों की जिद के सामने हार गई और अपनी झाड़ू बच्चों के ही हाथ में थमाते हुए बोली- लो, पहले तुम ही कचरा निकाल लो… मैं तब तक बर्तन साफ कर लेती हूं…
थोड़ी देर बाद दृश्य बदल चुका था। अब दूसरा संवाद हो रहा था। नौकरानी कह रही थी- पानी में हाथ नहीं डालना… बर्तनों से दूर रहो… इतने में किसी बच्चे ने कोई बर्तन उठाया और जमीन पर पटक दिया। संभवत: उसमें रखी सामग्री भी फर्श पर फैल गई… नौकरानी ने झल्लाते हुए कहा- ये क्या किया, सारा फर्श गंदा कर दिया… चलो हटो, बच्चे बर्तन साफ नहीं करते…। मैं साफ महसूस कर रहा था कि बच्चे मानने को तैयार नहीं थे, जो काम नौकरानी कर रही थी, उन्हें भी वही काम करना था…
पहले मेरा ध्यान नहीं जाता था, लेकिन उस दिन के बाद से मैं करीब करीब रोज ही नौकरानी और बच्चों के बीच होने वाला वह दिलचस्प संवाद सुनता हूं। बच्चे नौकरानी के इर्दगिर्द घूमते हुए कभी उससे झाड़ू छीनकर खुद ही कमरे की झाड़ू लगाना चाहते हैं, तो कभी बाहर गैलरी में बर्तन धोने वाली जगह पर जाकर जूठे बर्तनों को धोना चाहते हैं…
हमारे परिचित एक और परिवार में ऐसे ही एक और छोटी बच्ची है। शायद वह तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ती है। मां-बाप पढ़े लिखे और आधुनिक हैं। परिवार में भी पुरातनपंथी कोई संस्कार दिखाई नहीं देता। बच्ची मोबाइल से लेकर कंप्यूटर और टेबलेट तक सब चला लेती है। वीडियो गेम खेलना उसका प्रिय शगल है। लेकिन इस सबके बावजूद पिछले दिनों एक मेले में उसने किचन के सामान का सेट लेने की जिद कर डाली। मां-बाप ने बहुत समझाया लेकिन बच्ची अपनी जिद पर अड़ी रही और किचन सेट लेकर ही मानी।
उस दिन के बाद से वह बच्ची अकसर अपना वीडियो गेम छोड़कर उस किचन सेट से खेलती नजर आती है। कभी छोटे छोटे बर्तनों में खाना बनाना, कभी घर में आने वाले मेहमानों को अपने छोटे से गैस चूल्हे पर चाय बनाकर नन्हे नन्हे कपों में चाय पेश करना उसका प्रिय खेल है। वह भी अपने किचन सेट के साथ उसी तरह काम करना चाहती है, जैसा वह अपनी मां को या घर में खाना बनाने के लिए आने वाली बाई को किचन में करते देखती है।
मैंने देखा है, उसके मां बाप उसे कई बार टोकते हुए दूसरे खेल खेलने की नसीहत देते हैं, लेकिन वह बच्ची अपने किचन सेट के साथ ही मस्ती में खोई रहती है। इसी तरह उसका एक काम अपनी गुडि़या को नहला धुलाकर तैयार करना, उसके कपड़े बदलना, उसके बाल संवारना, उसका मेकअप करना आदि होता है। गुडि़या की देखभाल वह उसी तरह करती है जैसे कोई मां अपनी छोटी बच्ची की देखभाल करती है।
आप सोच रहे होंगे कि मैं आज ये कौनसी किस्सागोई में लग गया। आखिर इन सारे बाल प्रसंगों का गिरेबान से क्या लेना देना… तो मैं आपको बता दूं कि इन प्रसंगों का आज के गिरेबान से गहरा लेना देना है। ये प्रसंग मुझे पिछले दिनों भोपाल में हुए राष्ट्रीय बालरंग समारोह के उद्घाटन कार्यक्रम को लेकर प्रकाशित खबरों के संबंध में याद आए।
उद्घाटन कार्यक्रम को लेकर खबर यह बनाई गई थी कि बच्चों ने अतिथियों को चाय परोसी। मीडियावालों के लिए यह घटना शायद ‘आपत्तिजनक’ थी लिहाजा उन्होंने इसे इस तरह पेश किया मानो बच्चों के साथ कोई घोर अत्याचार हो गया हो। लेकिन मेरा मत यहां थोड़ा अलग है। मेरा सवाल है कि हम खबर बनाने के चक्कर में आखिर क्यों, बच्चों को सामाजिक और स्वावलंबी बनाने वाली बातों को,अत्याचार का दर्जा दे रहे हैं।
मुझे याद है हमारे जमाने में हम न सिर्फ अपने क्लास रूम की सफाई करते थे, बल्कि स्कूल में कोई कार्यक्रम होने पर अलग अलग कामों के लिए बच्चों की बाकायदा ड्यूटी लगाई जाती थी। जिन बच्चों का नाम ऐसे अलग-अलग दलों में होता, वे गर्व महसूस करते, जबकि कोई काम न सौंपे जाने वाले बच्चे मायूस हो जाते थे। आज हम बच्चों को आखिर क्या बनाना चाहते हैं?
हां, बच्चों का उत्पीड़न, उनका शारीरिक या यौन शोषण हो रहा हो तो उसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए। वैसे मामलों में दोषियों पर सख्त कार्रवाई भी होनी चाहिए, लेकिन बच्चे यदि अपने स्कूल को साफ रखने, अपने स्कूल में आने वाले अतिथियों का सत्कार करने जैसा काम करते हैं तो इसमें बुराई क्या है? हम आखिर हरेक बात में नकारात्मकता ढूंढते हुए उसे खबर क्यों बनाना चाहते हैं?
शुरुआत में जो उदाहरण मैंने दिए वे इसीलिए दिए। वे उदाहरण बताते हैं कि बच्चों के लिए ये काम खेल की तरह हैं। वे नया नया टास्क लेना चाहते हैं। जब बच्चा घर में झाड़ू लगाने की कोशिश करता है या बर्तन साफ करने अथवा खाना बनाना सीखने की कोशिश करता है तो घर से बाहर ये ही काम उस पर अत्याचार कैसे हो जाते हैं?
हो सकता है मेरी बातें पुरातनपंथी लगें, लेकिन इस सवाल पर कोई सोचने की जहमत तो उठाए कि बच्चों को अपने आसपास साफसफाई रखने के लिए प्रेरित करना और उनसे साफसफाई करवाना उन पर अत्याचार कैसे हो गया? क्या हम अपने घर आने वाले मेहमान के लिए पानी या चाय लाने को बच्चों से नहीं कहते? तो फिर एक कार्यक्रम में बच्चों ने यदि अतिथि सत्कार की वह परंपरा निभा दी तो उसमें कौनसा पहाड़ टूट पड़ा… आपको खबर ही चाहिए तो मुद्दे और भी हैं भाई…