अजय बोकिल
विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष पद से विवादित नेता डॉ. प्रवीण तोगडिया की जबरन विदाई और इस पद पर जस्टिस विष्णु सदाशिव कोकजे जैसे शालीन और सम्मानित व्यक्ति को बैठाना क्या विहिप जैसे विशाल संगठन में किसी गुणात्मक बदलाव की निशानी है या यह केवल सिरदर्द बन चुके नेता की किसी तरह रवानगी है? अथवा यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक पुराने राजनीतिक दुश्मन का लोकतांत्रिक तरीके से किया गया शिकार है?
ये तमाम सवाल इसलिए जहन में उठ रहे हैं कि तोगडिया ने बाजी भले हारी हो, लेकिन हिम्मत नहीं हारी है। गुरुग्राम में विहिप के चुनाव में अपने प्रत्याशी की करारी हार के बाद भी उन्होंने खुद को बड़ा हिंदू हितैषी बताते हुए 17 अप्रैल से अहमदाबाद में धरना देने की धमकी दी है।
खुद को हिंदुओं की सबसे बड़ी संस्था मानने वाली विश्व हिंदू परिषद के विस्तार में तोगडिया की बहुत बड़ी भूमिका भले न रही हो, लेकिन उसे विवादित और सुर्खियों में लाने में तोगडि़या का बड़ा रोल रहा है। उन्हें विहिप का अंतराष्ट्रीय अध्यक्ष अधिकृत तौर पर 2011 में बनाया गया था, लेकिन इसके काफी पहले से ही वे हिंदुओं के उद्दंड और लगभग निर्लज्ज पैरोकार के रूप में खुद को स्थापित कर चुके थे।
समझा जाता है कि गुजरात दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी को विधानसभा चुनाव जितवाने में तोगडिया और बजरंगदल की बड़ी भूमिका थी। उस वक्त मोदी और तोगडिया अच्छे मित्र माने जाते थे। लेकिन मोदी के मुख्यमंत्री के रूप में दूसरे कार्यकाल में तोगडिया की बढ़ती राजनीतिक आकांक्षाओं और प्रशासन में अनाधिकार हस्तक्षेप की शिकायतों के बाद मोदी को तोगडिया का ‘पक्का इंतजाम’ करना पड़ा।
मोदी ने इस हिंदू नेता की ऐसी हालत कर दी थी कि पूरे देश में तोगडिया कुछ भी बयानबाजी करते रहें, गुजरात में घुसते ही उन्हें सांप सूंघ जाता था। क्योंकि तोगडिया भले कितनी लफ्फाजी करते रहें, हिंदुत्व के असल ब्रांड तब तक नरेन्द्र मोदी बन चुके थे। बाद में दोनो के बीच अदावत इतनी बढ़ी कि तोगडिया ने सार्वजनिक रूप से अपनी हत्या की आशंका जताई। यह भी माना गया कि गुजरात में पाटीदारों के आंदोलन को भीतर से तोगडिया ने ही हवा दी थी।
विश्व हिंदू परिषद आरएसएस से जुड़ा एक विशाल अंतरराष्ट्रीय संगठन है। इसने परदेश में रह रहे हिंदुओं को एक सूत्र में पिरोने का काफी काम किया है। लेकिन तोगडिया के अध्यक्ष बनने के बाद यह संगठन महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई में ज्यादा उलझता दिखा। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तोगडिया की दुश्वारियां बढ़ गईं और उधर संघ तथा विहिप के लिए भी तोगडिया का व्यवहार और उद्दंडता सरदर्द साबित होने लगी। तोगडिया को पद से हटाने की अंदरूनी तौर पर कई बार कोशिशें हुईं, लेकिन वे संगठन को लगभग चुनौती देते हुए पद पर डटे रहे।
यही वजह है कि विहिप में 54 साल बाद बाकायदा चुनाव करवा कर तोगडिया को बेदखल करना पड़ा। स्वभाव के अनुरूप तोगडिया ने आखिरी दम तक किला लड़ाया और खेत रहे। पद से हटाए जाने के बाद भी वे हिंदू हित और राम मंदिर के लिए सड़कों पर लड़ाई लड़ने का दावा कर रहे हैं। मतलब साफ है कि तोगडिया मोदी सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करते रहेंगे।
अब सवाल यह है कि तोगडिया के जाने के बाद क्या विहिप हिंदू परिषद में कोई बुनियादी बदलाव आएगा या फिर यह केवल मोदी के अनुकूल हालात बनाने के उद्देश्य से किया गया टेम्परेरी मैनेजमेंट है? नए अध्यक्ष जस्टिस कोकजे एक सम्मानित और गंभीर व्यक्ति हैं। वे मध्यप्रदेश के हैं, यह मप्र के लिए भी गर्व का विषय है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके व्यक्तित्व और मप्र की सहिष्णु तासीर का असर विहिप की कार्यशैली पर कहीं न कहीं दिखाई देगा।
जस्टिस कोकजे विहिप में पहली बार चुनाव से भी व्यथित दिखे। उनका मानना है कि संगठन में सत्ता परिवर्तन सद्भावना से होता तो बेहतर होगा। चुनाव के बाद नई कार्यकारिणी बनी और आलोक कुमार नए अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष बने। उन्होंने मीडिया से चर्चा में कहा कि वरिष्ठ प्रचारक डा. प्रवीण तोगड़िया की आलोचनाओं को ज्यादा महत्व न दिया जाए। क्योंकि संगठन बड़ा होता है, व्यक्ति बड़ा नहीं होता।
अगर कोई व्यक्ति स्वयं को संगठन से बड़ा समझ लेता है, तो वहीं से गलती शुरू हो जाती है। यहां मुद्दा यह भी है कि यदि व्यक्ति संगठन से बड़ा नहीं होता है तो तोगडिया इतने विवादों के बाद भी इतने समय तक अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर कैसे डटे रहे? तोगडिया जैसे लोगों के पास कौन सी संजीवनी बूटी होती है कि तमाम शिकायतों के बाद भी उनका बाल बांका नहीं हो पाता? क्या पूर्व में संगठन में उन्हें हटाने को लेकर आम राय नहीं थी या फिर तोगडिया के सही विकल्प की तलाश जारी थी?
दरअसल तोगडिया इस बात का प्रतीक हैं कि विपक्ष में रहते हुए कोई भी संगठन कितना ही उग्र या उद्दंड क्यों न हो, सत्ता प्राप्ति अथवा सत्ताश्रय के बाद उसे अपना व्यवहार बदल लेना चाहिए, लेकिन तोगडिया ने यही नहीं किया। वे हिंदुत्व का केसरिया दुपट्टा ओढ़ कर शीर्ष सत्ता को चुनौती देने का खुला खेल खेलते रहे। जब सत्ता स्वयं भगवा हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हो तो विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों को महज मांडलिकों की भूमिका निभानी चाहिए। शीर्ष सत्ता को चुनौती देना आत्महत्या जैसा है।
तोगडिया इस बात को समझ कर भी नासमझी का आभास दे रहे थे। इसके लिए उन्होंने हर कदम पर पंगेबाजी का सहारा लिया और अपने ही हाथ जला बैठे। अब देखना दिलचस्प होगा कि नई परिस्थितियों में विश्व हिंदू परिषद रचनात्मक भूमिका में रहकर अनुगामिनी की तरह काम करेगी या हिंदुत्व का एजेंडा कुछ नए फंडे के साथ आगे बढ़ेगा? वह हार्ड हिंदुत्व के बजाए सॉफ्ट लेकिन ठोस हिंदुत्व की लाइन पर चलेगा ? क्योंकि इसी रास्ते से हिंदू एकता की शुभ्र इबारत लिखी जा सकती है। तोगडिया प्रकरण का एक सबक यह है कि ऐसे लोग अंतत: भस्मासुर साबित होते हैं। ऐसे भस्मासुर, जहां देवताओं को खुद को बचाने के लिए भी किसी महादेवता की शरण लेनी पड़ती है।
(सुबह सवेरे से साभार)