अजय बोकिल
ऑस्ट्रेलियाई टीम के साथ सिडनी में खेले गए तीसरे टेस्ट मैच को, भारतीय टीम द्वारा ड्रॉ कराने से ज्यादा, कुछ ऑस्ट्रेलियाई दर्शकों की ओर से भारतीय क्रिकेटरों के खिलाफ की गई भद्दी नस्ली टिप्पणियों के लिए याद रखा जाएगा। इसी टेस्ट में हमने भारतीय राष्ट्रगान के वक्त क्रिकेटर मोहम्मद सिराज की आंखों से आंसू बहते भी देखे और रवींद्र जडेजा के चोटिल होने के बाद मैच को ड्रॉ कराने की जद्दोजहद भी देखी। यहां सवाल यह है कि क्रिकेट जैसे खेल में भी दर्शकों द्वारा मेहमान टीम के खिलाफ नस्ली फब्तियां कसने के पीछे कौन-सी मानसिकता है? इसके पीछे कारण क्या हैं और यह भी कि अगर नस्ली गालियां ही सुननी हैं तो हम ऐसे देश के साथ क्रिकेट खेलते ही क्यों हैं? क्या हमारा उनके साथ खेलना नस्लवादी ताकतों को करारा जवाब है या पैसा कमाने के लिए ऐसा करना क्रिकेट संघों की मजबूरी है?
बहरहाल जो हुआ, वह क्रिकेट के इतिहास में नकारात्मक ढंग से इसलिए याद रखा जाएगा, क्योंकि इस खेल को ‘जेंटलमेन्स गेम’ कहा जाता रहा है। यूं नस्लभेदी, रंगभेदी ताकतें दुनिया में हर जगह हैं, लेकिन खेल के मैदान में इसका असर कम ही देखने को मिलता है। हालांकि कई बार शत्रु देशों के बीच होने वाले मैचों में दर्शकों की उत्तेजना उनके नफरती कमेंट्स में सुनाई पड़ती है, लेकिन ऐसा करना युद्ध का स्वभाव हो सकता है खेल का नहीं। खेल भावना की बुनियाद में चुनौती स्वीकार करने और जीत हासिल करने की प्रतिस्पर्द्धा तो है, लेकिन सौहार्द कायम रखने के आग्रह के साथ।
सिडनी टेस्ट में दो प्रसंग ऐसे आए, जिसने भारतीय दर्शकों को भावुक किया और उद्वेलित भी। पहला प्रसंग सिडनी टेस्ट के पहले दिन का था, जब भारतीय राष्ट्रगान गाते समय तेज गेंदबाज मोहम्मद सिराज की आंखों में आंसू आ गए। कोई भारतीय खिलाड़ी या अन्य भारतीय भी विदेश में अपना राष्ट्रगान गाता है और तिरंगा फहराते देखता है तो उसका हृदय गर्व से भर जाता है। लेकिन सिराज की आंखों में आंसू की एक वजह उन्हें अपने पिता की याद आना भी थी। सिराज के मुताबिक उनके स्व. पिता चाहते थे कि मैं अपने देश के लिए टेस्ट मैच खेलूं। आज उनका सपना पूरा हुआ, लेकिन इसे देखने के लिए वो आज इस दुनिया में नहीं हैं। काश! वो मुझे देख पाते।
यह प्रसंग इसलिए भी खास है, क्योंकि भारतीय क्रिकेट टीम के ऑस्ट्रेलिया दौरे के दौरान ही सिराज के पिता का निधन हुआ था और वो पिता के अंतिम संस्कार के लिए स्वदेश नहीं जा सके थे। सिराज टीम इंडिया के साथ ऑस्ट्रेलिया ही रुके क्योंकि उनके पिता उन्हें देश के लिए खेलते देखना चाहते थे। पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद कैफ ने जब एक टिप्पणी के साथ यह वीडियो वायरल किया तो बहुतों की आंखें नम हो आईं। इसलिए भी क्योंकि सिराज के पिता एक साधारण ऑटो रिक्शा चालक थे। लोगों ने मोहम्मद सिराज की देशभक्ति और पितृभक्ति के जज्बे को मन ही मन सलाम किया।
दुर्भाग्य से इन्ही मोहम्मद सिराज और सहयोगी खिलाड़ी जसप्रीत बुमराह को ऑस्ट्रेलिया में नस्ली टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। सिराज बाउंड्री पर फील्डिंग कर रहे थे। सोशल मीडिया पर शेयर हो रहे वीडियो में ऑस्ट्रेलियाई दर्शक सिराज को ‘ब्राउन डॉग’ और ‘मंकी’ कहते हुए नजर आते हैं। इसके पीछे उनके मन में छिपा हिकारत का भाव साफ परिलक्षित होता है। सिराज ने इसकी शिकायत कार्यवाहक कप्तान अजिंक्य रहाणे और अंपायर पॉल रिफेल से की, जिसके बाद पुलिस की मदद से छह लोगों की पहचान कर उन्हें मैदान से बाहर कर दिया गया।
इस घटना की आईसीसी सहित सभी दिग्गज क्रिकेट खिलाडि़यों ने निंदा की। क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने इसको लेकर भारतीय खिलाड़ियों से माफी भी मांगी। आईसीसी इस मामले की जांच कर रहा है। भारतीय कप्तान विराट कोहली ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि इस तरह की नस्लवादी टिप्पणियां पूरी तरह से अस्वीकार्य हैं। ऐसा करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।
यहां प्रश्न यह भी उठता है कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों के प्रति यह घृणा भाव क्यों है? केवल रंग के कारण या फिर उस देश में बसे भारतीयों की प्रतिभा और अमीरी के कारण? वैसे ऑस्ट्रेलिया में नस्लभेद कोई नई बात नहीं है। वहां यह दो तरह का है। पहला तो उन देशज आदिवासियों के प्रति है, जो ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी हैं। ये लोग ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप और उससे लगे द्वीपों में 65 हजार साल से भी ज्यादा समय से रहते आए हैं। लेकिन आज पूरी तरह गोरों के रहमो करम पर हैं। कारण कि एक अंग्रेज कैप्टन जेम्स कुक ने 1770 में पूर्वी ऑस्ट्रेलिया पहुंच कर उस पर अपना अधिकार घोषित कर दिया।
धीरे-धीरे अंग्रेजों ने पूरे ऑस्ट्रेलिया पर ही कब्जा कर लिया। मूल आदिवासी अपने घरों में सिमट कर रह गए। इनमें बहुतों को ईसाई बना लिया गया। हालांकि ऑस्ट्रेलिया में नस्लभेदी विरोधी कानून लागू हैं, लेकिन व्यवहार में उसका असर कम ही दिखाई देता है। वहां के मूल निवासी आज भी अपने हकों और पहचान के लिए लड़ रहे हैं। गोरों के मन में उनके लिए हिकारत का भाव है।
जहां तक भारतीयों का सवाल है तो भारतीय ऑस्ट्रेलियाई उस देश में दूसरा सबसे बड़ा आप्रवासी समुदाय है। उनकी संख्या करीब 6 लाख 60 हजार है और हर साल 11 फीसदी की दर से बढ़ रही है। ज्यादातर भारतीय अपनी योग्यता और मेहनत के कारण उच्च आय वर्ग में हैं। ऑस्ट्रेलिया-भारत के बीच मैच में इनमें से ज्यादातर का झुकाव भारतीय टीम की ओर रहता है। अब तो भारतीयों का ऑस्ट्रेलिया के हर क्षेत्र में दखल है, जिसमें राजनीति भी शामिल है। हो सकता है कि भारतीयों की यह तरक्की भी नस्लभेदी मानसिकता का कारण हो।
अच्छी बात यह है कि प्रशासन के स्तर पर इस तरह के नस्लवाद के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। तीन दशक पहले नस्लभेद के कारण दुनिया के अधिकांश देश दक्षिण अफ्रीका की टीम के साथ नहीं खेलते थे। वहां नस्लभेद कानूनी तौर पर खत्म होने के बाद दक्षिण अफ्रीकी टीम का बहिष्कार भी समाप्त हुआ। लेकिन वो मानसिकता अभी खत्म नहीं हुई है। हालांकि इस बात का आश्चर्य भी है कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीय समुदाय इतनी बड़ी संख्या में रह रहा है। वो गोरों के लिए कोई अजनबी नहीं हैं।
भारतीयों ने तो अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। उन्हें वहां समान अधिकार भी मिले हुए हैं। इसके बाद भी कुछ ऑस्ट्रेलियाई भारतीयों के प्रति घृणा भाव पाले हैं तो इसका कोई औचित्य नजर नहीं आता। और फिर क्रिकेट तो एक खेल है। भारतीय खिलाड़ी वहां जाते हैं, ऑस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम यहां आती है। खेल की हारजीत में प्रतिस्पर्द्धा का भाव नतीजों के साथ ही समाप्त हो जाता है। यूं भी ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट अब उस तरह की अजेय नहीं रही, जैसे कि 20 साल पहले हुआ करती थी। लेकिन अगर खेल में चुनौती को नस्लवाद से जोड़ा जाएगा तो खेल भावना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा।
सिडनी टेस्ट में भारतीय क्रिकेटरों के खिलाफ नस्लवादी टिप्पणी के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अजहरुद्दीन की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण थी। अजहर ने कहा कि हम जब भी ऑस्ट्रेलिया जाकर उसके साथ क्रिकेट खेलते हैं, ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। लेकिन अब तो इसने नियमित रूप ले लिया है। अजरुद्दीन का यह कहना यदि सही है तो सवाल उठता है कि ऐसे देश में हम खेलने जाते ही क्यों हैं? क्या हमे जवाबी सख्त स्टैंड नहीं लेना चाहिए?