क्यों ठोंकी नेपाल ने ताल?

राकेश अचल

पूरी दुनिया जब कोरोना से जूझ रही है, तब भारत को अपने पड़ोसी देश नेपाल से सीमाओं के विवाद से जूझना पड़ रहा है। उस नेपाल से, जो शताब्दियों से हमारा सबसे प्रिय और स्वाभाविक मित्र और पड़ोसी था। पड़ोसी तो नेपाल अब भी है लेकिन अब वो ताल ठोंकता दिखाई दे रहा है। ये सब करने की कूबत नेपाल में नहीं है, लेकिन उसे चीन ने बरगला लिया है और हम खामखां दुनिया में अपना डंका बजा रहे हैं।

बात थोड़ी पुरानी है, लेकिन नेपाल ने उसे नया बना दिया है। भारत और नेपाल के वर्तमान विवाद की शुरुआत 1816 में हुई थी। तब ब्रिटिश हुकूमत के हाथों नेपाल के राजा कई इलाके हार गए थे। इसके बाद सुगौली की संधि हुई जिसमें उन्हें सिक्किम, नैनीताल, दार्जिलिंग, लिपुलेख, कालापानी को भारत को देना पड़ा था। लेकिन आज नेपाल की संसद ने नेपाल का जो नया नक्शा जारी किया है उसमें ये तीनों क्षेत्र नेपाल के दर्शाये गए हैं।

इस विवाद की गहराई में जाने के लिए आप इतिहास की किताबें पढ़ सकते हैं, हम तो यहां मौजूदा परिदृश्य की बात कर रहे हैं। सवाल ये है कि नेपाल ने अचानक ये विवाद क्यों खड़ा किया, कौन है इसके पीछे? नेपाल के साथ भारत के पारम्परिक रिश्ते रहे हैं और विवाद भी, लेकिन जितनी कटुता रिश्तों में आज है उतनी पहले कभी नहीं रही।

उन पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय में भी नहीं जिन्हें कोसते हुए ही सत्तारूढ़ दल अपना नाश्ता करता है। नेपाल हमेशा भारत के करीब रहा। नेपाल में भारत का निवेश भी कल तक चीन से ज्यादा था। नेपाल की अर्थव्यवस्था की धुरी भारत था न कि चीन, लेकिन पिछले छह वर्ष में सारा परिदृश्य अचानक बदल गया।

भारत पिछले छह साल से धाराएं हटाने, बढ़ाने और मंदिर- मस्जिद के विवाद में उलझा रहा और भूल गया कि पड़ोसियों से भी रिश्ते बनाये रखना जरूरी होता है। भारत की विदेश नीति बीते सात दशक से भारत के काम आ रही है। उससे जैसे ही छेड़छाड़ की गयी, दुष्परिणाम सामने आने लगे। भारत ने नेपाल की अनदेखी की तो चीन ने उसके लिए पालक पांवड़े बिछा दिए।

नेपाल सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इस वित्त वर्ष के पहले आधे हिस्से में नेपाल में होने वाले कुल एफडीआई में चीन का हिस्सा 68 प्रतिशत रहा। पिछले वित्त वर्ष के 40 प्रतिशत के मुकाबले चीन ने इस साल निवेश का रेकॉर्ड तोड़ा। नेपाल के डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्री के अनुसार चीन ने इस वित्त वर्ष के पहले आधे हिस्से में 51 मिलियन डॉलर का निवेश किया है।

नेपाल में इस समयसीमा में कुल 508 करोड़ रुपये के विदेशी निवेश का वादा किया गया था। करीब 344 करोड़ रुपये का निवेश कर चीन ने नेपाल में सबसे अधिक विदेशी निवेश करने वाले देश के रूप में अपनी जगह और पक्की कर ली।

दुर्भाग्य ये है कि हमारे देश में सरकार से सवाल पूछने को देशद्रोह माना जाता है। इसलिए शायद किसी ने ये सवाल सरकार से पूछा ही नहीं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि नेपाल भारत से दूर होता जा रहा है? क्या बात है कि भारत के विश्वसनीय साथी नेपाल पर चीन डोरे डालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। नई दिल्ली चीन और नेपाल के बीच बढ़ते विश्वास को समझ तो रहा है लेकिन ठोस कदम नहीं उठा पा रहा।

आपको सिर्फ स्मरण कराना चाहता हूँ कि वित्त वर्ष 2014-15 में नेपाल में कुल 600 मिलियन डॉलर के विदेशी निवेश के समझौते हुए थे, लेकिन अगले वर्ष राजनीतिक अस्थिरता के चलते यह आंकड़ा 140 मिलियन डॉलर ही रहा था। हालांकि विदेशी निवेश में चीन का हिस्सा इस बीच तेजी से बढ़ा।

इसके अलावा पिछले साल नेपाल ने भारत को द्विपक्षीय विकास साथी की लिस्ट से पांच सालों में पहली बार निकाल दिया था। इस लिस्ट में अमेरिका, यूके, जापान, चीन और स्विट्जरलैंड को जगह दी थी।

मैं कोई तीन साल पहले नेपाल में था। मैंने उस समय भी ये महसूस किया था कि आम नेपाली के मन में भी भारत के बजाय चीन घर करता जा रहा है। भारत-नेपाल के इन इलाकों में रहने वाले लोगों के हमेशा से रोटी-बेटी के संबंध रहे हैं। यहां सीमा के दोनों तरफ बसे लोगों की जहां आपस में रिश्तेदारी है वहीं इनके बीच व्यापारिक रिश्ते भी काफी मजबूत रहे हैं।

बॉर्डर पर बसे नेपाल के लोग भी नेपाल के अचानक बदले इस सुर से हैरान हैं। वे मानते हैं कि भारत हमेशा से नेपाल का हितैषी ही रहा है। इसी बात को लेकर वे लोग भी भारत को अपना पूरा समर्थन दे रहे हैं। हालांकि कालापानी और लिपुलेख विवाद से उपजी इस तनातनी से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोनों देशों के रिश्ते में खटास जरूर दिखाई दे रही है।

ये खटास कहीं गहरी खाई का रूप न ले ले, इसलिए जरूरी है कि भारत के मौजूदा भाग्य विधाता तत्काल संसद का सत्र आहूत कर देश को वास्तविकता की जानकारी दें और अपनी रणनीति बताएं। अन्यथा भारत एक नए संकट में घिर सकता है।

मुझे विश्वास है कि हमारे प्रधानमंत्री जी इस समस्या के निदान के लिए अपने तिलस्मी दिमाग में कुछ न कुछ बचाकर, छिपाकर अवश्य रखे होंगे। देश कोरोना के बाद नेपाल और चीन के व्यवहार से आतंकित है और इससे मुक्ति जरूरी है।

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टीम मध्‍यमत

 

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