शुद्ध हिंदी नाम वाली कोई पार्टी राष्ट्रीय क्यों नहीं बन पाती?

अजय बोकिल

यह मुद्दा शुद्ध हिंदीवादियों के लिए सचमुच विचारणीय और झटका देने वाला भी है कि देश में एक भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसका नाम पूरी तरह से हिंदी हो। इस देश में निर्वाचन आयोग से मान्यता प्राप्त 8 राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं, जिनमें से एक का भी पूरा नाम हिंदी में नहीं है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के रजिस्टर्ड नाम तो पूरी तरह अंग्रेजी हैं ही, लेकिन भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में भी ‘पार्टी’ शब्द अंग्रेजी का है।

यह मुद्दा इसलिए उठा क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव में एक नवगठित पार्टी ‘प्लूरल्स’ की बड़ी चर्चा है। शुद्ध हिंदी के आग्रही वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राहुल देव ने ‘प्लूरल्स’ के इस अंग्रेजी नामकरण पर आपत्ति उठाते हुए सवाल किया है कि इस अंग्रेजी नाम को बिहार जैसे हिंदी बल्कि विभिन्न बोलियों वाले राज्य में कितने लोग समझेंगे? राहुल देव ने यह बात ‘प्लूरल्स’ पार्टी की अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी के ट्वीट्स के जवाबी ट्वीट्स में कही है।

ध्यान रहे कि बिहार की राजनीति में पुष्पम प्रिया की एंट्री किसी बॉलीवुड फिल्म में मॉडर्न हीरोइन की स्मार्ट और धमाकेदार एंट्री की तरह हुई है। लंदन में पढ़ी इस युवती की हर अदा से आधुनिकता और बेबाकी टपकती है। पुष्पम प्रिया का दावा है कि वह बिहार को बदलने राजनीति में आई हैं। यह बात अलग है कि विधानसभा चुनाव के पहले चरण में ही उनकी पार्टी के 61 में से 28 प्रत्याशियों के नामजदगी पर्चे खारिज हो गए। इसके पहले प्रिया और उनके पिता विनोद चौधरी के खिलाफ आचार संहिता उल्लंघन का मामला भी दर्ज हो चुका है।

पुष्पम प्रिया का बिहार की सियासत में प्रवेश देश में कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन के ठीक पहले तब हुआ, जब 8 मार्च को बिहार के सभी प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी अखबारों में छपे दो पेज के विज्ञापनों ने सबका ध्यान खींचा। इस विज्ञापन के साथ ही प्रिया ने खुद को बिहार का भावी मुख्यमंत्री भी घोषित कर दिया। लोगों में उत्सुकता जागी कि जींस-टॉप पहनने और अंग्रेजी में सोचने वाली यह युवा नेत्री कौन है?

दरअसल पुष्पम प्रिया बिहार के पूर्व जद (यू) नेता और विधान परिषद सदस्य रहे दरभंगा निवासी विनोद चौधरी की बेटी है। प्रिया ने ‘लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स’ से पढ़ाई की है। बताते हैं कि विनोद चौधरी पत्रकार रहे हैं और जाति से ब्राह्मण हैं। प्रिया की बड़ी बहन ब्रिटेन में सरकारी अधिकारी है। प्रिया ने अंग्रेजी में जो विज्ञापन दिया था, उसकी टैग लाइन थी-बिहार डिजर्व्ज बैटर, एंड बैटर इस पॉसिबल।‘ अर्थात बिहार बेहतर बनने योग्य है और इसे बेहतर बनाना संभव है।

प्रिया का दावा है कि अगर उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तो 2025 तक वो बिहार को देश का सर्वाधिक विकसित प्रदेश बना देंगीं। प्रिया के अनुसार उन्हें ‘बिहार से प्यार और पारंपरिक राजनीति से नफरत है।‘ उनका दावा है कि वो गांधीजी के विचारों से प्रभावित हैं। आधुनिक सोच और रहन-सहन वाली यह लड़की बिहार जैसे घोर जातिवादी और पिछड़े राज्य में कामयाबी के झंडे कैसे गाड़ेगी, युवाओं को किस तरह प्रभावित करेगी, उसके सपनों से बिहार का युवा कितना कनेक्ट होगा, जैसे सवालों का जवाब तो चुनाव नतीजों से ही मिलेगा।

बहरहाल यहां मुद्दा प्रिया की पार्टी के शुद्ध अंग्रेजी नामकरण का है। ‘प्लूरल्स’ का हिंदी में अर्थ है- बहुवचन, अनेक या एकाधिक। लेकिन संज्ञारूप में इसे कितने लोग समझेंगे, कहना मुश्किल है। हालांकि यहां तर्क हो सकता है कि जब हिंदी ने ‘पार्टी’ शब्द पूरी तरह पचा लिया है तो ‘प्लूरल्स’ भी जबान पर चढ़ ही जाएगा। मोबाइल जेनरेशन के लिए ऐसे शब्द आत्मसात करना कोई नई बात नहीं है। क्योंकि उनकी हिंदी भी अंग्रेजीनुमा और अंग्रेजी हिंदीनुमा ही है।

प्रिया की पार्टी का चिन्ह भी ‘पेगासस’ है। पेगासस ग्रीक पुराणों में वर्णित पंखों वाला उड़ता हुआ दैवी घोड़ा है। ग्रीक पुराणों में इसका उल्लेख करीब ढाई हजार वर्ष पहले से मिलता है। बिहार की जनता इससे कैसे और क्या प्रेरणा लेगी, यह भी देखने की बात है। खासकर तब जब,  राज्य की सत्ता के लिए चुनावी घमासान लालटेन, तीर, कमल, पंजे व घर जैसे पारंपरिक और सुपरिचित प्रतीको में हो।

प्रिया की अंग्रेजियत पर राहुल देव की आपत्तिनुमा सलाह यह है कि वे पहले यह सर्वे तो करा लेतीं कि पार्टी के ऐसे अंग्रेजी नाम व पश्चिम प्र‍ेरित चुनाव चिन्ह से कितने लोग प्रेरणा लेंगे? बिहार तो दूर राजधानी पटना में ही कितने लोग इसे समझ पाएंगे? राहुल का आशय यह है कि अगर हिंदी भाषी बिहार में राजनीति करनी है तो पार्टी का नाम, चिह्न तो हिंदी, देसी बोली या उससे मिलती-जुलती भाषा में हो।

यहां मूल मुद्दा राजभाषा और अघोषित रूप से राष्ट्रभाषा हिंदी वाले देश में ज्यादातर राजनीतिक दलों के नाम अंग्रेजी में या फिर अंग्रेजीयुक्त होने का है। देश में कुल 8 रजिस्टर्ड राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां हैं। इनमें से एक का भी पूरा नाम पूर्णत: हिंदी में नहीं है। इसी तरह भारत में 52 मान्यता प्राप्त प्रादेशिक पार्टियां है, जिनमें से केवल 8 पार्टियां ऐसी हैं, जिनके नाम पूरी तरह हिंदी में कहे जा सकते हैं (इनमें वो प्रादेशिक दल शामिल नहीं हैं, जिनके नाम उनकी स्थानीय भाषाओं में हैं)। जैसे कि शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल, बीजू जनता दल या सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा आदि।

इनके अलावा देश में 2538 गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल भी हैं, उनमें से भी बहुत कम के नाम हिंदी में हैं। ज्यादातर के नाम या तो अंग्रेजी हैं या हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संपूर्ण रूप से हिंदी नाम वाली कोई पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर जनता का समर्थन नहीं जुटा पाती। मूल रूप से हिंदी पट्टी की कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने भी ‘भारतीय’ और ‘जनता’ शब्द तो हिंदी से लिए लेकिन (शायद राष्ट्रीय बनने के लिए) अंग्रेजी का ‘पार्टी’शब्द कायम रखा (जब तक वो पूर्ण हिंदी नाम वाली ‘जनसंघ’ थी, तब तक उसकी राजनीतिक सफलताएं सीमित थीं)।

‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ नाम पूरी तरह अंग्रेजी है। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के नाम भी अंग्रेजी में है। इस सूची में बहुजन समाज पार्टी, ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस, नेशनलिस्ट कांग्रेस के अलावा एक चौंकाने वाला नाम एनपीपी यानी नेशनल पीपुल्स पार्टी का है, जो पूर्वोत्तर क्षे‍त्र की पहली मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी है। बता दें कि देश में राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का दर्जा उन दलों को मिलता है, जिन्होंने आम चुनावों में तीन अलग-अलग राज्यों में लोकसभा की कम से कम 2 फीसदी सीटें जीती हों, लोकसभा अथवा विधानसभा चुनावों में जिन्हें चार राज्यों में 6 फीसदी वोट मिले हों या फिर जिसे चार राज्यों में प्रादेशिक पार्टी का दर्जा हासिल हो।

कहने का आशय ये कि पार्टी का नाम शुद्ध हिंदी में हो तो भी उसे जनता का समर्थन मिले, जरूरी नहीं है। यहां तक कि हिंदी पट्टी में भी राजनीतिक दल का नाम हिंदी में ही रखने का कोई सियासी आग्रह नहीं है, यानी ‘नाम में क्या रखा है’ वाला अंदाज। ऐसे में पुष्पम प्रिया चौधरी अंग्रेजी नाम, धाम और तेवर के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है तो इसे 21 वीं सदी में हिंदी के साथ हो रहे या होने वाले सलूक के आईने में देखा जाना चाहिए।

यह भी सही है कि हिंदी को शुद्धता के पवित्र बांध से रोकने की तमाम कोशिशें विफल ही रही हैं। लेकिन हिंदी है कि पहाड़ी नदी की माफिक बहती जा रही है। राजनीतिक दलों के नामकरण में उसकी भूमिका तो उसका एक हिस्सा भर है। हकीकत यह भी है कि आज हिंदी के अंग्रेजीकरण का एक वैश्विक षड्यंत्र चल रहा है, और हम चाहे-अनचाहे उस जाल में फंसते चले जा रहे हैं। यह सवाल हमें बैचेन नहीं करता कि देश पर राज करने वाले दलों अथवा राजनीति में जिनकी अहम भूमिका है, वो पार्टियां भी अपने नाम हिंदी में रखना जरूरी नहीं समझती। इनमें वो दल भी शामिल हैं, जिनका आधार उन राज्यों में है, जो अपने आप को ‘हिंदी भाषी’ कहते हैं।

पुष्पम प्रिया ने नए जमाने के हिसाब से सियासी रंगमंच पर एंट्री तो धमाकेदार मारी है, लेकिन इससे बिहार की उस जनता, जो सपने देखने से ज्यादा समस्याओं का निदान चाहती है, के दिलों में घंटी कैसे बजेगी, यह देखने की बात है। जहां तक राहुल देव की बात है तो उनकी चिंता अपनी जगह है, लेकिन देश का राजनीतिक रिकॉर्ड यही दर्शाता है कि संज्ञाओं के हिसाब से तो हिंदी के‍ लिए अभी भी ज्यादा गुंजाइश नहीं है।

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