किसी भी देश या प्रदेश के विकास में बिजली उत्पादन और बिजली खपत की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। फिर चाहे यह खपत खेती के क्षेत्र में हो या फिर उद्योगों के क्षेत्र में। मध्यप्रदेश ने खेती किसानी के लिए पर्याप्त बिजली मुहैया कराने के इरादे से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए फीडर डिविजन का काम तो कर लिया है, लेकिन बिजली चोरी के साथ-साथ बिजलीघरों की उत्पादन क्षमता के पूर्ण दोहन के मामले में स्थिति अब भी गंभीर बनी हुई है।
बिजलीघरों के पूर्ण क्षमता से नहीं चलने और वहां क्षमता के अनुरूप उत्पादन न होने से एक तरफ बिजली उत्पादन कंपनियों को लगातार नुकसान उठाना पड़ रहा है। वहीं बिजली के ट्रांसमिशन और वितरण में होने वाले नुकसान के साथ साथ बड़ी मात्रा में बिजली चोरी के चलते बिजली वितरण कंपनियों की हालत भी लगातार खस्ता हो रही है। अपना घाटा पूरा करने के लिए ये कंपनियां हर बार विद्युत नियामक आयोग के सामने कटोरा लेकर खड़ी हो जाती हैं।
घाटा पूरा करने के लिए इन कंपनियों के पास पहला और सबसे आसान रास्ता बिजली की दरें बढ़ाने का ही होता है और यही कारण है कि हर बार वे नियामक आयोग के पास दरें बढ़वाने की दरखास्त लगाती हैं और आयोग भी और कोई चारा न होने पर उन्हें दरें बढ़ाने की मंजूरी दे देता है। इस गोरखधंधे की सजा आम उपभोक्ता को भुगतनी पड़ रही है। यानी अपराध किसी का है और सजा किसी और को मिल रही है।
उदाहरण के लिए बिजली वितरण कंपनियों ने वित्त वर्ष 2017- 18 के लिए पिछले साल अप्रैल में नियामक आयोग को बिजली की दरों में औसतन 10.62 प्रतिशत की बढ़ोतरी का प्रस्ताव दिया था। कंपनियों ने यह बढ़ोतरी अपने 452 करोड़ रुपए के अनुमानित घाटे को देखते हुए चाही थी। हालांकि आयोग ने उन्हें औसतन 9.48 फीसदी बढ़ोतरी की ही इजाजत दी थी।
पिछले साल दरों में हुए संशोधन के बाद औद्योगिक क्षेत्र की बिजली में 5.02 प्रतिशत की और कृषि क्षेत्र की बिजली में 13.32 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। घरेलू क्षेत्र के लिए यह वृद्धि 7.83 प्रतिशत हुई थी और इससे औसतन 200 यूनिट खपत वाले एक परिवार पर बिजली बिल का भार लगभग 137 रुपए प्रतिमाह बढ़ गया था। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि आज मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ और दिल्ली से कई गुना ज्यादा महंगी बिजली मिल रही है।
राज्य में बिजली क्षेत्र की इस चिंताजनक हालत के बीच ही एक और खबर आई है कि बिजलीघरों में बिजली उत्पादन के मामले में भी मध्यप्रदेश की स्थिति अच्छी नहीं है। चौंकाने वाली बात यह है कि पिछले 14 सालों में मध्यप्रदेश में बिजली उत्पादन की क्षमता तो दोगुनी बढ़ी है, लेकिन बिजली उत्पादन की स्थिति 2003-04 से भी कम है।
सरकारी आंकड़ों के ही हवाले से बताया गया है कि 2002-03 में जहां ताप बिजलीघरों की कुल क्षमता 2272.5 मेगवाट थी, वहीं 2016-17 में यह बढ़कर 4080 मेगावाट हो गई। लेकिन 14 साल पहले बिजलीघरों का जो उपयोगिता फैक्टर 73.17 प्रतिशत था वह अब घटकर 33 प्रतिशत ही रह गया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि उत्पादन क्षमता दुगुनी होने के बावजूद उत्पादन में भारी कमी देखने को मिली है।
2002-03 में जहां राज्य सरकार के ताप बिजलीघरों से सालाना 14560 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन होता था, वहीं 2016-17 में यह घटकर 14471 मिलियन यूनिट ही रह गया है। इससे राज्य सरकार के खजाने को सालाना 2000 करोड़ रुपए का घाटा उठाना पड़ रहा है। हालांकि बिजली उत्पादन कंपनी के अधिकारी दावा करते हैं कि ऐसा कुछ संयंत्रों के ठीक से न चल पाने के कारण हो रहा है, वरना तो स्थिति में काफी सुधार आया है।
अफसर समग्र उत्पादन में कमी का सारा दोष श्री सिंगाजी ताप बिजलीघर पर मढ़ते हुए कहते हैं कि इस प्लांट की लोकेशन ऐसी है कि वहां कोयले की ढुलाई काफी महंगी पड़ती है। और फिर इस प्लांट में शटडाउन की समस्या भी आती रहती है। चूंकि यह अकेला प्लांट ही 1200 मेगावाट का है इसलिए वहां होने वाली कोई भी गड़बड़ी पूरे बिजली उत्पादन परिदृश्य को बिगाड़ देती है।
विशेषज्ञों के अनुसार यदि संयंत्र के उपयोगिता मानक (प्लांट यूटिलाइजेशन फैक्टर) में एक फीसदी की कमी आती है तो बिजली उत्पादन में 35 करोड़ यूनिट की कमी आ जाती है। इस हिसाब से यदि 2002-03 की तुलना में पीयूएफ 73.17 प्रतिशत से घटकर 33 प्रतिशत रह गया है, तो इसका मतलब उत्पादन में कुल 1178 करोड़ यूनिट की कमी आना है। अब यदि बिजली की दर साढ़े तीन रुपए प्रति यूनिट भी मानी जाए तो यह घाटा करीब 4000 करोड़ रुपए का बैठता है।
खुद मध्यप्रदेश बिजली उत्पादन कंपनी के आंकड़े कहते हैं कि 2007-08 से लेकर 2016-17 तक के दस सालों में राज्य के बिजलीघरों का प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) बीच के एक दो सालों को छोड़कर लगातार घटा है। 2007-08 में यह 68.91 प्रतिशत था जो दस साल बाद घटकर मात्र 40.49 प्रतिशत रह गया। इनमें सबसे बुरी हालत सारणी के सतपुड़ा ताप बिजलीघर की रही जिसका पीएलएफ 75.39 से घटकर 31.28 फीसदी ही रह गया। श्री सिंगाजी का पीएलएफ तो 23.54 फीसदी ही है।
यह पूरा परिदृश्य डराने वाला है। वित्त वर्ष 2017-18 खत्म होने जा रहा है। पता नहीं इस बार बिजली कंपनियां कितने बड़े घाटे का लंबा चौड़ा ब्योरा लेकर नियामक आयोग या सरकार के पास पहुंचेंगी। लेकिन यह तय है कि जल्दी ही एक बार फिर वही खेल खेला जाने वाला है। उनकी फूटी हांडी में से पानी रिसता रहेगा और उसकी भरपाई वे फिर जनता का खून चूसकर करेंगे।
यह लंबी चौड़ी रामायण मैंने आपको इसलिए सुनाई ताकि प्रदेश की जो बुनियादी समस्याएं हैं उनका आपको पता चले। सरकार तो यात्राएं निकालने और मूर्तियां फिट करवाने में व्यस्त है। पता नहीं उसका ध्यान इस ओर कब जाएगा… और राम जाने, कभी जाएगा भी या नहीं… क्योंकि इस घाटे की भरपाई उसे थोड़ी करनी है, यह वसूली तो आपकी और हमारी चमड़ी उधेड़कर होनी है… सो आप तो तैयार रहिए हंटर खाने को!