आज ‘एडिटर्स गिल्ड’ चुप क्यों है?

अजय बोकिल

यह सचमुच विचारणीय प्रश्न है कि आज देश में प्रेस स्वतंत्रता की रक्षक और संपादकों की सबसे बड़ी संस्था ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ खुद सवालों के घेरे में क्यों आ गई है? इसी साल में यह दूसरा मौका है, जब किसी संपादक ने संस्था की नीयत पर सवाल उठाते हुए गिल्ड की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया है। मेघालय से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘द शिलांग टाइम्स’ की संपादक और पूर्वोत्तर की जानी-मानी पत्रकार तथा सोशल एक्टिविस्ट पैट्रिशिया मुखीम ने दो दिन पहले ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ पर यह आरोप लगाते हुए इस्तीफा दिया कि गिल्ड केवल सेलेब्रिटी पत्रकारों का बचाव करती है। मुखीम की नाराजी इस बात को लेकर है कि शिलांग हाईकोर्ट ने पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने से इंकार कर दिया। लेकिन गिल्ड ने इस पर कुछ नहीं कहा।

मुखीम की आपत्ति इस बात पर भी है कि गिल्ड ने संस्था का सदस्य न होने के बावजूद रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी की मुंबई पुलिस द्वारा गिरफ्‍तारी की निंदा करते हुए बयान जारी किया, लेकिन वे (मुखीम) संस्था की सदस्य हैं तब भी गिल्ड उनके बचाव में नहीं उतरी। मुखीम का कहना है कि गिल्ड का यह रवैया पक्षपातपूर्ण है। इसमें निहित सवाल ये है कि प्रेस और पत्रकार की अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के मापदंड अलग-अलग क्यों हैं? और क्या गिल्ड व्यक्ति को देखकर ही बयान जारी करती है?

गौरतलब है कि मेघालय के एक गांव लावसोहतुन में इस साल जुलाई में बास्केटबॉल कोर्ट में पांच लड़कों पर हमला हुआ था। हत्यारों का पता नहीं चलने के बाद मुखीम ने गांव के ‘दोरबार’ (परिषद) पर फेसबुक के माध्यम से हमला बोला था। दोरबार (दरबार) खासी आदिवासी गांवों की पारंपरिक प्रशासनिक इकाई है। इस विवाद में आदिवासी एवं गैर-आदिवासी-शामिल थे। पुलिस ने इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार भी किया। मुखीम ने अपनी फेसबुक पोस्ट में गैर आदिवासी युवाओं पर हिंसक हमले की निंदा करते हुए कहा था कि एक सरकार एवं पुलिस वाले राज्य में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

मुखीम की पोस्ट को लेकर स्थानीय ग्राम परिषद ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई और आरोप लगाया कि उनकी पोस्ट से साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा है और इससे सांप्रदायिक संघर्ष भी भड़क सकता है। इसके बाद पुलिस ने धारा 153 ए तथा 505 के तहत समूहों के बीच दुश्मनी फैलाने के आरोप में मुकदमा कायम कर लिया। मुखीम इसके खिलाफ हाईकोर्ट गईं। लेकिन हाईकोर्ट ने एफआईआर रद्द करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि मुखीम ने अपनी पोस्ट में ‘‘आदिवासी एवं गैर-आदिवासी की सुरक्षा एवं अधिकारों की तुलना की है और उनका झुकाव एक तरफ रहा है। इसके चलते यह मामला दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक तनाव को भड़काने वाली प्रवृत्ति का है।‘’

मुखीम पर मुकदमा जिस मामले को लेकर दायर हुआ है, इससे हटकर केवल सेलेब्रिटी की बात करें तो खुद मुखीम अर्णब जितनी लोकप्रिय और दबंग भले न हों, लेकिन पत्रकारिता में जाना-पहचाना नाम हैं। वो मेघालय जैसे राज्य में आदिवासियों के हितों खासकर माइनिंग क्षेत्र में हो रहे शोषण और भ्रष्टाचार के खिलाफ काफी मुखर रही हैं। यही नहीं उन्होंने राज्य की जनजातियों में मातृसत्तात्मक समाज और परंपराओं की व्यावहारिता पर भी सवाल उठाए हैं। मुखीम सामाजिक राजनीतिक‍ विषयों पर निर्भीकता से लिखती रही हैं। उन्होंने मेघालय की तीन प्रमुख जनजातियों खासी, गारो और जयंतिया पर कई किताबें भी लिखी हैं। वे भारत सरकार की कई समितियों में रही हैं। उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं, जिनमें पद्मश्री भी शामिल है, जो उन्हें अटलजी की सरकार ने 2000 में दी थी।

खास बात यह है कि मुखीम स्वयं भी खासी आदिवासी हैं। लेकिन आदिवासी-गैर आदिवासी टकराव में वो गैर आदिवासियों के पक्ष में मुखर रहती आई हैं। यहां तक कि वो मेघालय को एक असफल राज्य मानती हैं। उन पर दो साल पहले हमला भी हो चुका है। 67 वर्षीय मुखीम उन पर दायर मुकदमे को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मानती हैं। ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ की पहली निर्वाचित अध्यक्ष सीमा मुस्तफा को लिखी चिट्ठी में मुखीम ने कहा कि मैं अब इसकी सदस्यता से इस्तीफा देना चाहती हूं। क्योंकि पत्रकार के तौर पर मैं सेलिब्रिटी संपादकों की उस लीग का हिस्सा नहीं हूं, जिनके अखबार व्यापक तौर पर पढ़े जाते हैं और जिनके न्यूज वेब पोर्टल बहुत लोकप्रिय हैं।

मुखीम ने कहा कि ‘‘मैंने इस उम्मीद में गिल्ड के साथ हाईकोर्ट के आदेश को साझा किया कि वह इस संदर्भ में बयान जारी कर निंदा करेगा, लेकिन इस संदर्भ में पूरी तरह से चुप्पी साध ली गई। जबकि गिल्ड का सदस्य न होने के बावजूद अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी की निंदा करते हुए बयान जारी किया गया। मैं इसे एक सेलेब्रिटी संपादक या एंकर के बचाव में गिल्ड का एक क्लासिक मामला मानती हूं जबकि गिल्ड के ही एक सदस्य की याचिका को जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया गया।‘’

मुखीम की चिट्ठी पर यह स्तम्भ लिखे जाने तक गिल्ड की ओर से कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई थी। बताया जाता है कि गिल्ड ने मुखीम से अपना त्यागपत्र वापस लेने का आग्रह किया था, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। मुखीम ने कहा है कि वह इस्तीफा वापस नहीं लेंगी और शिलांग हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी। उन्होंने कहा कि अर्णब गोस्वामी केस में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी.वाय. चंद्रचूड द्वारा की गई ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ को लेकर की गई टिप्पणी महत्वपूर्ण है। अर्णब को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत दे दी थी।

अब ‍’एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ के बारे में। एडिटर्स गिल्ड भारत में संपादकों की शीर्ष संस्था है। इसकी स्थापना 1978 में आपात काल हटने के बाद देश में प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने तथा पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय नेतृत्व के मानदंड कायम करने के उद्देश्य से की गई थी। गिल्ड के सदस्य पत्र-पत्रिकाओं के संपादक ही होते हैं। संस्था का उद्देश्य देश में स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की रक्षा करना है। गिल्ड स्वयं को ‘अंतरात्मा का रखवाला’ मानती है। वह पत्रकारिता में शोध कार्य व उत्कृष्टता के लिए कई फैलोशिप तथा पुरस्कार भी देती है, जिनकी अपनी प्रतिष्ठा है। जब भी देश में पत्रकारों के उत्पीडन तथा पत्रकारिता पर हमले और प्रताड़ना की बात आती है, गिल्ड उसकी निंदा करती है।

मुखीम की पीड़ा यह है कि गिल्ड ने अर्णब की गिरफ्तारी के बाद तो तत्काल उसकी निंदा की, लेकिन मुखीम के मामले में कुछ नहीं कहा। जबकि अर्णब स्वयं गिल्ड की सदस्यता से सात माह पूर्व इस्तीफा दे चुके हैं। यह इस्तीफा भी उन्होंने गिल्ड पर यह आरोप लगाते हुए दिया था कि वह ‘फेक न्यूज’ फैलाने वाली समाचार संस्थाओं के मामले में कोई स्टैंड नहीं लेती। अर्णब ने यह इस्तीफा महाराष्ट्र के पालपुर में तीन साधुओं की भीड़ द्वारा हत्या की खबर के संदर्भ में दिया था।

यहां ज्वलंत सवाल यह है कि जो गिल्ड अर्णब के मामले में तुरंत मुखर हुई, वह मुखीम के मामले में मौन क्यों है? क्या यह पत्रकार-पत्रकार के बीच का भेद है? चूंकि अर्णब के पास बवाल खड़ा करने का प्रभावशाली मंच है और मुखीम के पास नहीं है, इसलिए? या फिर अर्णब की पीठ पर सत्ता का अदृश्य हाथ है और मुखीम के पास नहीं है, इसलिए? मुखीम सत्ता के खिलाफ और मेघालय में प्रभावशाली आदिवासी समुदाय के हितों के खिलाफ बोलती रही हैं, इसलिए? या फिर पूर्वोत्तर की पत्रकारीय आवाजों का मुख्य भूमि की पत्रकारिता की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता, इसलिए?

कहीं कोई बात तो है। अगर यह चुप्पी इसलिए है कि मुखीम पर साम्प्रदायिक सदभाव बिगाड़ने का आरोप है तो अर्णब की गिरफ्‍तारी भी आपराधिक मामले में ही हुई थी (भले ही इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य हो)। दबी जबान से यह चर्चा भी है कि गिल्ड भी राइट-लेफ्ट में बंट गई है। हालांकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। आंतरिक विवशताएं जो भी हो, लेकिन जो संदेश जा रहा है, वो यही है कि पत्रकारिता में निष्पक्षता की पैरोकार गिल्ड, मुखीम के मामले में असमंजस में क्यों है? गिल्ड की विश्वसनीयता कायम रहने के लिए इस असमंजस की धुंध तो छंटनी ही चाहिए।

2 COMMENTS

  1. प्रिय संपादक महोदय,
    मैं अर्से से अजय बोकिल के लेखन का प्रशंसक रहा हूं. अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी के संदर्भ में उनके लेख पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने का मेरा प्रयास तकनीकी कारण से विफल हो गया था. पेट्रीशिया मुखीम तथा अन्य पत्रकारों पर हो रही ज्यादतियों पर एडिटर्स गिल्ड की चुप्पी को लेकर उनके ताज़ा लेख के बारें में गिल्ड का असम के मुख्यमंत्री को कल लिखा गया एक पत्र उद्धृत कर रहा हूं, केवल जानकारी के लिये.बोकिल जी के लेख में दी गयी अन्य हमेशा की तरह पठनीय है.

    Sh. Sarbananda Sonowal

    Hon’ble Chief Minister

    Government of Assam

    CM Block, Janata Bhawan

    Dispur, Assam- 781006

    Subject: Safety and protection of working journalists in the state of Assam

    Sir,

    The Editors Guild of India writes to you with deep concern about the growing incidence of violence against journalists in Assam. They have been subjected to mob attacks, intimidation, and threats, which is vitiating the environment necessary for the functioning of an independent and vibrant media.

    While we appreciate your firm condemnation of these incidents, the situation demands your urgent intervention to assure the media that they are safe to report without fearing retribution from the criminal mafia. In the absence of that, a sense of impunity could embolden attackers who may believe that they are above the law.

    The manner in which Milan Mahanta, 42, who writes for Asomiya Pratidin and Dainik Asom, was tied to a pole by five criminals and beaten mercilessly, is a testament of the difficult environment in which the journalists work in Assam. A video of this assault has gone viral on social media. Mahanta, who has named the assailants, claimed that he was beaten up for his reportage against the Kamrup district gambling and land mafias.

    This incident comes close on the heels of the death of Parag Bhuyam, a journalist with Pratidin Time, who was overrun by a car near his home in Kakopathar. The Pratidin Time editor has alleged that Bhuyam was murdered as he had been receiving threats for exposing corruption and illegal activities of the criminal nexus in the Kakopathar area.

    We record our appreciation of your efforts in bringing monetary relief to the kin of the 32 journalists killed in Assam since 1991 with generous compensations. However, most of the cases have not been resolved with allegations of shoddy investigations. In many cases culprits roam free, intimidating the families of the slain journalists. We hope you will urge the state police to take necessary steps for rebuilding confidence in the media, so that they can operate without fear.

    Sincerely,

    Seema Mustafa, President

    Sanjay Kapoor, General Secretary

    Anant Nath, Treasurer

    • प्रतिक्रिया के लिए आभार नायडू जी। आपका संदेश हम बोकिल जी तक अवश्‍य पहुंचा देंगे। वैसे हैरानी है कि गिल्‍ड के इस पत्र में पेट्रिशिया का जिक्र नहीं है।
      सादर
      मध्‍यमत

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here