क्या भूलें, क्या याद करें-1
बहुत दिनों से यह सवाल मन को मथ रहा था कि चुनाव पर इस बार कुछ लिखा जाए या नहीं। द्वंद्व इस बात का था कि लिखकर भी होगा क्या? और फिर इतने सारे लोग जो हैं… वे लिख तो रहे ही हैं, या कम से कम कागज तो काले कर ही रहे हैं… बहुत सारे लोग हैं जो बोल रहे हैं और बोल क्या रहे हैं गले की नसों को फाड़ डालने वाले अंदाज में चीख रहे हैं… ऐसे में, जब चारों तरफ शोर तारी (हावी) हो, वहां मौन को बचाए रखना क्या जरूरी नहीं है? लिहाजा बेहतर तो यही है कि मौन रहा जाए…
लेकिन फिर विचार आता कि नहीं, अब वो समय नहीं है जब शोर से अलग हो जाए तो मौन बच जाएगा… शायद अब मौन को बचाए रखने के लिए भी शोर करना जरूरी है। मुक्तिबोध ने पूछा था ‘‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ वो प्रश्न था। लेकिन अब यह वाक्य सिर्फ एक सवाल नहीं हमारी नियति बन गया है। अब हमें यह सवाल नहीं इसका उत्तर चाहिए। और शायद उत्तर इस सवाल में ही छिपा है। जरा इस सवाल को पलटकर यूं कर लें- ‘’पार्टनर ये तुम्हारी पॉलिटिक्स है।‘’
हां, यह समय इस ‘पॉलिटिक्स’ को समझने और उसी समझ के निचोड़ से बने रसायन से जवाब का तेजाब तैयार करने का है। राजनीति की इस रसायनशाला में सारे तत्वों, सारे मिश्रणों और सारे यौगिकों के गुणधर्म बदल गए हैं। अब क्षार अम्ल की तरह और अम्ल क्षार की तरह बर्ताव करने लगे हैं। कुछ ऐसी रसायनिक क्रियाएं भी हो रही हैं जो हमने कभी नहीं पढ़ीं, न ही किसी ने उनका कोई फार्मूला बताया।
शब्द के साथ झूठ तो पहले भी मिलाया जाता था, लेकिन उस मिश्रण के मूल तत्वों को अलग-अलग पहचान पाना मुश्किल नहीं था। आज शब्द में झूठ को मिलाकर ऐसा यौगिक तैयार किया जा रहा है जिसके मूल तत्वों को ढूंढ पाना या पहचान पाना नामुमकिन है। चीख की चासनी में लपेटकर प्रस्तुत किया जाने वाला यह यौगिक हमारी राजनीति का नया पहचानचिह्न है। राजनीति में व्यक्ति का आपेक्षिक घनत्व नैतिकता के आपेक्षिक घनत्व से कम हो गया है।
ऐसे में हमारे जैसे लोगों के पास लिखने के लिए बहुत ज्यादा कुछ बचता नहीं। फिर भी मैं सोचता हूं कि जिस तरह सभी लोग अपना ‘धर्म’ निभा रहे हैं उसी तरह मैं भी अपना ‘धर्म’ निभाऊं। हालांकि यह समय धर्म को बताने/जताने, उसे दूसरों से पहचान दिलाने, उसका प्रचार करने का ज्यादा है उसे निभाने का नहीं, फिर भी कोशिश करने में हर्ज क्या है। तो चुनाव पर लिखने की शुरुआत कुछ पुरानी यादों के साथ…
यह एक कविता है जिसका शीर्षक है ‘मुनादी’, इसे धर्मवीर भारती जी ने आपातकाल लागू होने से पहले 1974 में लिखा था। आज आप इस कविता को पढि़ये और इसके अर्थों/संदर्भों और हालात को 2019 के राजनीतिक घमासान में समझने की कोशिश करिये…
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का/ हुकुम शहर कोतवाल का/ हर खासो-आम को आगाह किया जाता है/ कि खबरदार रहें/ और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से/ कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें/ गिरा लें खिड़कियों के परदे/ और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें/ क्योंकि/ एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में/ सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
शहर का हर बशर वाकिफ है/ कि पच्चीस साल से मुजिर है यह कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए/ कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए, कि मार खाते भले आदमी को और असमत लुटती औरत को और भूख से पेट दबाये ढाँचे को और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को बचाने की बेअदबी की जाय! जीप अगर बाश्शा की है तो/ उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है!
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले/ अहसान फरामोशों! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने/ एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ/ भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं/ और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर तुम पर छाँह किये रहते हैं/ और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी/ मोटर वालों की ओर लपकती हैं/ कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर/ तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर/ भला और क्या हासिल होने वाला है?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से/ जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप/ बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए/ रात-रात जागते हैं/ और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए/ मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…
तोड़ दिये जाएँगे पैर/ और फोड़ दी जाएँगी आँखें/ अगर तुमने अपने पाँव चल कर/ महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर/ अन्दर झाँकने की कोशिश की!/ क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी/ जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे/ काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया? वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ/ गहराइयों में गाड़ दी है/ कि आने वाली नस्लें उसे देखें और/ हमारी जवाँमर्दी की दाद दें…
अब पूछो कहाँ है वह सच जो/ इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था?/ हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं/ और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें/ ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में/ इस बुड्ढे की बकवास दब जाए!/ नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते/ फेंक दी है खड़िया और स्लेट/ इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह/ फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं/ और जिसका बच्चा परसों मारा गया/ वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई/ सड़क पर निकल आयी है…
खबरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है/ पर जहाँ हो वहीं रहो/ यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि/ तुम फासले तय करो और/ मंजिल तक पहुँचो/ तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गुल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है/ बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से/ तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए/ बाश्शा के खास हुक्म से/ उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा…
दर्शन करो!
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं!