मैं भी खाऊं तुम भी खाओ, सारे मिलकर मौज मनाओ

वैसे तो आज मेरा मन खुलकर हंसने का हो रहा है, और हंसने का ही नहीं बल्कि जोरदार ठहाका लगाने का हो रहा है, पर ऐसा करने से मैं थोड़ा डर रहा हूं। डर इसलिए कि इन दिनों हंसना भी मुहाल हो गया है। डरता हूं कि इधर मैं हंसा और उधर कहीं मुझे रावण या कुंभकर्ण करार न दे दिया जाए…

सवाल उठना लाजमी है कि हंसने की यह तलब मुझे क्‍यों लग रही है? आखिर ऐसी कौनसी बात हो गई है या कि मैंने ऐसा क्‍या देख लिया है जो मैं चारों तरफ आए आंसुओं के सैलाब और आहों के शोर के बीच हंसना या ठहाका लगाना चाहता हूं।

तो सुनिए, किस्‍सा अपने मध्‍यप्रदेश के भोपाल नगर निगम से जुड़ा है। यहां कुछ समय पहले एक घटना हुई और उस घटना को लेकर मंगलवार को एक और घटना हुई… दोनों घटनाओं के मिलन से जो रसायन तैयार हुआ वह किसी ‘हंसी गैस’ के रसायन से कम नहीं है।

दरअसल भोपाल नगर निगम में पिछले दिनों लगभग 200 करोड़ रुपए का कथित कंप्‍लीशन सर्टिफिकेट घोटाला सामने आया। ऐसे घोटाले का नाम भी आपने पहली बार सुना होगा। घोटाला यह हुआ कि नगर निगम के उस्‍तादों ने ऐसे भवनों को भी पूर्णता प्रमाण पत्र यानी कंप्‍लीशन सर्टिफिकेट दे दिया, जो पूरे होना तो दूर सिर्फ ढांचे के रूप में ही खड़े हुए थे।

यह सारा खेल रेरा अधिनियम के तहत हो सकने वाली सख्‍त कार्रवाई से बचने के लिए खेला गया। बिल्‍डर्स ने बड़े पैमाने पर अधूरे प्रोजेक्‍ट को पूरा दिखाते हुए नगर निगम से कंप्लीशन सर्टिफिकेट ले लिए। कांग्रेस के पार्षद गिरीश शर्मा ने निगम परिषद की बैठक में यह मामला उठाते हुए इसमें 200 करोड़ के घोटाले का आरोप लगाया।

इसके बाद मामले की जांच हुई और उसकी रिपोर्ट 6 फरवरी को परिषद की बैठक में पेश की गई। निगम की आयुक्‍त प्रियंका दास ने अपनी रिपोर्ट में माना कि 21 प्रोजेक्ट में आंशिक गलती और 17 में व्यापक अनियमितता हुई। इसी आधार पर अपर आयुक्‍तों वीके चतुर्वेदी और मलिका निगम नागर तथा सिटी इंजीनियर (तत्कालीन सिटी प्लानर) जीएस सलूजा को मूल विभाग में भेजने और उनके खिलाफ विभागीय जांच शुरू करने की अनुशंसा की गई। तीन इंजीनियरों को निलंबित करने का भी फैसला हुआ।

जिस दिन शहर के चुने हुए प्रतिनिधियों की निगम परिषद ने ये सिफारिशें की थीं उसी दिन खबर बाजार ने आशंका जता दी थी कि बड़े अफसरों पर कार्रवाई हो पाएगी इसमें संदेह है। क्‍योंकि निगम की सिफारिश मानना या न मानना नगरीय प्रशासन विभाग के अधिकारियों के हाथ में हैं।

लोगों ने कहा था कि पहले भी इस तरह की सिफारिशें ठंडे बस्‍ते के हवाले होती रही हैं और ऐसी सजाओं का कोई मतलब नहीं निकला है। क्‍योंकि मूल विभागों के अफसर ऐसी सिफारिशों पर गौर ही नहीं करते।

और जैसी आशंका जताई गई थी, ठीक वैसा ही हुआ है। मंगलवार को नगरीय विकास एवं आवास विभाग ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया है कि अपर आयुक्त, मलिका नागर तथा वी.के. चतुर्वेदी और एक्‍जीक्‍यूटिव इंजीनियर जी.एस. सलूजा को निगम परिषद ने एकतरफा भार मुक्त किया है।

आदेश कहता है कि उक्‍त तीनों अफसरों को एकतरफा भारमुक्‍त किए जाने का आदेश वैधानिक रूप से उचित नहीं है। लिहाजा उन्‍हें कार्यमुक्त करने के निर्णय को स्थगित करते हुये निर्देशित किया जाता है कि संबंधित अधिकारियों को नगरपालिक निगम भोपाल में तत्काल पुनः ज्वाइन कराते हुये उन्हें पद एवं योग्यता के आधार पर कार्य भार सौंपा जाए।

मुझे हंसी लोकतंत्र की इसी उलटबांसी पर आ रही है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था है या भड़भूंजे की दुकान, जहां सारे चने बिना देखे एक ही हल्‍ले में भाड़ में झोंक दिए जाते हैं। यह कैसी निर्वाचित संस्‍था है जिसके फैसलों का कोई मोल ही नहीं है।

सरकार पता नहीं कितने इंच से ले‍कर कितने किलोमीटर तक की छाती होने का दंभ भरती है लेकिन असलियत में वह अफसरों का एक बाल तक नहीं उखाड़ सकती। और अफसर भी कैसे, वे जिनके बारे में बाकायदा जांच हुई, जिन्‍हें जांच में दोषी पाया गया और उस जांच के बाद निगम की निर्वाचित परिषद की विधिवत हुई बैठक में उन पर कार्रवाई का प्रस्‍ताव पारित किया गया।

ऊपर से आए इस एक आदेश ने साबित कर दिया कि पंचायतें हों या नगरीय संस्‍थाएं, ये सब कहने भर को ही जनता के प्रतिनिधियों की संस्‍थाएं हैं, असलियत में तो ये सबके सब नौकरशाही की दया और रहमोकरम की बल्लियों पर टिके ढांचे मात्र हैं। ऊपर से नीचे तक सारा खेल बंदरबांट का है।

मजे की बात देखिए कि प्रदेश में सरकार भी भाजपा की है और नगर निगम परिषद भी भाजपा की। यानी दोनों जगह न खाऊंगा, न खाने दूंगा का नारा लगाने वाले बैठे हैं। पर हो क्‍या रहा है? मैं भी खाऊं, तुम भी खाओ, सारे मिलकर मौज मनाओ!

जिन अफसरों पर कार्रवाई की सिफारिश हुई उन्‍हें नगर निगम में प्रतिनियुक्ति पर भेजा गया था। बापड़ी निगम परिषद ने घोटाले के दोषी इन अफसरों के लिए सिफारिश भी सिर्फ इत्‍ती सी की थी कि उन्‍हें निगम से हटाकर उनके मूल विभाग में भेज दिया जाए। लेकिन मौसेरे भाइयों ने यह भी नहीं होने दिया।

अब यदि सरकार घोटाले के दोषियों को ही निगम की सत्‍ता संचालन के सूत्र थमा देना चाहती है तो ऐसे निगम को निर्वाचित संस्‍था के रूप में चलाने का भी क्‍या मतलब है? अफसरों को तो आप मूल विभाग में भेज नहीं सके, तो क्‍यों नहीं निगम परिषद को भंग कर सारे प्रतिनिधियों को उनके मूल आवास में भेज देते?

वैसे हमारे एक साथी ने इस मामले में दोषी अफसरों का ‘पक्ष’ लेते हुए बड़ी सटीक टिप्‍पणी की है। उनका कहना है कि इन अफसरों को जो‘काम सौंपा गया है, उसे जब वे पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं, तो उन्‍हें हटाने का सवाल ही कहां उठता है?

अब आप मुझसे यह मत पूछिएगा कि इन अफसरों को किसने क्‍या काम सौंप रखा है?

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here