अजय बोकिल
इस बार वेलेंटाइन डे सेलीब्रेशन में एक ‘भावांतर’ है। यह ‘डे’ तो है पर वैसा ‘डेयर’ नहीं है, जैसा बीते सालों में महसूस होता आया है। एक तरफ ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने की जिद तो दूसरी तरफ उसे न मनने देने का जुनून। इस दफा न कोई धमकी न सबक सिखाने का जुनून।यूं बाजार इस बार भी तैयार है, युवा भी सेलिब्रेशन में जुटे हैं, जिसका कोई नहीं, उसके मां बाप हैं गुलाब का फूल देने के लिए।
प्रेम हो न हो, उसके इजहार ए आम की रस्म निभाई जाएगी। सो, फूल वाले, ग्रीटिंग कार्ड वाले और रेस्टारेंट वाले अच्छे धंधे का सपना पाले बैठे हैं। फिर भी ‘डे’ का थ्रिल नदारद सा है। यूं शिवसैनिकों ने लठपूजा कर वेलेंटाइन डे विरोध की कसम ली हुई है, लेकिन बाकी संस्कृति रक्षक लगता है दूसरे काम धंधों में रम गए हैं। कुछ की प्रायोरिटी गोरक्षा हो गई है। सो इस बार ‘वेलेंटाइन डे’ खौफ कम है।
पिछले साल तक ‘वेलेंटाइन डे’ आने पर एक सांस्कृतिक दहशत सी महसूस होती थी पता नहीं क्या होगा? ‘डे’ मनेगा या नहीं मनेगा? मनेगा तो किस मुंह से मनेगा? इसे मनाना वाजिब है या नहीं? इससे सांस्कृतिक प्रदूषण फैलेगा या आयातित संस्कृति का पोषण होगा? वेलेंटाइन डे बिना पिटे या मुंह काला हुए बगैर मनेगा या फिर दिल के जज्बे के सार्वजनिक इजहार का यह एक दिनी परमिट भी हाथ से जाता रहेगा?
क्या वेलेंटाइन डे इश्क दी गली विच लीगल एंट्री है अथवा मोहब्बत के दुश्मनों के बाड़े से निकल भागने का नया तरीका है। ऐसे कई सवाल हैं, जो अपने मन में हर ‘वेलेंटाइन डे’ से पहले कुलबुलाने लगते हैं।
यूं पचास को टच करने वाली पीढ़ी इस मायने में बदनसीब है कि जवानी तक उसे ‘वेलेंटाइन डे’ क्या बला है, पता नहीं था। उस जमाने में आशिकी का इजहार बाबा आदम के जमाने के टोटकों मसलन प्रेम पत्र, किताब में रखा गुलाब का सूखा फूल, पनघट पर आंखें लड़ाना या उधारी की साइकल पर गर्ल फ्रेंड को बिठाकर किसी खंडहर के सुनहरे अतीत को याद करने तक सीमित था।
कोई ज्यादा ही इन्वॉल्व हुआ तो घर से भागकर शादी करने का दुस्साहसी विकल्प भी मौजूद था। लेकिन इन सब पर बाजार का इंद्रधनुषी रंग नहीं चढ़ा था। तब तक ‘वेलेंटाइन’ सुदूर पश्चिमी देशों में ही याद किए जाते थे। उसके कम्पटीशन में भारत में वसंत वगैरह के पैकेज थे, लेकिन वसंतोत्सव और वेलेंटाइन डे में वही फरक है जो पंजीरी और पिज्जा में है।
श्रृंखलाबद्ध त्यौहार तो भारतीय परंपरा में भी हैं, लेकिन वेलेटाइन डे मनाने के लिए जिस तरह ‘डेज’ सेलीब्रेशन की श्रृंखला के साथ मानसिक तैयारी की जाती है, वह समझने की बात है। इसमें हर दिन बाजार अर्घ्य देने का काम भी करता है। इसकी शुरुआत 7 फरवरी को ‘रोज डे’ से होती है। यानी फूल वाले खुश।
8 फरवरी को प्रपोज डे पड़ता है। अर्थात इश्क की जन्नत से हकीकत की दुनिया को क्लिक करने का दिन। 9 फरवरी को चॉकलेट डे होता है। अगर आप प्यार को सच में शादी में बदलने जा रहे हैं तो मुंह मीठा करने का संभवत: आखिरी दिन। 10 फरवरी को टेडी (बियर) डे और 11 फरवरी को प्रॉमिस डे। इसके बाद की सहज स्थिति 12 फरवरी को ‘हग’ डे यानी आलिंगन की है। और बगैर किस के आलिंगन बेमानी है, सो यह दिन 13 फरवरी को पड़ता है।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद तलाश होती है सात्विक और अलौकिक प्रेम की तो उसके लिए ‘वेलेंटाइन डे’ सुरक्षित है। हालांकि भारतीय संस्कृति व परंपरा में ही यकीन रखने वालों का मानना है कि वेलेंटाइन डे वास्तव में प्रेम प्रदर्शन का भौंडा तरीका है। जो मन में है, उसे सड़क पर जताने की क्या जरूरत?
जो भी हो, इतना तय है कि नब्बे के दशक में बाजार ने हमारी जो सांस्कृतिक आदतें बदलीं, उनमें एक ‘वेलेंटाइन डे’ भी है। संत वेलेंटाइन ने प्रेम के लिए कुर्बानी दी। कहा गया कि वेलेंटाइन डे प्रेम के सार्वजनिक इजहार का पवित्र दिवस है। यह प्रेम किसी का किसी से भी हो सकता है। प्रेम का सर्वमान्य अर्थ वही है, जो स्त्री और पुरुष में सहज आकर्षण के परिणामस्वरूप होता है।
बाजार ने भी इसी परिभाषा को अपने तरीके से पुष्ट और प्रोत्साहित किया। यह मुगालता भी हुआ कि जवान होती पीढ़ी अचानक ‘बेशरम’ होने लगी है। वेलेंटाइन डे मनाने वाले इस बारीकी में कभी नहीं पड़े कि संत वेलेंटाइन कौन थे, कहां के थे, उनके जीवन का क्या संदेश था। लोगों ने इसका मतलब यही लिया कि जीवन में यही एक दिन प्रेम का है सो मत चूके चौहान।
बदलाव चाहने वाली नई पीढ़ी ने वेलेंटाइन डे को भी नए मोबाइल की तरह लिया। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई, कुछ लोगों को इसमें सांस्कृतिक महामारी नजर आई। जगह-जगह संस्कृति रक्षक दल सक्रिय हो गए। युवाओं का दो पल साथ बैठना भी दूभर हो गया। प्रेमियों के मुंह सरे आम काले होने लगे। 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे आने से पहले ही मन में धुकधुकी रहने लगी कि कहीं आप प्रेम करते पकड़ न लिए जाएं।
पर इस बार माहौल कुछ अधपका और ठंडा-ठंडा सा है। सजगतावश केवल शिवसैनिकों ने गोदाम में पड़ी लाठियों की पूजा कर उन्हें चैतन्य किया। लखनऊ यूनिवर्सिटी में महाशिवरात्रि का अवकाश होने के कारण छात्रों को विवि में न आने की ‘नेक’ सलाह दी गई। इक्का-दुक्का बयान आए, लेकिन किसी के जिगर का पानी नहीं हिला। भरोसा हुआ कि इस बार वेलेंटाइन डे लपक के मनेगा।
खबर नवीस भी निराश हुए। कहीं कोई मसाला मिल ही नहीं रहा। क्योंकि अब तक ‘ वेलेंटाइन डे’ मनने से ज्यादा बड़ी खबर उसे न मनाने देने की रहा करती थीं। पुलिस वालों को भी इसी से पता चलता था कि प्रेम का मतलब क्या होता है। बाग बगीचे, सड़क किनारे के झुरमुट, नदी तालाब के उजाड़ पड़े तट, बार और रेस्टारेंटों को भी इसी दिन याद आता था कि मोहब्बत है क्या चीज। हो सकता है इस बार लोग ईश्वर भक्ति में रम गए हों। कारण जो भी हो, इस दफा फीका-फीका सा है ‘वेलेंटाइन डे।‘
(सुबह सवेरे से साभार)