गिरीश उपाध्याय
जब जब भी दीवाली-होली जैसे त्योहार आते हैं, वे पुरानी पीढ़ी के लोगों को अपने जमाने में ले जाते हैं। अतीत की कई स्मृतियां कौंधने और कुरेदने लगती हैं। इनमें कुछ यादें खुद से, परिवार से जुड़ी होती हैं तो कुछ समाज और सामाजिक रिश्तों, रस्मों और रिवाजों से। जमाना बदलने के साथ बहुत कुछ बदला है, बदलना भी चाहिए, क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है… लेकिन कुछ बातें, जो भले ही दशकों, शताब्दियों पुरानी हो गई हों, ऐसी होती हैं जिनका बदलना अखरता है।
बचपन का ऐसा ही एक दृश्य मुझे याद आता है। पहली बार जब मेरा उस दृश्य से सामना हुआ था तो बाल-मन समझ ही नहीं पाया था कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं। दिवाली के दिन घर में लक्ष्मी पूजा होते-होते दरवाजे पर काफी हलचल होने लगती। इधर मां, पूजा के बाद दीयों को घर के आसपास सजाने के लिए करीने से थाली में रख रही होतीं और उधर घर की देहरी पर पास-पड़ोस की महिलाएं आकर इस आवाज के साथ अपनी आमद दर्ज करातीं- ‘’दिवाली का मेहमान आया जी…’’ और मां जल्दी-जल्दी दीयों को थाली में रखते हुए वहीं से जवाब देतीं-‘’आओ जी सा, पधारो…’’
इस संवाद के दौरान जो सबसे अहम बात होती थी, वो ये कि सजीधजी महिलाएं अपनी थाली में से एक दिया हर घर की देहरी पर रखती चली जातीं। ऐसा सारे घरों की महिलाएं एक दूसरे के घर की देहरी पर जाकर करतीं और देखते ही देखते हर घर की देहरी जगमगाने लगती। शुरू शुरू में तो मां खुद सभी घरों की देहरी पर जाकर दिया रखकर आती थीं, लेकिन जब उन्हें ऐसा करने में दिक्कात होने लगी तो यह काम हम बच्चों के सौंप दिया गया। बाद में हम लोग दिये की थाली लेकर निकलते और पड़ोसियों की देहरी पर दिये रखकर आते।
बचपन में यह सब खेल लगता था। हम समझते थे कि जैसे दिवाली पर ढेर सारे पकवान बनाने, लक्ष्मीजी की पूजा करने और पटाखे फोड़ने का चलन है, वैसे ही यह भी कोई चलन होगा, कि हर घर की देहरी पर दिया रखो। लेकिन आज जब बचपन के उन प्रसंगों के पन्ने फिर से पलटता हूं, तो लगता है कि क्या तो लोग थे वो और क्या परंपराएं बनाई थीं उन्होंने।
दिवाली का त्योहार यूं तो अपनी जगमग भव्यता के लिए पूरी दुनिया में विख्यात है, लेकिन इसकी रोशनी में जाने कितने संदेश छिपे हैं। जैसे अपने बचपन के इस प्रसंग की ही बात करूं, तो देहरी पर दिया रखने की परंपरा के ही जाने कितने आयाम नजर आते हैं। सबसे बड़ा तो यही कि किसी भी घर में अंधेरा न रहे। यदि कोई किसी भी कारण से अपने घर पर दिया जलाने में सक्षम नहीं है, तो समाज के लोग उसकी दहलीज को रोशन करें।
दिवाली के मौके पर भी कुछ घरों के रोशन न होने के कारण से मुझे याद आया… कई बार कुछ खास घरों में महिलाएं इकट्ठा होकर दिये रखने जाती थीं। वह ऐसा घर होता जहां हाल ही में किसी प्रियजन का निधन हुआ हो और शोकग्रस्त परिवार त्योहार न मना रहा हो। ऐसे घरों में मोहल्ले की महिलाएं मिलकर देहरी पर दिये रखकर आतीं। यह शोक की घड़ी में समाज के साथ होने का प्रतीक तो था ही, साथ ही इस बात का भी प्रतीक था कि भले ही वह परिवार अपने यहां दिया जलाने की स्थिति में न हो, लेकिन यह समाज का दायित्व है कि उसके घर अंधेरा न रहे।
समाज के सुख-दुख में साथ रहने की वे परंपराएं अब या तो खत्म हो गई हैं या फिर उनका क्षरण होता जा रहा है। अंधेरे को पूजने और नवाजने के इस समय में, पता नहीं वे उजाले की परंपराएं कहां लुप्त होती जा रही हैं, जो हर हाल में समाज में रोशनी को जिंदा रखने का जतन किया करती थीं। मुझे याद है, दिया रखने का यह काम केवल पास पड़ोस के घरों की देहरी पर ही नहीं होता था, बल्कि महिलाएं मंदिर के अलावा, पेड़ के नीचे, कुएं या सार्वजनिक नल पर, गली मोहल्ले के नुक्कत पर और यहां तक की कूड़ा डालने वाली जगह के किनारे भी दिया रखकर आतीं।
जरा सोचिए। पेड़ और कुएं को भी अंधेरे में न रहने देने के पीछे कितना बड़ा दर्शन रहा होगा। हमारी वनस्पति और जल के स्रोत को अंधेरा कभी नष्ट न कर सके, नुक्कड़ का दिया राहों को हमेशा रोशन करता रहे…और कूड़ा डालने वाली जगह पर दिया रखने की बात तो कल्पनातीत है। आज स्वच्छता को एक अभियान के रूप में चलाने की बहुत बातें हो रही हैं, लेकिन हमारे यहां तो कूड़ा डालने वाली जगह भी साफ और रोशन रहे, इसकी कामना और जतन किये जाते रहे हैं।
दिवाली पर समाज के हर अंधेरे के खिलाफ, प्रतीक रूप से संपन्न किए जाने वाले रोशनी के ये सारे जतन, हमारे इसी समाज में मौजूद रहे हैं। अफसोस इस बात का है कि आज रोशनी का वो मायना कहीं पीछे छूटता जा रहा है। अब बात सिर्फ अपने घरों को रोशन करने तक ही सिमट कर रह गई है। आज यदि किसी के घर दिया नहीं जलता और उसकी दहलीज अंधेरी पड़ी रहती है, तो यह उसकी ‘प्रॉब्लम’ है। समाज की देहरी पर दिया रखकर, उसे हमेशा रोशन रखने वाले लोग पता नहीं कहां खो गए हैं।