आज बात एक ऐसे मुद्दे पर, जिस पर तमाम चुनावी हल्ले और गाली गलौज से निपटने के बाद सभी को लौटकर आना है। यह बात अलग है कि ‘चुनावी चरवाहों’ के पास इतने सारे विषय हैं कि इस पर उनका ध्यान जाने का सवाल ही नहीं उठता। पर फिर भी यह बहुत जरूरी बात है, क्योंकि मामला घर-घर से जुड़ा है… और घर-घर ही क्यों आपकी रोज की थाली और निवाले से जुड़ा है।
टीवी चैनलों पर होने वाले आतंकी घमासान के बीच आपका ध्यान इस बात पर गया ही नहीं होगा कि चुनाव में किसी जमाने में जिस रोटी, कपड़ा और मकान की चर्चा होती थी, उसी में से एक रोटी के साथ खाई जाने वाली दाल एक बार फिर गरीब की थाली से नदारद होने जा रही है। भारत के अधिकांश शाकाहारी घरों में थाली का अभिन्न हिस्सा रहने वाली तुअर दाल के भाव इन दिनों आसमान छू रहे हैं।
अखबारों में अनदेखी, अनपढ़ी सी खबरों में छपने वाली सूचनाएं कह रही हैं कि तुअर दाल के भाव सौ रुपए किलो हो गए हैं। और भाव का यह चढ़ना अभी जारी है। यदि दाल ने ऐसा ही ताव दिखाया तो कोई ताज्जुब नहीं होगा कि वह चार साल पहले वाले 200 रुपए किलो के रिकार्ड को भी छू ले। यदि ऐसा हुआ तो आप लाख सिर्फ दाल-रोटी की डिंमाड करें, पर तय मानिए कि आपकी थाली में रोटी होगी लेकिन दाल नहीं…
बड़ा अजीब संयोग है कि तुअर दाल के दाम आज से ठीक पांच साल पहले बढ़ने शुरू हुए थे। आमतौर पर 45-50 रुपए किलो मिलने वाली तुअर दाल की कीमतें दिसंबर 2014 में दुगुनी होकर 85 रुपए प्रति किलो तक जा पहुंची थीं। और एक साल बीतते बीतते इसके दाम आसमान पर चढ़कर तांडव करने लगे थे। अक्टूबर 2015 में तुअर दाल का भाव 200 रुपए किलो तक चला गया था। हाहाकार मचने पर सरकारें चेती थीं और स्टॉक की सीमा तय करने के साथ साथ दाल के जमाखोरों पर बड़ी छापेमारी भी की गई थी।
वर्तमान में देश का दाल बाजार फिर तेजी पर है। खबरें संकेत दे रही हैं कि दालों के भाव में भारी बढ़ोतरी हो सकती है। ऑल इंडिया दाल मिलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश अग्रवाल का कहना है कि तुअर की थोक कीमत अगर 58 रुपए किलो होगी तो इसकी दाल की खुदरा कीमत 90 रुपए से अधिक आएगी क्योंकि दाल तैयार करने के दौरान 25 फीसदी छिलका या चूरी निकलती है।
हालांकि दाल के दाम को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार ने दाल मिलर्स को आयात लाइसेंस जारी करने का फैसला किया है जिसके तहत वे 2 लाख टन दाल का आयात कर सकते हैं। बड़े आयातक डेढ़ लाख टन आयात कर भी चुके हैं, लेकिन वे इसे बाजार में रिलीज नहीं कर रहे हैं। इससे भी दाल के दाम में तेजी का रुख है। 2015 में दाल के दाम 200 रुपए प्रति किलो पहुंचने के बाद सरकार ने 20 लाख टन दाल का आयात किया था, उसमें से काफी सारी दाल पर्याप्त रखरखाव के अभाव में खराब हो गई और सरकार को घाटे में उसे औने-पौने दामों पर निकालना पड़ा था।
हमारे एक पाठक अरुण सोनी ने मुझे दाल बाजार का एक और गणित लिखकर भेजा है जो इस मामले के दूसरे पक्ष पर रोशनी डालता है। उनके अनुसार पिछले तीन वर्षों के सरकारी आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2016-17 में तुअर का उत्पादन 45 लाख टन, 2017-18 में 40 लाख टन और चालू वर्ष 2018-19 में लगभग 35 लाख टन बताया जा रहा है। यानी पिछले तीन सालों में उत्पादन में लगातार कमी आई है।
जहां तक खपत का गणित है तो उसके मुताबिक जब दाल का मूल्य 50 से 70 रुपय प्रति किलो होता है तो इसकी खपत लगभग 48 लाख टन तक होती है और यही कीमत जब 70 से 90 रुपए प्रति किलो होती है तो खपत घट कर 45 लाख टन के आसपास रह जाती है। कीमत अधिक बढ़ने पर धीरे-धीरे इसकी खपत और घटने लगती है किंतु कीमत कुछ भी रहे, खपत 40-42 लाख टन से नीचे कभी नहीं जाती।
आमतौर पर जब अरहर या तुअर की दाल की कीमत बहुत अधिक बढ़ जाती है तो उसकी खपत की भरपाई अन्य दालों जैसे उड़द, मूंग, बटरी, चना, मसूर आदि दालों से होती है। यानी जिस दाल का बाजार मूल्य अपेक्षाकृत कम होता है, वह तुअर दाल का विकल्प बन जाती है। लेकिन उत्पादन कम होने की स्थिति में यदि सभी दालों के दामों में कमोबेश समान रूप से बढ़ोतरी हो तो उपभोक्ताओं पर महंगाई की मार बहुत अधिक पड़ती है।
पिछले सीजन में शिवराजसिंह सरकार ने तुअर का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5675 रुपए क्विंटल तय किया था। और अभी मंडियों से जो खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक बाजार में तुअर निमाड़ी 5200 से 5600 और महाराष्ट्र तुअर 5900 से 6100 (आंकड़े इंदौर मंडी के) रुपए प्रति क्विंटल चल रही है। दाल मिलर्स के अनुसार तुअर में जैसी तेजी चल रही है उसे देखते हुए दाम 6000 रुपए क्विंटल से अधिक रह सकते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि दाल का मूल्य भी तेजी पकड़ेगा।
वैसे अरुण सोनी इसे किसानों के लिहाज से अच्छा भी मान रहे हैं। उनका कहना है कि यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक की कीमत मिल रही है तो इसमें बुरा क्या है? विशेषज्ञ कह रहे हैं कि पिछले ढाई साल में यह पहली बार हुआ है कि तुअर के दाम एमएसपी से अधिक हुए हैं। यदि किसान को उसकी उपज का मूल्य सही नहीं मिलेगा तो वह अपनी पैदावार नहीं बढ़ाएगा। खुले बाजार में अनाजों की कीमतें समर्थन मूल्य के समकक्ष रहेंगी तो वह पैदावार बढ़ाने का प्रयास करेगा।
अब सवाल सिर्फ इतना है कि दालों की किल्लत चाहे पैदावार की कमी से हो या जमाखोरी सहित अन्य कृत्रिम कारणों से, उसका किसान और उपभोक्ता पर क्या असर पड़ेगा। यदि वास्तविक रूप से किसान को इसका थोड़ा बहुत भी फायदा मिलता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन ऐसा न हो कि फायदा न किसानों को मिले न उपभोक्ताओं को, सारा माल दलाल और बिचौलिये ही लूट जाएं। किल्लत की स्थिति सरकारों को अरबों रुपए के दाल आयात का ‘सुनहरा’अवसर भी देती है, जिसका उन्हें हमेशा इंतजार रहता है।
पर जब सोचने के लिए श्रीराम और कंकड़ पत्थर के रसगुल्ले हों, सावरकर और गोडसे हों, राजीव-राफेल और बोफोर्स हों, राज्य की अस्मिता से लेकर राष्ट्रवाद की चिंता हो तो ऐसे में रोटी के साथ दाल भी मिले ऐसी टुच्ची बातों पर भला कौन सोचे? पुराने लोग कहते थे- दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ, पर जब दाल ही न मिले तो किसके ‘गुण’ गाएं…?