‘कन्यादान’ रस्म का औचित्य और तपस्या के सवाल…! 

अजय बोकिल

सनातन हिंदू विवाह पद्धति में कन्यादान की रस्म के औचित्य पर मप्र की युवा आईएएस अधिकारी तपस्या परिहार द्वारा सवाल उठाने और अपने ही विवाह में इसे नकारने के बाद इस समूचे संस्कार के औचित्य पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। परंपरावादियों का मानना है कि कन्यादान के बगैर विवाह संस्कार अपूर्ण है, जबकि सुधारवादियों का तर्क है कि कन्या कोई वस्तु नहीं है, तो उसे ‘दान’ कैसे किया जा सकता है? लिहाजा यह रस्म ही अनुचित है। विवाह दो आत्मा और दो शरीरों के समाजमान्य मिलन का उत्सव है। अगर इसमें कन्या अपने पति के घर जाती है तो भी यह केवल ‘दायित्व का हस्तांतरण’ है न कि किसी के द्वारा किसी को किया गया कोई दान या मेहरबानी है। वैसे भी वेदों में पाणिग्रहण का तो उल्लेख है, लेकिन कन्यादान का नहीं। यह रस्म हिंदू विवाह संस्कार में काफी बाद में जोड़ी गई।

कन्यादान को नकारने वाली तपस्या का कहना है कि मैं अपने पिता की बेटी हूं, हमेशा बेटी ही रहूंगी। मैं दोनों परिवारों का हिस्सा रहूंगी। बेटी को ‘दान’ समझना स्त्री की गरिमा को कम करना है। मेरे परिवार को भी यह ‍अधिकार नहीं है कि वो मुझे ‘दान’ कर सके। तपस्या का इस तरह एक स्थापित परंपरा पर सवाल उठाना भी अपने आप में एक क्रांति ही है। खास बात यह है ‍कि तपस्या के तर्क को उसके पति और दोनों परिवार वालों ने भी सही माना और कन्यादान के ‍बिना ही यह विवाह संस्कार राजी खुशी से सम्पन्न हुआ।

इस पर आगे चर्चा से पहले यह समझना जरूरी है कि ‘कन्यादान’ की रस्म वैदिक विवाह पद्धति में कैसे जुड़ी और क्यों इसने ‘महादान’ का स्वरूप ले लिया। हिंदू सोलह संस्कारों में विवाह तेरहवां संस्कार है। विवाह शब्द संस्कृत के दो शब्दों वि+वाह से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। हिंदू विवाह संस्कार और अन्य धर्मों के विवाह संस्कारों में अंतर इतना है कि यहां विवाह सात जन्मों का सम्बन्ध होता है (कानूनन तलाक अलग बात है)। यह सम्बन्ध अग्नि की साक्षी से तय होता है। जबकि अन्य धर्मों में वह या तो अनुबंध होता है या फिर केवल परस्पर स्वीकार होता है।

चूंकि हिंदू और सनातन धर्म किसी एक पुस्तक या ईश्वरीय आदेश से संचालित नहीं है, इसलिए हिंदू विवाह कर्मकांड के बारे में थोड़ी सी जानकारी ऋग्वेद और ज्यादा जानकारी आश्वलायन गृह्य सू‍त्र, आश्वलायन श्रौतसूत्र, ऐत्‍तरेय ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण तथा हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र में मिलती है। ये सूत्र वेदों के बहुत बाद में रचे गए हैं। हिंदू धर्म में संस्कारों की संख्या भी अलग-अलग है, लेकिन बहुमान्य सोलह संस्कार ही हैं। इनमें से विवाह संस्कार तेरहवां है। मूल वैदिक विवाह पद्धति में भी स्थानीय और आंचलिक स्तर पर रस्मो रिवाज में कुछ बदलाव होते रहे हैं। लेकिन ज्यादातर हिंदू विवाहों में विवाह संकल्प के बाद कन्यादान की परंपरा है। उसके बाद पाणिग्रहण होता है।

कन्यादान के समय जो श्लोक बोले जाते हैं, उनका उल्लेख आश्वलायन गृह्य सूत्र में है और ये अद्भुत और ऐहिक हैं। उदाहरण के लिए कन्यादान की रस्म शुरू होते समय वधु का पिता वर से कहता है- आप मेरी कन्या का स्वीकार करें। जवाब में वर कहता है- हां मैं इसका (आपकी बेटी) पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूं। आगे का श्लोक अद्भुत है। वर कहता है कि आप मुझे यह कन्या दान दे रहे हैं, कन्या का यह दान किसने और किसे दिया? (वही उत्तर भी देता है) यह दान काम ने काम को दिया है। अर्थात काम ही दानदाता है और काम ही दानग्रहणकर्ता है। इसके बाद वधु कहती है- आप पत्नी के रूप में मेरा स्वीकार करें। वर कहता है- हां, मैं सानंद तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूं।

हिंदू धर्म में यूं तो आठ प्रकार के विवाह मान्य किए गए हैं, लेकिन सर्वाधिक मान्य और प्रचलित ‘ब्रह्म विवाह’ पद्धति है, जिसे हम आम तौर पर विवाह या शादी के नाम से जानते हैं। प्राचीन ग्रंथों पर नजर डालें तो वैदिक काल में विवाह की मुख्य रस्म पाणिग्रहण ही थी, यानी वर और वधु द्वारा एक दूसरे का हाथ थामना। जीवन भर साथ देने के वचन के साथ गृहस्थ जीवन की शुरुआत करना। हिंदू दर्शन के हिसाब से यह जीवन के चार पुरुषार्थों में से तीसरे क्रम का यानी ‘काम’ का पुरुषार्थ है। जब स्त्री और पुरुष का यह रिश्ता सर्वस्वीकार्य है तब इसमें ‘दान’ की बात कहां से आ गई?

इसके पीछे सोच यह है कि स्त्री एक ‘सम्पत्ति’ ही है, जिसका विवाह होने तक रक्षण करना पिता का, विवाह के बाद पति का और वृद्धावस्था में बेटे का कर्तव्य है। इस सोच में यह पूर्वाग्रह निहित है कि स्त्री अबला है और उसकी रक्षा करना पुरुष का कर्तव्य है। इसलिए विवाह वास्तव में दो आत्माओं के मिलन के साथ स्त्री रक्षण के दायित्व का हस्तांतरण भी है। ‍विद्वानों के एक वर्ग का मानना है कि मूल रस्म पाणिग्रहण ही थी। कालातंर में उसे ही कन्यादान कहा जाने लगा। महाभारत में एक जगह लीला पुरुषोत्तम कन्यादान की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि कन्यादान यानी ‘कन्या का आदान’ यानी दायित्व का हस्तांतरण है न कि पूर्ण रूप से दान।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदू‍ विवाह पद्धति में केवल कन्यादान से ‍विवाह की रस्म पूरी नहीं होती। इसके लिए सप्तपदी (सात कदम) यानी सात फेरे भी आवश्यक हैं, जो अग्नि को साक्षी रखकर लिए जाते हैं। हर फेरे के साथ वर अपनी भावी पत्नी को एक वचन देता है। यह वचन क्रमश: भरण-पोषण, आहार व संयम, धन प्रबंधन, आत्मिक सुख, पशुधन संवर्द्धन, हर ऋतु में उचित रहन-सहन से सम्बन्धित होता है। अंतिम वचन में वधु, वर को जीवनभर अपनाने और उसके साथ चलने का वचन देती है। लगभग इसी आशय के वचन या प्रतिज्ञाएं भारतीय मूल के सभी धर्मों में की जाती हैं। लेकिन रस्मों की सर्वाधिक संख्या और कर्मकांड सनातन हिंदू विवाह पद्धति में ही हैं।

यहां सवाल उठता है कि यदि कन्यादान मूल वैदिक संस्कार में नहीं था तो बाद में इसे क्यों जोड़ा गया? यही नहीं इसे ‘महादान’ कहकर महिमा मंडित क्यों किया गया? शास्त्रों में कहा गया है कि कन्यादान सबसे बड़ा दान है। इससे माता-पिता के लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। कन्यादान हर पिता के लिए सौभाग्य की बात है। कालांतर में शायद इसी दान ने ‘पुण्य’ का रूप का धर लिया और पिता के पुण्य की कामना ही कन्यादान का कारण बन गई। यहां एक बात और है कि हिंदू‍ विवाह में  कन्यादान के बाद कन्या का गोत्र भी बदल जाता है। वह पति के गोत्र का हिस्सा बन जाती है। इसी मान्यता के कारण भी कन्यादान को अनिवार्य और महादान की संज्ञा दी गई होगी। तीसरा कारण बाहरी आंक्राताओं से बेटियों को बचाने के लिए उनके कम उम्र में विवाह किए जाने लगे तो इसका औचित्य ठहराने के लिए कन्यादान की रस्म जोड़ी गई हो और इसे महादान के रूप में महिमा मंडित किया गया हो।

हिंदू धर्म से निकले इतर धर्मों में भी कन्यादान की रस्म नहीं के बराबर है। जैन धर्म में विवाह की रस्में सनातन हिंदू धर्म से कुछ मिलती जुलती हैं। लेकिन वहां भी कन्यादान को ‘प्रदान’ कहा जाता है। सात फेरे वहां भी होते हैं। सिख धर्म में विवाह को ‘आनंद कारज’ कहा जाता है और इसकी रस्म बेहद सरल है। वर वधु गुरु ग्रंथ साहब के चार फेरे, जिसे लावां कहा जाता है, लेते हैं। हर फेरे में गुरुबानी पाठ, सत्यनिष्ठा, वाहे गुरु की सर्वत्र विद्यमानता, वाहे गुरु का जाप और गुरुओं के संदेश को पाना ही आनंद कारज है। गुरु ग्रंथ साहब की साक्षी में वर वधु ताउम्र एक दूसरे को अपनाने का वचन देते हैं।

हिंदू धर्म से निकले बौद्ध धर्म में तो विवाह केवल सामाजिक समारोह है। वहां भगवान बुद्ध की प्रतिमा तथा बौद्ध धर्मगुरुओं की मौजूदगी में वर वधु पंचशील ग्रहण करते हैं। वर और वधु सदाचार तथा एक दूसरे का साथ निभाने का वचन देते हैं। आंबेडकरवादी बौद्‍धों में डॉ. भीमराव आंबेडकर की तस्वीर विवाह समारोह में अनिवार्य रूप से रखी जाती है।

यहां बुनियादी प्रश्न वही है कि क्या कन्यादान के बगैर हिंदू विवाह संस्कार पूरा नहीं हो सकता? तपस्या ने सभी की सहमति से यह कर दिखाया है। दरअसल इसके पीछे कर्मकांड से ज्यादा भावुकता का सवाल है। अक्सर विवाह में कन्यादान करते समय कुछ देर के लिए ही सही पिता की आंखें नम हो जाती हैं। वह इसे जिगर के टुकड़े को अपने से अलग होने के रूप में महसूस करता है। ऐसे में यह कन्यादान नहीं, बेटी का भावनात्मक रूप से विलगीकरण का यत्न है, जो संवेदना के स्तर पर शायद कभी भी नहीं होता या हो सकता। माता पिता के लिए बेटी सदा बेटी ही रहती है। तपस्या ने इसी कोमल बिंदु को पकड़ा है, विचारशील मनों को झकझोरा है। यह बहस यकीनन आगे जाएगी। आज बेटियां ज्यादा आत्मनिर्भर हैं, सक्षम हैं, जागरूक हैं। क्या हिंदू समाज को ऐसे ‘दान’ की महानता पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?

1 COMMENT

  1. बहुत सुंदर विवेचन। ऐसे संस्कार के साथ जो भावना जुडी होती उसे लोग अपनी परिस्थिति और मानसिक क्षमता के अनुसार स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। जब कोई संस्कार जोड़ा जा सकता है तो घटाया भी जा सकता है। कर्मकांडी लठैत ऐसे मौके भुनाने की फ़िराक में रहते हैं। वर और वधू पक्ष की सहमति से सब कुशल हुआ यही सबसे उत्तम है।

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