कोरोना: गुजरात की यह आग दूसरे राज्यों में न फैले..

अजय बोकिल

कोरोना संकट के ये दिन उन प्रवासी मजदूरों के लिए जीवन मरण का प्रश्न हैं, जो नहीं समझ पा रहे कि कोरोना से लड़ें कि भूख से? सूरत में प्रवासी मजदूरों की भारी हिंसा इस बात की गंभीर चेतावनी है कि अगर ऐसे मजदूरों के लिए जल्द कुछ ठोस उपाय नहीं किए गए तो देश भर में लाखों प्रवासी और दिहाड़ी मजदूर सड़कों पर उतर सकते हैं, क्योंकि उनके पास खोने के लिए जान के अलावा अब कुछ नहीं बचा है। दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति बनी तो सरकारें उससे कैसे निपटेंगीं, यह बड़ा सवाल है।

गुजरात की घटना इसलिए भी चिंताजनक है, क्योंकि वहां राज्य सरकार का दावा था कि उसने लॉक डाउन के चलते प्रवासी मजदूरों के रहने और खाने आदि की व्यवस्था के लिए शेल्टर होम बना दिए हैं। पूरे राज्य में ऐसे 230 शेल्टर होम्स हैं। जिनमें (राज्य सरकार के मुताबिक) 8 हजार 800 प्रवासी मजदूरों और उनके परिवार ठहराए गए हैं। इनमें से कई कपड़ा और हीरा उद्योग में काम करते हैं। ये प्रवासी मजदूर यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान सहित 13 राज्यों और नेपाल के रहने वाले हैं।

गुजरात सरकार का कहना है कि इन शेल्टर होम्स में यथासंभव सभी जरूरी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं। इसके बावजूद ये मजदूर सड़कों पर उतरे और उन्होंने भारी तोड़फोड़ व आगजनी की। ये प्रवासी कामगार अपने वेतन के साथ-साथ अपने घर जाने देने की मांग भी कर रहे थे। मजदूरों की उग्र भीड़ ने करीब आधा दर्जन सब्जी की गाड़ियों (ये भी गरीबों की ही रही होंगीं) को आग के हवाले कर दिया, जबकि अहमदाबाद में मजदूरों ने पुलिस पर पत्थरबाजी की।

सूरत में पुलिस ने उपद्रवी मजदूरों को बलपूर्वक खदेड़ा। कई लोगों को हिरासत में भी लिया गया। मजदूरों की हिंसा से लगता है कि वहां कई औद्योगिक इकाइयों ने लॉक डाउन के दौरान मजदूरों को उनका वेतन और मजदूरी नहीं दी है। जबकि सरकार का कहना है कि प्रदेश की छोटी बड़ी 20 हजार 214 इकाइयों ने उनके 7 लाख 38 हजार कामगारों को 1264 करोड़ रुपये का वेतन भुगतान कर दिया है। साथ ही सरकार ने लॉक डाउन के चलते कामगारों को नौकरी से नहीं निकालने के निर्देश भी दिए हैं।

दूसरी तरफ प्रवासी मजदूरों का आरोप है कि शेल्टर होम में रहने की जगह अपर्याप्त है। ढंग के टॉयलेट्स नहीं हैं और न ही खाना ठीक से दिया जा रहा है। लिहाजा वो अब यहां और नहीं रहना चाहते और अपने घरों को लौटना चाहते हैं। कुछ ऐसा ही अंसतोष पिछले दिनों हमें केरल में भी दिखाई दिया था, जहां प्रवासी मजदूर बेहतर और पसंदीदा खाने की मांग करते हुए सड़क पर उतर आए थे। इसी तरह तमिलनाडु में भी प्रवासी मजदूरों में बेहतर खाने की मांग को लेकर असंतोष सामने आया था।

इसके भी पहले हमने देश की राजधानी दिल्ली में लाखों मजदूरों और छोटी नौकरियां करने वालों को लॉक डाउन के बाद बदहवासी में अपने घरों को लौटते देखा था। फिलहाल अन्य राज्यों से अभी ऐसी हिंसा की खबरें नहीं आई हैं, लेकिन भीतर ही भीतर‍ स्थिति विस्फोटक है। क्योंकि आवागमन के साधनों के अभाव में ये अपने राज्यों को लौट नहीं सकते और जहां वो रह रहे हैं, वहां घोर अनिश्चितता है।

इसी संदर्भ में गुजरात आईबी की रिपोर्ट महत्वपूर्ण है। आईबी के मुताबिक प्रवासी मजदूरों में यह असंतोष शेल्टर होम्स में रहने खाने की अपर्याप्त सुविधाओं के कारण फैला। दूसरे, जिन शेल्टर होम्स में इन्हें ठहराया गया है, वहां सोशल डिस्‍टेंसिंग का पालन भी नहीं किया जा रहा है। अगर ये मजदूर अपने मूल घरों को लौटें भी तो इस बात का पूरा खतरा है कि इनमें से कुछ अपने साथ कोरोना भी ले जाएं। ऐसा हुआ तो यह और खतरनाक होगा।

विश्व बैंक की ताजा द्विवार्षिक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि भारत के जिन इलाकों में ये प्रवासी मजदूर घर लौट रहे हैं, वहां कोविड-19 के मामले सामने आ सकते हैं। विश्व बैंक के मुताबिक दक्षिण एशिया और खासकर उसके शहरी इलाके विश्व में सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं। इससे कोरोना वायरस का संक्रमण गरीब और प्रवासी मजदूरों में फैलने से रोकना कठिन चुनौती है। विश्व बैंक ने कहा कि लॉकडाउन की नीतियों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों प्रवासियों को प्रभावित किया है। जिनमें से अधिकतर दिहाड़ी मजदूर हैं और शहरी केंद्रों में उनके पास कोई काम नहीं बचा है। जिसके चलते वे अपने ग्रामीण घरों की ओर सामूहिक पलायन कर रहे हैं।

अक्सर पैदल ही अपने गांवों की ओर चल पड़ने वाले इन मजदूरों के पास लंबे समय तक बिना काम के शहरों में संभवत: भूखे रहने और सैकड़ों मील दूर अपने गृह जिलों को लौटने के लिए जानलेवा यात्रा पर निकलने के बीच किसी एक को चुनने का बेहद कठोर विकल्प है। यहां समस्या केवल प्रवासी मजदूरों की ही नहीं है, उन निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की भी है, जिनकी आय बहुत सीमित है और एक माह भी वेतन नहीं मिला तो घर चलाना मुश्किल है। आलम यह है कि आर्थिक परेशानी से निपटने के लिए लोग बड़ी तादाद में अपने प्रॉविडेंट फंड (पीएफ) से पैसे निकाल रहे हैं।

आधिकारिक जानकारी के मुताबिक सिर्फ पिछले 11 दिनों में 4 लाख से ज्यादा लोगों ने ईपीएफओ को 3 महीने की सैलरी निकालने का आवेदन दिया है। इस बीच ईपीएफओ ने करीब 1.37 लाख क्लेम का निपटारा किया और करीब 238 करोड़ रुपये सब्सक्राइबरों के खाते में डाले हैं। दूसरी तरफ देश भर में बंद हो चुके तमाम छोटे-बड़े उद्योग लॉक डाउन के झटके से उबरने के लिए भारी मात्रा में बैंकों से कर्ज ले रहे हैं। रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, लॉक डाउन के बाद 27 मार्च को समाप्त पखवाड़े में बैंक ऋण में 2.31 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ।

बड़े और मझले उद्योग तो जैसे तैसे फिर खड़े हो भी जाएंगे, लेकिन बहुत छोटे कारखानों और कारोबार पर आश्रित मजदूरों व नौकरियां करने वालों की परेशानी बढ़ने ही वाली है। पीएम मोदी की वीडियो कांफ्रेंस में राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने सलाह दी थी कि लॉक डाउन के बाद बड़े पैमाने पर संभावित बेरोजगारी को रोकने सरकार मनरेगा जैसी कोई योजना लाए। जो काम के बदले अनाज भी हो सकती है। वरना हालात बहुत विकट होंगे। क्योंकि यह किसी एक राज्य की बात नहीं है, पूरे देश के प्रवासी और स्थानीय मजदूरों की है, जिनकी संख्या करोड़ो में है। इस बीच यह भी खबर है कि मध्यप्रदेश सरकार के एक प्रस्ताव पर केन्द्र ने राज्य में मनरेगा के तहत 56 तरह के कामों को मंजूरी दे दी है। ये वही मनरेगा है, जिसे भ्रष्टाचार की खान बताकर मोदी सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था।

जाहिर है कि मजदूर चाहे प्रवासी हों या स्थानीय सबकी एक ही समस्या है कि कोरोना के साथ-साथ भूख से कैसे लड़ें? किस से ज्यादा डरें? खुद को बचाएं या समाज के स्वास्थ्य की चिंता करें? यूं केन्द्र सरकार ने बड़े पैकेज के तहत गरीब महिलाओं के जन धन खातों में पांच पांच सौ रुपये डाल दिए हैं। लेकिन पांच सौ रुपये कितने दिन के साथी हैं? एक मजदूर का चार सदस्यीय परिवार इन पांच सौ रुपयों पर चार दिन भी नहीं जी सकता। सरकारें गरीबों को अनाज भले सस्ता या मुफ्त में दे रही हों, लेकिन बाकी चीजें तो महंगी ही हैं और लॉक डाउन में तो वो भी मुश्किल से और मनमाने दाम पर मिल रही हैं।

यकीनन सभी सरकारें इस समस्या से अनभिज्ञ नहीं होंगी, लेकिन इसका कारगर उपाय क्या हो, यह किसी की समझ नहीं आ रहा, क्‍योंकि लॉक डाउन खुलने के बाद देश और जनता को किन संकटों का सामना करना पड़ेगा, प्रवासी मजदूरों का आक्रोश, उसकी एक झलक भर है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि केवल धीरज धरने की सलाहों और मंगल कामनाओं से पेट नहीं भरता। जो उपाय किए जा रहे हैं, उनका जमीनी असर बहुत कम दिखाई पड़ रहा है। उदाहरण के लिए मप्र में लॉक डाउन में राशन बांटने के तमाम प्रयोग, प्रायोगिकता से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। बेशक काम धंधे फिर शुरू करने में कोरोना संक्रमण का गंभीर खतरा है, लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग को कायम रखते हुए हमें लोगों के रोजगार का इंतजाम तो करना ही होगा। दोनों में संतुलन बनाना ही सबसे बड़ी चुनौती है। आखिर कोरोना से डर कर गरीब कब तक अपने पेट पर पत्थर रख पाएंगे? इसके पहले कि गुजरात की यह आग दूसरे राज्यों में फैले, सरकारों को चेत जाना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं। इससे वेबसाइट का सहमत होना आवश्‍यक नहीं है। यह सामग्री अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के तहत विभिन्‍न विचारों को स्‍थान देने के लिए लेखक की फेसबुक पोस्‍ट से साभार ली गई है।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here