अनिल यादव
किसी ने न सोचा था कि कोरोना से ये हालात बनेंगे, सैकड़ों, हजारों लोगों का रेला जो टूटने में ही नहीं आ रहा था। मई की तेज धूप में हजारों पुरुष, महिलायें, बच्चे एक के पीछे एक पैदल चले आ रहे हैं। पसीने के साथ ही थकान, भूख और लाचारी भी उनके चेहरों से टपक रही थी। हजारों दूसरे साइकल, मोटरसाइकल, ट्रक, टैम्पो, ऑटो से निकल रहे हैं।
पहले तो स्थानीय लोग समझ ही नहीं पाए कि ये माजरा क्या है। फिर पता चला कि ये उत्तर भारत के वे मजदूर हैं जो अपने घरों से सैकड़ों किमी दूर दक्षिण भारत के विभिन्न नगरों में मजदूरी करने गये थे। और कोरोना लॉक डाउन में जो जहाँ थे वहीं लॉक होकर रह गए थे। वे अब मौका मिलते ही अपने गाँव, अपने घर लौट रहे हैं। जिसे जो साधन मिला उससे और जिसे कुछ न मिला वो पैदल। और वे अकेले नहीं थे उनके परिवार भी उनके साथ थे।
पिछले पखवाड़े से मीडिया और सोशल मीडिया पर बहुत उदास करने वाले यही सब दृश्य पूरा देश देख रहा है। लाचारी और बेबसी की ये तस्वीरें तो हमने देखीं, लेकिन हौसला और हिम्मत बढ़ाने वाली वे तस्वीरें और खबरें हमारे सामने नहीं आईं जो समाज की असली ताकत बताती हैं।
मेरे अपने विदिशा जिले में भी भोपाल से सागर जाने वाले राजमार्ग से आप्रवासी मजदूर लगातार गुजर रहे हैं (पिछले चार दिनों से अब उनकी संख्या में कुछ कमी आई है)। आप्रवासी मजदूरों की तकलीफें तो कोई नहीं बाँट सकता, लेकिन मैं देख रहा हूँ कि अनगिनत लोग और संगठन उनकी परेशानियां कम करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं की ये कोशिशें, कोरोना काल में हमारे समाज की उदासी कुछ कम करके आप्रवासी मजदूरों में भरोसा जगाती हैं, कि हम लोग तुम्हारे साथ हैं।
इस राजमार्ग पर कई स्थानों पर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने स्टाल लगा कर आप्रवासी मजदूरों के भोजन-पानी का इंतजाम किया है। और इस काम में कोई एक व्यक्ति या कोई एक संगठन नहीं, सैकड़ों शहरी और ग्रामीण युवा जुटे हुए हैं। ऐसा यहीं नहीं, मप्र में जगह-जगह हो रहा है। वे खाना खिला रहे हैं, कपड़े और जूते-चप्पल, दवाएं बाँट रहे हैं। बच्चों में फल-चाकलेट वितरित कर रहे हैं। जिनके वाहनों में खराबी आ गई है, मिस्त्री बुला कर उन्हें ठीक करा रहे हैं।
मेरे परिचित नौरंगसिंह राजपूत जो विशेष अनुमति लेकर पिछले दिनों मुंबई में पढ़ने वाले तीन बच्चों को वहां से सड़क मार्ग से लेकर आये हैं, बताते हैं कि नौ मई को जब वे मुंबई से लौट रहे थे तो पूरे रास्ते में आप्रवासी मजदूरों के ट्रकों, टैक्सियों, ऑटो रिक्शों और साइकलों की कतारें नहीं टूट रहीं थी। जितने मजदूर वाहनों में थे उससे ज्यादा सड़क पर पैदल यूं चले आ रहे थे जैसे कोई राजनैतिक रैली लौट रही हो। उन्होंने यह भी बताया कि लेकिन सैकड़ों किलोमीटर तक रास्ते में मजदूरों से कोई पानी की पूछने वाला तक नहीं था। यह हालत उस महाराष्ट्र की थी जिसे इन मजदूरों ने अपने खून-पसीने से सींचा है।
उनके अनुसार जब वे नौ मई को महाराष्ट्र-मप्र के सेंधवा बॉर्डर पर पंहुचे तो सड़क पर दोनों तरफ केवल आप्रवासी मजदूर ही नजर आ रहे थे। उस दिन सेंधवा बॉर्डर पर जब किसी तकनीकी कारण से ट्रैफिक को रोका गया तो वहां करीब छह हजार से भी ज्यादा वाहन आ कर खड़े हो गए थे। हालात बेकाबू होते देख प्रशासनिक अधिकारियों ने मात्र तीस मिनट में ही सब वाहनों को जाने दिया।
श्री राजपूत के अनुसार खलघाट पार करते ही मप्र की सीमा में तस्वीर बदलती हुई नजर आने लगी। महू और इंदौर जैसे नगरों में ही नहीं कई स्थानों पर आप्रवासी मजदूरों के लिए भोजन के अलावा चाय–पानी, छाछ, तरबूज, खरबूज, ककड़ी, पूड़ी-सब्जी यहाँ तक की हलुए तक के इंतजाम नजर आये। ये कोई सरकारी इंतजाम नहीं थे, इनका प्रबंध सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किया था।
इंदौर के बाद रास्ते में भी ऐसे ही स्टाल दिखे। आगे देवास में आप्रवासी मजदूरों के लिए बहुत अच्छी भोजन व्यवस्था नजर आई। सोनकच्छ में भी स्टाल लगे थे। आगे भोपाल बाई पास पर, साँची-सलामतपुर के बीच में भी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई स्थानों पर आप्रवासी मजदूरों के लिए भोजन के प्रबंध किये हुए थे।
विदिशा के बाहर, जहाँ से सागर मार्ग बाई पास शुरू होता है, वहां विदिशा के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आप्रवासी मजदूरों के लिए भोजन, फल, बिस्किट, छाछ, सत्तू इत्यादि की व्यवस्थायें कर रखी थीं।
सच तो यह है कि पूरे मप्र में जहाँ-जहाँ से उत्तर भारत को दक्षिण भारत से जोड़ने वाले मार्ग निकले हैं, सभी जगह सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ऐसे ही प्रबंध कर रखे हैं। अफ़सोस की बात यह है कि बस इनकी खबरें वैसी सुर्खियाँ नहीं बन पा रही हैं जैसी दुखी करने वाली खबरें-तस्वीरें बन रहीं हैं।
वैसे कोई भी देश-प्रदेश सरकारों से नहीं, समाज से महान बनता है। ये व्यवस्थाएं ही हमारे समाज की सच्चाई बताती हैं? और ऐसे संकट काल में ही हमें पता चलता है की हमारे समाज की ताकत क्या है?
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टीम मध्यमत