मप्र उपचुनाव: दिमनी के दंगल में डंडोतिया की दुश्वारियां कम नहीं

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दिमनी उपचुनाव

डॉ. अजय खेमरिया

जेब में रोटी रखकर चलने वाले पूर्व मंत्री मुंशीलाल खटीक दिमनी से बीजेपी के बड़ा दलित चेहरा रहे हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे इस विधानसभा के हर गांव में पैदल जा चुके हैं। सादगी, सरलता और बड़प्पन की मिसाल मुंशीलाल का एक किस्सा केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सुनाते हैं। युवा मोर्चा अध्यक्ष के तौर पर मशाल यात्रा लेकर गांव गांव घूम रहे तोमर के साथ मुंशीलाल भी थे। यह वह दौर था जब बीजेपी के नेताओं के लिए आज की तरह भीड़ नही उमड़ती थी, विशुद्ध संघी स्टाइल में ही भोजन, आवास का जुगाड़ हो पाता था। भूख लगने पर तोमर ने मुंशीलाल की तरफ देखा, गांव में कोई व्यवस्था न होने पर मुंशीलाल ने अपने लंबे कुर्ते की जेब से अखबार में लिपटा एक बंडल निकाला और नरेंद्र सिंह की ओर बढ़ा दिया। उसमें रोटियां थीं।

दिमनी में ऐसे सादगी पसन्द नेताओं के दिन अब लद गए हैं। जाति, धन और काफी कुछ मसलपॉवर का केंद्र बनी इस विधानसभा में आने वाले उपचुनाव में जातिगत चुनावी संघर्ष स्पष्ट देखने को मिलेगा। केंद्र में होंगे ठाकुर और ब्राह्मण। बड़े नेता, बड़े दल सब यहां बेमानी हैं जात के आगे। तोमरवंशी ठाकुरों के गढ़ में सियासी टकराव ब्राह्मणों से होता है। 2013 में (बलबीर सिंह डंडोतिया) और 2018 में (गिरिराज डंडोतिया) ब्राह्मण विधायक चुने गए थे।

2008 में शिवमंगल सिंह तोमर एमएलए बने थे। 2008 तक यह सीट दलित आरक्षित थी, जहां से मुंशीलाल, भिंड की मौजूदा सांसद संध्या राय एमएलए रह चुके हैं। 2018 में गिरिराज डंडोतिया 69597 वोट लेकर जीते थे। बीजेपी के शिवमंगल सिंह तब 51120 वोट पर सिमट गए थे। 2013 में बसपा के बलबीर डंडोतिया ने 44718 वोट लेकर कांग्रेस के रविन्द्र तोमर (42612) को शिकस्त दी और बीजेपी के सिटिंग एमएलए शिवमंगल तोमर केवल 33308 वोट हासिल कर सके।

दिमनी में सर्वाधिक वोट तोमर ठाकुरों के हैं। करीब 100 गांव, पुरा में फैले तोमर ठाकुर बड़ी राजनीतिक और आर्थिक ताकत भी हैं, लेकिन पिछले तीन चुनावों से यहां तोमर बिरादरी भी अपनी परम्परागत स्वीकार्यता को गंवा रही है। नतीजे इसकी तस्दीक करते हैं। इस विधानसभा में तोमर ठाकुर के अलावा जाटव, ब्राह्मण, किरार, लोधी, राठौर, बघेल, गुर्जर, मुस्लिम, मल्लाह, जातियों के वोट अच्छी संख्या में हैं।

2018 में गिरिराज के पक्ष में बहुत से फैक्टर थे। 2008 में वह हारने के बाबजूद लगातार सक्रिय रहे। 2013 में उनका टिकट कट गया इसके बाबजूद वह दिमनी के गांव गांव अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे। पार्टी में भी सिंधिया के साथ डटे रहे। नॉन तोमर, नॉन ब्राह्मण वर्ग खासकर गुर्जर, लोधी, मुस्लिम, किरार वर्ग में उन्होंने अपनी स्वीकार्यता को स्थापित किया। 2 अप्रैल 2018 के दलित आंदोलन और किसान कर्जमाफी जैसे मुद्दों ने भी उनकी तरफ जाटव और यहां तक कि कुछ तोमर ठाकुरों को भी खड़ा कर दिया था।

उपचुनाव में क्या उनकी यह पोजीशन बरकरार रहेगी? ग्राउंड रिपोर्ट कहती है कि मामला उलट सकता है। अपने 17 महीने के कार्यकाल में गिरिराज डंडोतिया जनता की नजरों में खरे साबित नहीं हुए हैं। बीजेपी की ओर से नई उम्‍मीदवारी उन्हें 2018 जैसा सुगम रास्ता कतई नहीं देने वाली है। पहली कठिनाई तो उन्हें जातिवाद के आरोप से आने वाली है। जिस जातिवाद के विरुद्ध वह अन्य जातियों (ठाकुर छोड़कर) में हीरो बने थे, वहां आज उनकी पोजीशन गड़बड़ा चुकी है।

बीजेपी के साथ दस साल का राजनीतिक गतिरोध इतना गहरा है कि उसे पाटने में बड़े ही पुरुषार्थ की आवश्यकता होगी। दिमनी के ब्राह्मण वर्ग में भी विधायक के भाई को लेकर खासी शिकायतें हैं। कमलनाथ के दौर में विधायकों को जो अतिशय आजादी ट्रांसफर, पोस्टिंग और दूसरे कामों के लिये मिली थी उसका रिफ्लेशन कमोबेश दिमनी सहित उन सभी सीटों पर स्पष्ट महसूस किया जा सकता है, जहां उपचुनाव होने जा रहे हैं।

गिरिराज डंडोतिया को 2018 में दस साल की सक्रियता के अलावा जिगनी, काजीबसई, खड़ियार जैसे गांवों में फैले करीब दस हजार मुस्लिम वर्ग के अधिकतर वोट मिले थे। करीब 40 फीसदी जाटव वोट भी उन्हें कांग्रेस निशान पर मिला था। अब वे बीजेपी के सिंबल पर लड़ेंगे तो यह दोनों वोट किसी भी कीमत पर नहीं मिलने वाले है।

चूंकि 2008 से यहां बीजेपी के शिवमंगल तोमर लड़ते आ रहे हैं, इसलिए बीजेपी संगठन में भी जातीय विभाजन साफ दिखाई देता है। ऐसे में बीजेपी के तोमर कार्यकर्ता कैसे गिरिराज का झंडा उठाएंगे? चूंकि टिकट गिरिराज को ही मिलनी है इसलिए बीजेपी के लिए यह उम्‍मीदवारी बेहद ही सिरदर्दी का सबब भी बन गई है। बसपा के उपचुनाव लड़ने से उसकी कुछ आश बंधी है, पर यह नाकाफी है ।

उधर कांग्रेस रविन्द्र तोमर भिडोसा, रक्षपाल सिंह तोमर, वीरेंद्र सिंह तोमर और मधुराज सिंह तोमर के बीच किसी को अपना कैंडिडेट बनाने की जुगत में है। रविन्द्र तोमर एक मजबूत उम्मीदवार हैं, लेकिन सिंधिया के प्रति निष्ठा उनकी राह में आड़े आ सकती है। हालांकि वे 2018 में टिकट कटने के बाद से डॉ. गोविंद सिंह और दिग्विजय सिंह के सम्पर्क में भी है। कांग्रेस के लिए एक मजबूत पक्ष यह है कि उसके टिकट पर अभी तक कोई तोमर कैंडिडेट चुनाव नहीं जीता है। अगर इनमें से कोई भी प्रत्याशी बनाया जाता है तो न केवल तोमर वोट बल्कि गुर्जर, मुस्लिम और किरार वोट लामबंद हो सकता है।

दिमनी के गांवों में गिरिराज के दलबदल को लेकर भी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं है। कांग्रेस के लिए यहां बसपा संकट का कारण बन सकती है क्‍योंकि तोमर कैंडिडेट अगर बसपा ने उतारा तो समीकरण गड़बड़ा सकते है। बसपा अगर कैडर को एक्टिव करके लड़ती है तो कांग्रेस के लिए कठिनाई तय है। बसपा के साथ रणनीतिक सौदेबाजी जो भी दल कर लेगा, उसकी सहूलियत कुछ बढ़ेगी पर यहां मुकाबला बेहद कड़ा होगा। जिसमें फिलहाल बीजेपी और गिरिराज के लिए मुश्किलें ज्यादा नजर आ रही हैं।

गुर्जर, किरार, लोधी और दूसरी ओबीसी जातियों के ध्रुवीकरण से ही यहाँ हारजीत की पटकथा लिखी जाएगी।

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टीम मध्‍यमत

 

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