सच पूछें तो हम गांधी से दूर ही होते गए हैं

महात्‍मा गांधी की 150वीं जयंती मनाने वालों को 2 अक्‍टूबर 2019 के तमाम अखबार और अन्‍य पत्र-पत्रिकाएं संभालकर रख लेनी चाहिए। इसलिए नहीं कि इनमें गांधी के जीवन, कर्म और विचार एवं दर्शन से संबंधित विविध सामग्री प्रकाशित/प्रसारित हुई है, बल्कि इसलिए कि गांधी की 150वीं जयंती के जश्‍न की खबरों के साथ ही सुप्रीम कोर्ट के एक महत्‍वपूर्ण फैसले की खबर भी इसी दिन प्रमुखता से प्रकाशित/प्रसारित हुई है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की यह खबर गांधी के समग्र जीवनकाल और गांधी के अवसान के बाद के कालखंड में भारत के सामाजिक धरातल की असली तसवीर उजागर करती है। यह खबर उन सभी लोगों के लिए आईना है जो गांधी के समय से लेकर आज तक गांधी के नाम पर बड़ी बड़ी बातें और तकरीरें करते आए हैं, गांधी के विचारों और गांधी-दर्शन के कसीदे पढ़ते आए हैं।

दरअसल 1 अक्‍टूबर 2019 को यानी गांधी की 150वीं जयंती से ठीक एक दिन पहले भारत के सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) अधिनियम में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक के फैसले के खिलाफ सरकार की पुनर्विचार अर्जी पर फैसला सुनाया। इस फैसले में तीन जजों की बेंच ने पिछले साल दिए गए दो जजों की बेंच के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें एससी/एसटी एक्‍ट में बिना जांच के तत्‍काल गिरफ्तारी के प्रावधान पर रोक लगा दी गई थी।

20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एससी/एसटी एक्ट में केस दर्ज होने पर बिना जांच के तत्काल गिरफ्तारी उचित नहीं है। न्‍यायिक समीक्षा के दौरान यदि ऐसा लगता है कि मामले के पीछे बदनीयती है तो मामले में जमानत भी दी जा सकती है। अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ़्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति ज़रूरी होगी और यदि वह सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ्तारी के लिए एसएसपी की सहमति ज़रूरी होगी।

इसके अलावा जस्टिस ए.के. गोयल और यू.यू. ललित की बेंच ने कुछ और महत्‍पूर्ण ऑब्‍जर्वेशन भी रखे थे। उनका कहना था कि संविधान बिना जाति या धर्म के भेदभाव के सभी की बराबरी की बात कहता है। कानून बनाते वक्त संसद का इरादा यह नहीं था कि इसे ब्लैकमेल या निजी बदले के लिए इस्तेमाल किया जाए। या फिर सरकारी कर्मचारियों को काम से रोका जाए। अगर अग्रिम ज़मानत से मना कर दिया गया तो निर्दोष लोगों को बचाने वाला कोई नहीं होगा। अगर किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो अदालत निष्क्रिय नहीं रह सकती। ये ज़रूरी है कि मूल अधिकारों के हनन और नाइंसाफ़ी को रोकने के लिए नए साधनों और रणनीति का इस्तेमाल हो।

अदालत के इस फैसले के बाद देश में राजनीतिक और सामाजिक तूफान उठ खड़ा हुआ था और देश के विभिन्‍न भागों में हुई हिंसक झड़पों में 9 लोग मारे गए थे। बढ़ते राजनीतिक दबाव के आगे सरकार को झुकना पड़ा था और कोर्ट के आदेश को दरकिनार करने वाला एक संशोधित विधेयक अगस्‍त 2018 में संसद से पास करवाने के साथ ही सरकार ने अदालत में एक याचिका लगाई थी कि कोर्ट अपने पुराने फैसले को वापस ले।

उसी याचिका का निपटारा करते हुए 1 अक्‍टूबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अरुण मिश्रा, एम.आर.शाह और बी.आर. गवई की बेंच ने पुराने फैसले को पलटते हुए कहा कि एससी/एसटी के लोगों को अभी भी देश में छुआछूत और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है। उनका अभी भी सामाजिक रूप से बहिष्कार किया जा रहा है। देश में समानता के लिए अभी भी उनका संघर्ष खत्म नहीं हुआ है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में कुछ और महत्‍वपूर्ण बातें कही हैं जिन पर ध्‍यान देना बहुत जरूरी है। कोर्ट ने कहा- दलितों ने लंबे समय तक पीड़ा झेली है। हम उन्‍हें संरक्षण नहीं दे सकते तो ऐसे हालात भी नहीं बना सकते कि असमानता बढ़े। यह मानना कि बदला लेने या पैसे ऐंठने के लिए एससी/एसटी के लोग कानून का दुरुपयोग करेंगे, बुनियादी मानवीयता के खिलाफ होगा।

और इसके बाद कोर्ट ने जो कहा, वह खासतौर से आज के समय में गांधी को याद करने वालों के लिए जानना बहुत जरूरी है। कोर्ट का कहना था- 70 साल से सरकार का इरादा छुआछूत खत्‍म करने का तो रहा है, लेकिन क्‍या यह खत्‍म हुई? नहीं। हम हरिजनों को मैला ढोने के लिए आधुनिक संसाधन तक नहीं दे पाए। क्‍या दलित उच्‍च वर्ग से हाथ मिला सकता है? क्‍या इस स्थिति के लिए हम जिम्‍मेदार नहीं हैं? इसका जवाब हम अंतरात्‍मा में झांककर ही ढूंढ सकते हैं।

और यही वह बिंदु है जहां आकर गांधी को लेकर दिखावटी श्रद्धा और बयानबाजी करने वालों की नकाब उतर जाती है। जब गांधी के अवसान के 71 साल बाद भी सुप्रीम कोर्ट यह पूछ रहा है कि क्‍या देश से छुआछूत खत्‍म हुई? तो यह सीधा सीधा प्रमाण है इस बात का कि गांधी को हमने सिर्फ बातों तक ही समेट कर रखा है आचरण और कर्म से गांधी आज भी कोसों दूर हैं।

गांधी ने देश की आजादी के लिए किए गए अपने प्रयासों के साथ भारत की सामाजिक स्थिति और वैषम्‍य को सुधारने के प्रयास भी समानांतर रूप से किए थे और इनमें उनका सबसे बड़ा अभियान छुआछूत मिटाने का था। पर गांधी के जाने के सात दशक बाद भी मसला यदि वहीं का वहीं है तो फिर तो हमें गांधी नाम लेने तक का हक नहीं बनता।

दरअसल गांधी को उनके अवसान के बाद ही आचरण के धरातल पर तिलांजलि देने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। कालांतर में वे मौजूद तो रहे लेकिन शोभा की वस्‍तु बनकर। गांधी ने अपने जीवनकाल में छुआछूत और सामाजिक वैषम्‍य को समाज की आपसी समझ के आधार पर ही दूर करने की कोशिश की थी लेकिन बाद की सरकारों ने यह काम कानून के जोर से या कानून के बूते पूरा करने का रास्‍ता अपना लिया।

इसके साथ ही एक और विकृति यह आई कि जिस सामाजिक असमानता को गांधी ने देश के लिए अभिशाप माना था वह राजनीति का और सत्‍ता प्राप्ति का टूल बन गई। यही कारण है कि चाहे गांधी हों या आंबेडकर, दोनों के समाज उद्धार के प्रयासों को आज हम पलीता लगते हुए देख रहे हैं। गांधी ने अछूतोद्धार के साथ जिस सामाजिक समानता और सद्भाव की कल्‍पना की थी वह आज राजनीति की कुटिल चालों का शिकार होकर नए किस्‍म की असमानता और सामाजिक वैमनस्‍य में तब्‍दील होता जा रहा है। ऐसे में हम लाख गांधी की 150वीं जयंती का जश्‍न मना लें, उससे क्‍या होने वाला है?

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