तो गांधी को 150 साल हो गए। देश में आज गांधी को जोर-शोर से याद किया जाएगा। कुछ लोग ‘भक्ति’ भाव से याद करेंगे तो कुछ लोग ‘विवश’ भाव से। हो सकता है आज के दिन मेरा यह कथन कई लोगों को बुरा या अनुचित लगे, लेकिन मैं समझता हूं आज हम यदि गांधी को याद कर रहे हैं तो उसके पीछे अधिकांशत: हमारा कोई स्वार्थ जुड़ा है। फिर भले ही उस स्वार्थ को हम गांधी ‘भक्ति’ के रूप में देखें या फिर गांधी ‘विवशता’ के रूप में।
मुझे ठीक ठीक तो पता नहीं कि यह मुहावरा कब और किसने गढ़ा कि ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ लेकिन आज गांधी दर्शन या गांधी विचार की बॉटम लाइन यही है कि गांधी हमारी मजबूरी हैं। गांधी हैं तो हम शांति और अहिंसा की अपनी परंपरा को आधुनिक काल तक लाते हुए दुनिया के सामने कह सकते हैं कि यह बुद्ध और गांधी का देश है। ऐसा इसलिए कि बुद्ध के करीब 2350 साल बाद आए गांधी बुद्ध की ही परंपरा और दर्शन को आधुनिक संदर्भों में आगे बढ़ाते नजर आते हैं।
हमारी आज की पीढ़ी को शुक्रगुजार होना चाहिए कि बुद्ध और गांधी के भारत में हो जाने के कारण ही, उनके अवसान के इतने सालों बाद भी हमारे पास सिर उठाकर दुनिया को अपनी विशिष्टता बताने के कुछ ठोस कारण मौजूद हैं। यूं तो समूची भारतीय संस्कृति और परंपरा को ही हम सर्वश्रेष्ठ सभ्यता निरूपित करते रहे हैं, लेकिन बुद्ध और गांधी के कारण हम उस संस्कृति की प्रामाणिकता व सार्थकता को उदाहरण सहित सिद्ध करने की स्थिति में भी होते हैं। शायद इसीलिये हम कह पाते हैं कि भारत ‘युद्ध का नहीं बुद्ध’ का देश है।
लेकिन जैसाकि मैंने कहा बुद्ध हों या गांधी, अब ये अकसर हमारे लिए अपने चेहरे के दाग छुपाने या मिटाने के लिए फेसपैक के रूप में ही इस्तेमाल होते हैं। उनका उल्लेख या तो हम किसी भी आक्रमण से बचाव के लिए ढाल के रूप में करते हैं या फिर मजबूरी में। इस लिहाज से हमें भारत की राजनीति का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने अन्यान्य कारणों से ही सही किसी न किसी रूप में गांधी को बचाए रखा है। लेनिन की तरह हमने उनकी मूर्तियों को उखाड़ नहीं फेंका है।
पर क्या सचमुच आज का भारत गांधी का देश है? हमारी बातों में जरूरत के हिसाब से गांधी का तड़का जरूर है लेकिन क्या गांधी हमारे आचरण में हैं? क्या गांधी इन 150 सालों में भारतीय नस्ल के डीएनए का हिस्सा बन पाए हैं? यथार्थवादी आकलन करें, जिसकी भारतीय समाज को कभी आदत नहीं रही, तो इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। पर चूंकि हम प्रदर्शन के स्तर पर आस्थावादी समाज हैं, इसलिए हम दावा जरूर करेंगे कि गांधी तो भारत की आत्मा हैं। और आत्मा ही नहीं बल्कि ‘महात्मा’ हैं।
गांधी को लेकर भारत में जिस तरह का आचरण हो रहा है, कहना मुश्किल है कि स्वयं गांधी होते तो इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया देते। लेकिन गांधी के बारे में जितना कुछ पढ़ने के लिए उपलब्ध है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि वे शायद कहते- मूर्खों तुम ये कर क्या रहे हो? मैंने ऐसा तो नहीं कहा था? गांधी ने स्वयं की भक्ति कभी नहीं चाही। वे स्वयं आधुनिक और वैज्ञानिक सोच रखने वाले ऐसे स्वतंत्रचेता व्यक्ति थे जिसने भारत की भावभूमि को समझकर अपने विचार दुनिया के सामने रखे।
गांधी का अर्थ न तो गांव है न चरखा, न झाड़ू है और न शौचालय। गांधी का अर्थ है सत्य पर आधारित एक ऐसा समाज जो अपने बुनियादी मूल्यों को बनाए रखते हुए, समय के साथ आधुनिक बने। गांधी के पास प्रगतिशीलता, आधुनिकता या वैज्ञानिक सोच के विरोध का कोई स्थान नहीं है। उलटे वहां हर स्तर पर इसके स्वीकरण का आग्रह है। लेकिन गांधी की जब भी बात होती है ज्यादातर मामलों में बहुत रूढि़वादी होकर होती है।
हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम अंधआस्थावादी समाज हैं। जिस गांधी ने स्वयं सत्य के साथ प्रयोग किए उस गांधी को हम उसके कालखंड में ही रख देने के आग्रही नजर आते हैं। पिछले साल एक कार्यक्रम के सिलसिले में सेवाग्राम जाना हुआ था। वहां गांधी आश्रम में टेलीफोन भी रखा मिला और बॉथ टब भी। चरखा भी था और टाइपराटर भी। तो गांधी केवल सूत और चरखे तक सीमित रख देने वाला व्यक्तित्व नहीं है। हैरानी होती है जब हम गांधी जयंती पर गांधी को याद करते हुए चरखा चलाने का दिखावा करते हैं।
दरअसल गांधी के कर्म और उनका आचरण एक प्रतीक या संदेश के रूप में है। जैसे चरखा स्वावलंबन का। अब आज यदि हम गांधी को याद करने के लिए चरखा चलाएं तो उसका कोई अर्थ नहीं जब तक कि हम उसके पीछे छिपी स्वालंबन की भावना को अपने कर्म और आचरण में नहीं अपनाते। गांधी न तो भारतीय करेंसी का चेहरा हैं और न ही कोई राजनीतिक नारा। वे एक ऐसा संदेश हैं जिसमें कर्म और आचरण में सत्यनिष्ठा और शुद्धता बनाए रखने का आग्रह है।
इन दिनों एक और अजीब वातावरण बना दिया जा रहा है और वह है अपनी अपनी मान्यताओं को लेकर कट्टरवादी होने का। गांधी को लेकर ही कई लोग कट्टरवादी हो चले हैं। जबकि गांधी के अपने समकाल में ही उनके आसपास कई नेता ऐसे थे जो उनके विचारों और कार्यशैली से इत्तफाक नहीं रखते थे। इनमें सुभाषचंद्र बोस से लेकर बाबासाहब आंबेडकर जैसे नाम शामिल थे। लेकिन आज हमने गांधी के उदारवादी दृष्टिकोण के उलट, यह मान लिया है कि गांधी आलोचनाओं या समीक्षा से परे हैं।
कोई भी महापुरुष हो वह अपनी तमाम महानताओं के बावजूद हर कालखंड में तत्कालीन पीढ़ी या समाज द्वारा नए सिरे से मूल्यांकित और पुनर्व्याख्यायित किया जाता रहा है। किसी भी समाज के जड़ न होने का एक प्रमाण यह भी है कि यह सिलसिला बगैर किसी दुर्भाव या पूर्वग्रह के चलते रहना चाहिए। गांधी पर भी नई दृष्टि की ओर से आंख मूंद लेना स्वयं गांधी के साथ ही अन्याय होगा।
गांधी को यदि भारत में, और जब मैं भारत में कहता हूं तो उसका अर्थ भारत की किताबों या अखबारों में नहीं, बल्कि भारत के समाज से है, जिंदा रखना है तो हमें आज गांधी को पुनर्व्याख्यायित, पुनर्परिभाषित और पुनर्आविष्कृत करना होगा। ताकि वे आने वाली कई शताब्दियों तक प्रासंगिक बने रहें। आप गांधी से सहमत हों अथवा नहीं, लेकिन याद रखें, गांधी न तो राजनीति का टूल हैं और न ही किसी मेगासेल में बिकने वाला आइटम। दुर्भाग्य से हम गांधी को अमल में लाने के बजाय हर जगह उन्हें बेचने या उनसे ‘मुनाफा’ कमाने में लगे हैं।