इस बार की दिवाली हालांकि बीत चुकी है लेकिन उसकी स्मृतियां अभी कुछ दिन बनी रहेंगी। दरअसल हममें से कई लोग ऐसे होंगे जिनके जेहन में कई खास दिवालियां आज भी वैसी की वैसी रखी होंगी जैसे उन्होंने 30, 40 या 50 साल पहले मनाई होंगी। त्योहार हमें बहुत सी बातों को बहुत सी बातों से कनेक्ट करने का अवसर भी देते हैं। आज भी 60 साल से ऊपर की आयु वाली, घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं किसी घटना या किसी व्यक्ति विशेष के बारे में जानकारी देते हुए उसे किसी त्योहार से जोड़कर बताती हुई मिल जाएंगी।
जैसे यदि किसी बुजुर्ग महिला से आप पूछें कि परिवार में फलां घटना कब हुई थी, तो वे तारीख भले ही ठीक ठीक न बता सकें लेकिन वे यह जरूर बता देंगी कि अरे वो तो ऐन दिवाली के दिन ही हुई थी या फिर दशहरे से दो दिन पहले परिवार में वो प्रसंग हुआ था। ऐसे ही वे उम्र की गणना भी घटनाओं को जोड़कर करती हैं। किसी की उम्र पूछे जाने पर हो सकता है आपको यह जवाब मिले कि मामा की शादी में वो दो साल का था। या कि इसका उलटा कि जब वो दो साल का था तब उसके मामा की शादी हुई थी।
गूगल ने आज बहुत सी बातों को इस तरह दिमाग में दर्ज करने की आदत मिटा दी है। अब हमें कल की तो छोडि़ये आज की, थोड़ी ही देर पहले हुई कोई बात भी शायद याद न आए और उसके लिए भी हमें गूगल का सहारा लेना पड़े। आज आप भले याद रखें न रखें लेकिन फेसबुक आपको चित्र सहित बता देगा कि तीन साल पहले दिवाली के दिन आपने कौनसे कपड़े पहने थे या फिर कौनसी मिठाई खाई थी या कि कौनसा पटाखा चलाया था।
आज मशीनें आपके लिए हर प्रकार की गणनाएं एक क्लिक पर मुहैया कराने के लिए बैठी रहती हैं। आप सालों पुरानी बात को लेकर चंद सेकंड में यह पता लगा सकते हैं कि उस दिन कौनसा वार था, कौनसी तिथि थी और सूर्योदय अथवा सूर्यास्त उस दिन कब हुआ था। पहले ऐसी बातों का पता लगाने के लिए पंडित के पास उपलब्ध पंचाग ही एकमात्र माध्यम हुआ करता था।
लेकिन इस मशीनी याददाश्त और मानवीय याददाश्त में एक बहुत बड़ा अंतर है जिसे मशीनें शायद सात जनम भी हासिल नहीं कर सकतीं। वो है उन यादों से जुड़ी तरंगों व अहसासों के फिर से जिंदा हो जाने का। यकीन न हो तो आप किसी खास दिन को गूगल के जरिये सर्च करके देखिएगा और फिर किसी घटना को मन के या यादों के किसी तहखाने में टटोलिएगा। आपको वो चीज वहां उसी पुराने अहसास के साथ सुरक्षित मिलेगी। हो सकता है थोड़ी देर के लिए वह आपको बरसों पुराने उस कालखंड में भी ले जाकर खड़ा कर दे।
बचपन में दिवाली के दिन पटाखा चलाने से हाथ जल जाने वाली घटना हो या फिर फुलझड़ी से उड़ने वाले सितारों से नए कपड़ों में छेद हो जाने का हादसा। बरसों पहले किसी होली के दिन आंखों में रंग चले जाने की जलन कई बार आज भी महसूस हो आती होगी। ऐसे ही कई भाइयों ने बहन की पहली राखी अभी तक अपनी अलमारी सहेज कर रखी होगी।
दिवाली की साफ सफाई के दौरान यादों और उनसे जुड़े संवेदनाजन्य हादसों की भी लंबी सूची है। कई बार ऐसे ऐसे सामान मिल जाते हैं जिनके बारे में आप तो कभी के भूल चुके होंगे, लेकिन जैसे ही वह चीज हाथ में आती है, फिर वह आपका हाथ पकड़कर अपने साथ आपको आपके इतिहास में घुमाने निकल जाती है।
ऐसे मौकों पर अकसर ऐसा होता है कि आप उस पुरानी चीज से जुड़ी यादों के भावावेश में बहकर उसे अपनी टेबल पर सजाने या किसी दीवार पर टांग देने का मन बनाते हों लेकिन घर के बाकी लोग उसे बेकार की पुरानी चीज बताकर आपको ऐसा करने से मना कर देते हों। मन मसोसकर आप उस चीज को किसी और दिवाली की साफसफाई के दौरान निकालने के लिए दुबारा यादों के तहखाने में रख भले ही देते हों लेकिन कुछ समय तक तो वह आपको विचलित या स्मृतिविभोर कर ही देती है।
अब तो वह जमाना नहीं रहा जब आपको अपना फोटो खिंचवाने के लिए किसी स्टूडियो में ही जाना पड़ता था। आज तो आप अपने मोबाइल के जरिये हर सेकंड को कैमरे में स्टिल फोटो या वीडियो के रूप में कैद कर सकते हैं, लेकिन उस जमाने में फोटोग्राफर के यहां खिंचवाए गए फोटो के अलबम जब दिवाली की साफ सफाई पर बाहर आते हैं, तो कई बार सारा कामकाज छुड़वाकर आपको घंटों अपने साथ उनके पन्ने उलटने पलटने में व्यस्त करवा देते हैं।
और ये अलबम भी बड़ी चमत्कारिक चीज होते हैं। वक्त देखते हैं न वार, मौका देखते हैं न दर्शक… पन्ने पलटते-पलटते कई बार ऐसी-ऐसी तसवीरें सबके सामने उघाड़कर रख देते हैं जिन्हें आप कभी किसी दूसरे के सामने न तो देखना चाहें और न किसी दूसरे को दिखाना चाहें। और जब एक बार वह तसवीर सबके सामने शेयर हो गई फिर आप खुद से ही नजरें चुराते या झेंपते हुए दाएं बाएं होने लगते हैं।
मुश्किल तो तब होती है जब किसी खास फोटो या किसी खास चीज के निकल आने पर, घर के बड़े बूढ़े आपको लेकर उससे जुड़ी घटनाओं को बयान करने लगते हैं। एक तरफ घर के बाकी लोग चटखारे लेकर वह किस्सा सुन रहे होते हैं और दूसरी तरफ आप मन ही मन कुढ़ते हुए यह सोच रहे होते हैं कि आखिर नानी या दादी इस किस्से को कब खत्म करेंगी।
पर ऐसे किस्सों की वजह से ही हमारी जिंदगी में रस और संवेदनाएं हैं। त्योहारों का धार्मिक महत्व अपनी जगह है लेकिन वे हमें सामाजिक और पारिवारिक बनाए रखने में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं। इसी तरह यादें भी हमें इंसान बनाए रखने में बहुत मदद करती हैं। भले ही हम उन्हें किसी संदूक की सबसे निचली सतह पर दबा दें या किसी गहरे तहखाने में पटक दें, पर वे जब भी निकलती हैं तो हमारा वर्तमान भी उनसे विचलित हुए बिना नहीं रहता। इसलिए कोशिश करिए जिंदगी के हर उत्सव और आनंद को सहेजकर रखने की। हर सुख-दुख को किसी पोटली में सुरक्षित रखने की… क्योंकि ऐसी चीजें भले ही सनद न रहें पर वक्त बेवक्त बहुत काम आती हैं…