नोबल कथा- 8
दिवाली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। इस त्योहार को मनाए जाने के पीछे तरह तरह की कथाएं जुड़ी हुई हैं। मोटे तौर पर इसे लक्ष्मी यानी धन की देवी की पूजा के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। दिवाली के साथ एक कथा राम के वनवास से वापस अयोध्या लौटने की भी जुड़ी है। कथाएं और परंपराएं जो हों लेकिन कुल मिलाकर दिवाली धनधान्य, संपदा, समृद्धि और ऐश्वर्य की कामना से जुड़ा त्योहार है। इस त्योहार के मौके पर गरीबों की बात करना त्योहार की अवमानना की श्रेणी में माना जा सकता है।
लेकिन हमारे त्योहार आखिर किसके लिए हैं? क्या सिर्फ उन चंद लोगों के लिए जिनके पास संपदा और ऐश्वर्य के हर संसाधन मौजूद हैं या फिर उन सबके लिए जो इस भारतीय समाज का हिस्सा हैं। फिर चाहे वे अमीर हों या गरीब। तमाम विसंगतियों, विरोधाभासों और असमानताओं के बावजूद बंगाली कवि चंडीदास की कविता की ये लाइनें भारतीय समाज के चरित्र पर बिलकुल सटीक बैठती हैं कि- उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र। आधुनिक समय के चर्चित भारतीय विचारक रजनीश ‘ओशो’ ने इसी नाम से एक किताब भी लिखी है।
तो उत्सवधर्मिता और आनंद हमारा मूल स्वभाव है और विडंबना देखिये कि बाजार हमारी इसी प्रकृति को निचोड़ने के तमाम हथकंडों को अपनाकर फलता फूलता रहा है। ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत जिस बात की है वह है मानव श्रम का मूल्य समझना। इंसेंटिव देकर काम निकालने के बजाय लोगों को उचित बात के प्रति ‘इनिशिएटिव’ लेने के लिए प्रेरित करना।
मैं आपको दो तीन उदाहरण बताता हूं। दिवाली से पहले देश में चौतरफा ये खबरें चल रही थीं कि हम भारी मंदी की चपेट में है और बाजार चौपट है। लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में दिवाली से ऐन पहले के एक महीने के अखबार आप उठाकर देखें तो पाएंगे कि उनमें बाजार की ओर से दिए गए पूरे पूरे पेज के विज्ञापन भरे पड़े हैं। और सबसे हैरान कर देने वाली बात ये है कि इनमें से ज्यादातर विज्ञापन हीरे जवाहरात और सोने के गहनों और लाखों रुपए कीमत वाले वाहनों के हैं। और ये विज्ञापन सिर्फ अखबारों में ही नहीं थे, करीब करीब सभी एफएम रेडियो चैनल इन्हीं वस्तुओं के विज्ञापनों से अटे पड़े थे। तो आखिर वे कौन लोग हैं जो ये हीरे जवाहरात और पचास, साठ, सत्तर लाख की गाडि़यां खरीद रहे हैं?
अब दूसरी तसवीर देखिए। हमारी कॉलोनी में चार पांच रोज पहले दिवाली के दिए का ठेला लेकर एक व्यक्ति गुजरा। दिवाली पूजा के बाद रात भर जलने वाले बड़े दिये का दाम पूछने पर उसने उसकी कीमत 50 रुपए बताई। मोहल्ले की महिलाओं का मानना था कि यह कीमत बहुत ज्यादा बताई जा रही है। खैर उस ठेले वाले से छोटे दिये ले लिए गए पर बड़े दिये नहीं। पत्नी ने मुझसे घर से थोड़ी ही दूर कुम्हारों की बस्ती से बड़ा दिया ले आने को कहा।
सबसे पहली बात जो मैंने कुम्हारों की दुकानों पर देखी वो यह थी कि हर साल की तुलना में वहां माल कम था। खैर एक महिला से मैंने बड़े दिये की कीमत पूछी तो उसने कहा 10 रूपए। मैंने चौंक कर उसी का वाक्य दोहरा दिया ‘दस रुपए?’ मैं चौंका इसलिए था क्योंकि घर से सिर्फ 500 मीटर की दूरी पर एक ही वस्तु के दाम में पांच गुना का अंतर था। लेकिन मेरे सवाल को दिये बेचने वाली महिला ने शायद दूसरे ढंग से लिया, उसने कहा कितने लेना हैं, एक दो रुपए कम दे देना… यानी पचास रुपए में बेचे जा रहे दिये की कीमत दस रुपए बताने के बाद भी वह महिला एक दो रुपए और कम करके दिया बेचने को राजी थी।
मैंने दस रुपये में ही बड़ा दिया लिया। बाद में दिवाली के मौके पर बड़ी संख्या में लगने वाले छोटे दियों की कीमत पूछी तो उसने कहा 25 के 25… यानी एक रुपए में एक दिया। मैंने 25 दिये खरीदे और पूछा कैसी चल रही है दिवाली की बिक्री? महिला ने जवाब दिया, बहुत मुश्किल है साहब, इस बार बारिश ने सब चौपट कर दिया, एक तो मिट्टी गीली थी और थोड़े बहुत दिये जो बना पाए वे सूखे भी नहीं। तो फिर ये दिये कहां से आए? महिला ने बताया कुछ पिछले साल के रखे थे और कुछ हमने बाहर से मंगवाए हैं…
मैं सोचता रहा, इस एक रुपए के दिये की कीमत में आखिर उस बनाने वाले को क्या मिला होगा। जाहिर है जब यह कहीं और से आकर भोपाल के बाजार में एक रुपए प्रति नग के हिसाब से बिक रहा है तो मूल कुम्हार, जिसने वह दिया बनाया होगा उसने तो उसे शायद पांच दस पैसे प्रति नग से ज्यादा कीमत पर नहीं बेचा होगा। अब सोचिए, मिट्टी भले ही उसने कहीं से मुफ्त में खोद ली होगी, फिर भी उसे चाक पर चढ़ाने के लिए तैयार करने से लेकर दिये का आकार देने तक और उसके बाद सुखाकर, पकाकर और गेरुआ रंग पोतकर बेचने लायक बनाने का खर्च तो किया ही होगा। मोटा अंदाज लगाएं तो इस हिसाब से उसे एक दिये की कीमत ज्यादा से ज्यादा दो या तीन पैसे मिली होगी।
तो जरूरत किस बात की है? हमें ऐसे लोगों के श्रम और हस्तशिल्प का उचित मूल्य मिलने की व्यवस्था करनी चाहिए या फिर उन्हें मुफ्त में राशन पानी देकर और अधिक पराश्रित बनाने की। गरीब इस तरह की भीख नहीं चाहता, वह अपने काम का, अपने श्रम का उचित मूल्य चाहता है। हर बात में ‘इंसेंटिव’ देकर या ‘मुफ्त’ की राजनीति कर हम उसे शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर भिखारी बना रहे हैं।
दुर्भाग्य देखिये कि दिवाली के मौके पर देश की चिंता यह नहीं है कि इस बार हुई भारी बारिश के चलते दिवाली पर हर साल ठीक ठाक कारोबार कर लेने वाले कुम्हारों का क्या होगा, गेंदे के फूल उगाकर इस मौके पर बेच लेने वाले किसानों का क्या होगा… चिंता इस बात की हो रही है कि हरियाणा में सरकार कैसे बनेगी? अयोध्या में इस बार 551000 दिये जलेंगे जरूर लेकिन कोई यह नहीं पूछेगा कि दो पैसे में दिया बेचने वाले उस कुम्हार के घर रोशनी हुई या नहीं… देश को अर्थशास्त्र का नोबल मिला यह गर्व की बात है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अर्थशास्त्र से गरीब को क्या मिला?