बच्‍चों के लिए बहुत कठिन है डगर ‘नर्सरी’ की

देश के कई राज्‍यों में यह समय पहली पहली बार स्‍कूल जाने वाले बच्‍चों के लिए एडमिशन की जद्दोजहद का समय है। इन्‍हीं दिनों में 3 से 4 साल के बच्‍चों के मां बाप अपनी संतानों के लिए स्‍कूलों की मुंहदिखाई की रस्‍म अदा करते हैं। प्‍ले स्‍कूल हों या नर्सरी स्‍कूल, बच्‍चों को औपचारिक शिक्षा के माहौल में ढालने की शुरुआत यहीं से होती है। लेकिन यह समय मां-बाप से भी ज्‍यादा बच्‍चों के लिए संवेदनशील होता है।

वर्तमान समय में शहरों, खासकर महानगरों में माता-पिता के पास बच्‍चों के लिए समय नहीं होता। लिहाजा उनका स्‍कूल में एडमिशन करा देना उनके लिए सुकून हासिल करने जैसा भी होता है। इससे उन्‍हें अपनी अपनी नौकरियों में काम के घंटे पूरे करने का मौका मिल जाता है। इस दृष्टि से भी नर्सरी में एडमिशन के लिए बच्‍चों की उम्र बहुत महत्‍वपूर्ण फैक्‍टर है।

वैसे तो शिक्षा के नाम पर देश भर में हर जगह कोई न कोई प्रयोग चल ही रहा है, लेकिन इस मामले में दिल्‍ली की आम आदमी पार्टी सरकार कुछ ज्‍यादा ही सक्रियता दिखा रही है। वहां नर्सरी में एडमिशन के लिए करीब-करीब हर साल नई पॉलिसी या नए दिशानिर्देश आ जाते हैं। दिल्‍ली में एडमिशन की मारामारी इतनी है कि मां बाप को अपने बच्‍चे का मनचाहे स्‍कूल की नर्सरी कक्षा में एडमिशन कराने के लिए जमीन आसमान एक कर देना पड़ता है।

इस साल दिल्‍ली से जो खबरें आई हैं वे बताती हैं कि इस बार चार वर्ष की उम्र से ऊपर के बच्‍चों का नर्सरी कक्षा में प्रवेश नहीं कराया जा सकेगा। स्‍कूलों में एंट्री लेवल की कक्षाओं में प्रवेश के लिए अधिकतम आयु सीमा की नई शर्त अभिभावकों के लिए मुश्किल का सबब बन सकती है।

शिक्षा विभाग के अधिकारियों के अनुसार करीब 1700 स्कूलों की सवा लाख सीटों के लिए प्रवेश की प्रक्रिया एक जनवरी से शुरू होगी। प्रक्रिया के तहत इस बार से नर्सरी के प्रवेश में अधिकतम आयु सीमा की शर्त लागू की जा रही है। अब 3 से 4 साल के बच्चे नर्सरी, 4 से 5 साल के केजी और 5 से 6 साल के बच्चे कक्षा एक के लिए प्रवेश ले सकते हैं। आयुसीमा की गणना 31 मार्च के हिसाब से की जाएगी।

विशेषज्ञों का कहना है कि अधिक‍तम आयु सीमा की यह शर्त कई अभिभावकों के लिए मुश्किल का सबब बन सकती है, क्‍योंकि कई लोग ऐसे हैं जिन्‍होंने पिछले साल अपने बच्‍चों का एडमिशन इसलिए नहीं करवाया था क्‍योंकि नर्सरी के लिए उन्‍हें 3 साल का अपना बच्‍चा छोटा लगता था, लेकिन अब यदि 31 मार्च की गणना के हिसाब से उनका बच्‍चा चार साल से जरा भी ऊपर है तो उसे नर्सरी में प्रवेश नहीं मिल पाएगा।

अब जरा स्थिति देखिए… हम शिक्षा के स्‍तर, उसकी गुणवत्‍ता और बच्‍चों के बस्‍ते के बोझ जैसे कई मुद्दों को आज तक सुलझा नहीं पाए हैं, लेकिन बच्‍चों को स्‍कूल में प्रवेश किस उम्र से देना चाहिए इस मामले में भी देश में एकरूपता की स्थिति नहीं बन पा रही है। कहीं सरकारों के नियम बाधा बन रहे हैं तो कहीं कोई नियम न होने से निजी स्‍कूल मनमाने तरीके से प्रवेश दे रहे हैं।

इन हालात में बच्‍चों के मां बाप की मानसिक स्थिति‍ क्‍या होती होगी, उसका अंदाज लगाया जा सकता है, लेकिन उनसे भी ज्‍यादा बच्‍चों पर कितना मनोवैज्ञानिक दबाव रहता होगा। शिक्षा बच्‍चे के जीवन की नींव रखने की शुरुआत है, वहां उठाया गया पहला ही कदम यदि जरा भी दाएं बाएं हुआ तो आगे चलकर बच्‍चे को उसके कितने व कैसे दुष्‍परिणाम भुगतने होंगे कोई नहीं जानता।

आजकल एक और धारा चल रही है, बच्‍चों को छह सात साल, यानी उसकी ठीक ठाक समझ विकसित न होने तक स्‍कूल ही न भेजने की। इंदौर में हमारे एक परिचित वरिष्‍ठ पत्रकार ने तो अपनी पोती को स्‍कूल भेजने के बजाय घर पर ही पढ़ाने का फैसला किया है। उनका कहना है कि स्‍कूल बच्‍चों का बचपन नष्‍ट कर रहे हैं। और फिर हम कौन होते हैं बच्‍चे पर अपना निर्णय थोपने वाले…

दरअसल प्‍ले स्‍कूल या नर्सरी बच्‍चों के लिए खेल खेल में सीखने सिखाने का उपक्रम है, लेकिन वहां भी बच्‍चों के साथ पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धति से ही व्‍यवहार होना चाहिए। अन्‍यथा नियमित स्‍कूल के बदले हुए माहौल में बच्‍चा खुद को एडजस्‍ट नहीं कर पाएगा। मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूं जिनकी बच्‍ची बहुत ही मेधावी, प्रतिभावान और चंचल थी, लेकिन प्‍ले स्‍कूल से निकलने के बाद जब उसका नियमित स्‍कूल में एडमिशन हुआ तो वह अचानक गुमसुम हो गई।

स्‍कूल के शिक्षक और अभिभावक इस बच्‍ची के व्‍यवहार में आए हुए बदलाव से बहुत परेशान थे और हैरान भी, क्‍योंकि जो बच्‍ची चंद रोज पहले अपनी चंचलता से नाक में दम कर देती थी, वही अब गूंगी गुडि़या की तरह व्‍यवहार कर रही थी। परिजन और शिक्षक बहुत बाद में जाकर इस बात का अहसास कर सके कि नियमित स्‍कूल के कायदे कानूनों ने बच्‍ची के मन को बांध दिया था। जबकि प्‍ले स्‍कूल में उसे हर काम अपनी मरजी से करने की आजादी थी।

इसलिए स्‍कूल की शुरुआत करते समय बच्‍चों की उम्र तीन साल हो या चार साल, यह देखने या तय करने से भी ज्‍यादा जरूरी है कि स्‍कूल का वातावरण उसके हिसाब से है या नहीं, वहां के शिक्षक उसकी बाल मानसिकता के हिसाब से व्‍यवहार कर सकने की योग्‍यता रखते हैं या नहीं। यदि ऐसा नहीं है तो बच्‍चे की बुनियाद ही डगमगाने का खतरा है।

इस बात की कल्‍पना करना ज्‍यादा कठिन नहीं है कि जिस भवन की बुनियाद ही डगमगाई हुई हो उस भवन की मजबूती कितनी होगी?

 

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