‘टाइम’ मैगजीन, तुम पत्रकारिता कर रहे हो या दलाली?

वैसे तो इस विषय पर कल यानी 30 मई को ही लिखा जाना चाहिए था जिस दिन ‘हिन्‍दी पत्रकारिता’ दिवस मनाया जाता है, लेकिन देर आयद दुरुस्‍त आयद। एक दिन बाद लिखने से भी विषय के महत्‍व और उसकी प्रासंगिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्‍योंकि पत्रकारिता से जुड़ा यह मामला ही ऐसा है जिस पर सिर्फ एक खास दिन तो क्‍या, चौबीसों घंटे सोचा जाना चाहिए।

प्रसंग अमेरिका से प्रकाशित होने वाली दुनिया की सबसे चर्चित पत्रिका ‘टाइम’ से जुड़ा है। आपको याद होगा भारत में जब चुनाव चल रहे थे तब मई के अंक में इस पत्रिका ने अपने एशिया एडिशन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लीड आर्टिकल प्रकाशित किया था। इसे पत्रिका के मुखपृष्‍ठ पर मोदी के फोटो और इन लाइनों के साथ दिया गया था- ‘India’s Divider in Chief’ (भारत का शीर्ष विभाजनकारी) इस आर्टिकल के लेखक आतिश तासीर थे और लेख में सवाल उठाया गया था कि- Can the World’s Largest Democracy Endure Another Five Years of a Modi Government?

उस समय इस आर्टिकल की दुनिया भर में बहुत चर्चा हुई थी। भारत में चूंकि ऐन चुनाव का वक्‍त था इसलिए विपक्षी दलों को इस लेख ने बहुत बड़ा हथियार दे दिया था और उन्‍होंने इसके बहाने मोदी पर जमकर निशाना साधा था। मैगजीन द्वारा, उठाया गया यह सवाल खूब चलाया गया कि क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार को आने वाले और पांच साल झेल सकता है?’

30 मई यानी हिन्‍दी पत्रकारिता दिवस के दिन भारत के मीडिया में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई है कि उसी टाइम मैगजीन की वेबसाइट में अब एक और आर्टिकल छपा है जिसका शीर्षक है ‘Modi Has United India Like No Prime Minister in Decade’

चंद रोज पहले मोदी को भारत का शीर्ष विभाजनकारी बताने वाली दुनिया की इस मशहूर पत्रिका का अचानक इस तरह उलटा घूमकर अब यह कहना लोगों को चौंका रहा है कि- ‘’अपने पहले कार्यकाल और इस मैराथन चुनाव दोनों में, मोदी की नीतियों पर बेहद तीखी और अक्सर अनुचित आलोचनाओं के बावजूद, पिछले पांच दशकों के दौरान किसी भी प्रधानमंत्री ने भारतीय मतदाताओं को इस तरह एकजुट नहीं किया है।‘’

(Yet despite the strong and often unfair criticisms leveled at Modi’s policies both throughout his first term and this marathon election, no Prime Minister has united the Indian electorate as much in close to five decades.)

इस आर्टिकल का एक और पैरा ध्‍यान देने लायक है जो कहता है- ‘’नरेंद्र मोदी का जन्म भारत के सबसे वंचित वर्गों में से एक में हुआ था। वे एक तरफ शीर्ष उपलब्धि का सपना पालने वाले कामकाजी वर्ग की प्रेरणा हैं तो दूसरी तरफ वे खुद को देश के सबसे गरीब और वंचित लोगों से जोड़ने का माद्दा भी रखते हैं। यह बात आजाद भारत के 72 सालों के दौरान, कई दशकों तक देश का नेतृत्व करने वाले नेहरू-गांधी खानदान के साथ कभी नहीं रही।

(Narendra Modi was born into one of India’s most disadvantaged social groups. In reaching the very top, he personifies the aspirational working classes and can self-identify with his country’s poorest citizens in a way that the Nehru-Gandhi political dynasty who have led India for most of the 72 years since independence simply cannot.)

इस आर्टिकल पर बात करने से पहले कुछ बातों को जान लेना जरूरी है। टाइम की वेबसाइट पर यह आर्टिकल विचार स्‍तंभ के तहत भारत के बारे में लिखे गए लेखों के कॉलम (Idea-India) में प्रकाशित किया गया है। इसके लेखक मनोज लाडवा का परिचय देते हुए मैगजीन ने खुद बताया है कि वे इंडिया इंक ग्रुप के संस्‍थापक और सीईओ हैं और 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान के रिसर्च, एनालिसिस और मैसेजिंग डिविजन का नेतृत्‍व कर चुके हैं।

अब जरा वेबसाइट के ‘टाइम-आइडिया’ स्‍तंभ के बारे में कुछ जान लीजिए। मनोज लाडवा के लेख के ठीक नीचे एक तरह से डिस्‍क्‍लेमर के अंदाज में लिखा गया है-‘’TIME Ideas hosts the world’s leading voices, providing commentary on events in news, society, and culture. We welcome outside contributions. Opinions expressed do not necessarily reflect the views of TIME editors.’’

इस लिखे का निचोड़ यह है कि ‘’हम यानी टाइम मैगजीन वेबसाइट वाले इस ‘टाइम-आइडिया’ स्‍तंभ में दुनिया भर के शीर्ष विचारकों और बौद्धिकों के विचार प्रकाशित करते हैं। जरूरी नहीं कि इन विचारों में कही गई बातों से टाइम पत्रिका का संपादकीय समूह भी सहमत हो।‘’

यानी मोदी की तारीफ करने वाला आर्टिकल प्रकाशित करते हुए, मैगजीन ने इससे ‘संपादकीय सहमति जरूरी न होने’ की बात कह कर अपना पल्‍ला भी झाड़ लिया है। तो इसका मतलब क्‍या हुआ? …इसके जो मतलब निकलते हैं उन पर गहराई से सोचने और समझने की जरूरत है। क्‍योंकि इन मतलबों को लेकर जो सवाल उठते हैं वे दुनिया भर की पत्रकारिता की आज की सचाई को बयान करने वाले हैं।

पहला सवाल तो यह कि ऐन चुनाव के बीच पत्रिका की ओर से मुखपृष्‍ठ पर मोदी को भारत का ‘शीर्ष विभाजनकारी’ बताते हुए लेख छापने का उद्देश्‍य क्‍या था? क्‍या वह भारत के चुनावों को प्रभावित करने की कोई अंतर्राष्‍ट्रीय या अमेरिकी चाल थी? और यदि पत्रिका ने बहुत ‘ऑब्‍जेक्टिवली’ सारी बातों को गंभीरता से समझते-बूझते और विश्‍लेषित करते हुए वह आलेख छापा था तो फिर चुनाव में मोदी की जीत के ठीक बाद और उनके दुबारा शपथ ग्रहण से चंद घंटों पहले, उन्‍हें पिछले पांच दशकों का भारत का ‘मुख्‍य जोड़कर्ता’ या सामाजिक संगठक बताने वाला लेख छापने का क्‍या मतलब है?

पत्रिका ने मोदी को भारत का ‘शीर्ष विभाजनकारी’ बताने वाले आर्टिकल पर तो वैसा डिस्‍क्‍लेमर नहीं दिया था कि उसके कंटेंट से पत्रिका का संपादकीय समूह सहमत हो यह जरूरी नहीं है। तो फिर ताजा कंटेट को उस स्‍तंभ के तहत क्‍यों छापा गया जिसके साथ इस तरह का डिस्‍क्‍लेमर चस्‍पा है। आखिर टाइम मैगजीन का संपादकीय समूह इतना अज्ञानी या नादान कैसे हो सकता है कि एक बार वह एक नेता को देश का ‘शीर्ष विभाजनकारी’ बताए और चंद दिनों बाद ही ‘शीर्ष जोड़कर्ता’। यह कोई मजाक या खेल है क्‍या?

हां, शायद यह खेल ही है। इस प्रसंग में दो ही बातें हो सकती हैं। या तो मनोज लाडवा का लेख सशुल्‍क छापा या छपवाया गया है या फिर मोदी की प्रचंड जीत के बाद पत्रिका ने अपने मुंह पर पुत चुकी कालिख को मिटाने का यह रास्‍ता निकाला है। याद कीजिए वो प्रसंग जब इसी अमेरिका ने 2014 के चुनाव से पहले मोदी को वीजा देने से मना कर दिया था और उनके प्रधानमंत्री बनते ही अंकल सैम लाल कालीन लेकर दौड़े चले आए थे।

यदि पत्रिका ने पैसे लेकर ये लेख छापा है तो फिर यह मैगजीन और इसका कंटेंट कूड़े में फेंक दिए जाने लायक है। क्‍योंकि तब सवाल उठेगा कि पहले वाला आर्टिकल आपने किसके कहने पर या किससे पैसे लेकर छापा था और उसके साथ ‘संपादकीय सहमति जरूरी न होने वाला डिस्‍क्‍लेमर’ भी चस्‍पा न करने की कितनी कीमत वसूली थी। और यदि आपका चरित्र ही यह है कि आप ले देकर या सौदेबाजी करके कोई भी आर्टिकल प्रकाशित और प्रसारित कर देते हैं तो आप पत्रकारिता नहीं दलाली कर रहे हैं…

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