चुनाव जीतना है तो लड़ाई के हथियार बदलने होंगे

न तो चुनाव परिणाम के बाद इस्‍तीफा देकर कोई पार्टी चुनाव जीत सकती है और न हथियार डालकर। राजनीति में आप रण में रहकर ही रण जीत सकते हैं या जीतने की उम्‍मीद पाल सकते हैं, रणछोड़दास होकर नहीं। यदि आप कुरुक्षेत्र में आकर खड़े हो गए हैं तो शर-समर्पण नहीं बल्कि शर-संधान ही आपका धर्म है, कर्तव्‍य है…

इसके लिए सबसे पहले विपक्षी दलों को तय करना होगा कि वे राजनीति किसके लिए कर रहे हैं, सत्‍ता के लिए या फिर जनता के लिए। यह ठीक है कि राजनीति का अंतिम लक्ष्‍य सत्‍ता प्राप्ति ही रह गया है लेकिन यह कैसे भूला जा सकता है कि उस लक्ष्‍य तक पहुंचने का मार्ग जनता के बीच से होकर ही जाता है। जब तक आप जनता को यह भरोसा न दिला सकेंगे कि आप उनके लिए या उनकी मंशाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं और जब तक जनता यह भरोसा न करने लगे कि आप जो कह रहे हैं उसमें अत्‍यल्‍प ही सही पर सचाई का अंश है तब तक वह आपको क्‍यों चुनेगी?

जरा याद करिये, चुनाव परिणाम आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली प्रतिक्रिया वाला ट्वीट। उन्‍होंने लिखा था-

सबका साथ + सबका विकास + सबका विश्वास = विजयी भारत

यदि आपको इस चुनाव के नतीजों का रहस्‍य जानना है तो आपको इस ट्वीट को डिकोड करना होगा। इसमें सबका साथ, सबका विकास पिछले चुनाव यानी 2014 में दिया गया भाजपा का प्रमुख नारा था। मोदी ने इस बार की सफलता में इस नारे में सबका विश्‍वास जोड़कर उसका परिणाम- भारत की विजय बताया है। नरेंद्र मोदी इस चुनाव की धुरी थे या यूं कहें कि उन्‍होंने बहुत चतुराई से अपने आपको इस चुनाव की धुरी बना लिया था। नतीजे बता रहे हैं कि यह चुनाव नरेंद्र मोदी की धुरी पर ही घूमा और परिणाम भी उसी हिसाब से आया।

एक बात और ध्‍यान देने वाली है। मोदी ने चुनाव परिणामों पर अपना यह ट्वीट गणितीय फार्मूले की शक्‍ल में जारी किया। यदि आप भाजपा के पूरे चुनाव अभियान को देखें तो उसमें कदम कदम पर चुनाव के सवाल या गुत्थियां हल करने की कोशिशें ही दिखेंगी। भाजपा सफल ही इसलिए हुई क्‍योंकि उसने चुनाव के हर मुश्किल सवाल को हल किया और मोदी व अमित शाह की जोड़ी उसे ऐसे गणितज्ञों के रूप में मिली जिनके पास हर कठिन से कठिन सवाल हल करने का फार्मूला मौजूद था।

भाजपा का गणित क्‍या था? दरअसल उसने मोदी को चुनाव का मुद्दा बना देने में सफलता पाई। मोदी ने 28 मार्च को मेरठ से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की थी। याद कीजिये उसके दो सप्‍ताह पहले आई वह खबर जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उनकी सरकार को लेकर लोगों की संतुष्टि के स्तर में जबरदस्त बढ़ोतरी देखने को मिली है, जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के रेटिंग चार्ट में गिरावट आई है।

सीवोटर-आईएएनएस स्टेट ऑफ द नेशन ऑपिनियन पोल के 7 मार्च को किए गए सर्वे में 51 प्रतिशत लोग केंद्र सरकार के काम से बहुत संतुष्ट पाए गए जबकि एक जनवरी को ऐसे लोगों की संख्‍या 36 प्रतिशत थी। वहीं मोदी की नेट अप्रूवल रेटिंग में भी जबरदस्त उछाल आया और वह वर्ष की शुरुआत के 32 प्रतिशत के मुकाबले लगभग दोगुना होकर 62 प्रतिशत तक पहुंच गई। दूसरी तरफ, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने वर्ष की शुरुआत 23 प्रतिशत रेटिंग के साथ की थी, जो पुलवामा और बालाकोट एयरस्‍ट्राइक के बाद गिरकर 8 प्रतिशत रह गई।

संभवत: उसके बाद से भाजपा ने दोतरफा रणनीति पर काम किया। एक संघ के नेटवर्क की मदद से अपने मैदानी चुनावी तंत्र को चुपचाप सक्रिय किया और सार्वजनिक तौर पर मोदी को मुद्दा बनने दिया। भाजपा के पास यह खबर थी कि मोदी को जितनी गालियां दी जाएंगी उनका समर्थक वोट उतना ही पक्‍का होता जाएगा। इधर विपक्ष, खासतौर से राहुल गांधी ‘चौकीदार चोर है’ के नारे को मिलने वाले दिखावटी रिस्‍पांस से उत्‍साह के आसमान पर थे और उधर अंदर ही अंदर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हो रही थी।

आमतौर पर कोई नेता विरोधियों द्वारा दी जाने वाली गालियों का जिक्र नहीं करता, सार्वजनिक तौर पर सभाओं में तो बिलकुल नहीं, लेकिन मोदी ने अपनी सभाओं में खुद को दी जाने वाली गालियां लोगों को बार बार याद दिलाईं। याद करें हरियाणा की वो सभा जिसमें मोदी ने खुद को ‘पागल कुत्‍ता‘ और ‘नाली का कीड़ा’ तक बताया था। इधर वे गालियां गिनाकर अपने लिए वोट बटोर रहे थे और उधर भाजपा की रणनीति से अनजान विपक्ष मोदी को जल्‍लाद,दुर्योधन, औरंगजेब जैसे संबोधन देकर मान रहा था कि वो मोदी को कमजोर कर रहा है। ममता जब मोदी को लोकतंत्र का थप्‍पड़ मारने की बात कहकर खुश हो रही होंगी तब उन्‍हें पता ही नहीं होगा कि चुनाव के बाद वास्‍तव में गाल तो उन्‍हें सहलाना पड़ेगा।

मोदी मतदान के हर चरण में अपने भाषणों की नई थीम, नया मुद्दा लेकर आए। वे मुद्दा या जुमला उछालते और विपक्ष उस पर जवाबी हमले में उलझ जाता। इसका भाजपा को दो तरह से फायदा हुआ। एक तो यह कि वास्‍तव में मोदी सरकार, उसके कामकाज और रीति नीतियों पर चुनाव में जो बात होनी चाहिए थी वह नहीं हो पाई और दूसरे विपक्षी पार्टियां खुद अपने सकारात्‍मक मुद्दों पर भी बात करने से भटक गईं। राहुल गांधी ने अपनी सभाओं में न्‍याय योजना का जिक्र उतनी जोर से नहीं किया जितनी जोर से उन्‍होंने चौकीदार चोर का नारा लगवाया।

राहुल चौकीदार को चोर बताकर मान रहे थे कि वे मोदी को कमजोर कर रहे हैं और मोदी एंड कंपनी अपने नाम के आगे चौकीदार लगाकर एक तरह से कांग्रेस के मजे ले रही थी। और हालत देखिए कि चुनाव बीत जाने के बाद बेचारा चौकीदार ही अनाथ हो गया है। चौकीदार मोदी को चोर ठहराने के चक्‍कर में कांग्रेस खुद अपनी ही चौकीदारी करना भूल गई और उधर नरेंद्र मोदी ने चुनाव नतीजे आते ही अपने ट्विटर हैंडल में नाम के पहले लगा ‘चौकीदार’ शब्‍द हटा लिया। अब विपक्ष के हाथ में बचा है तो वह लठ्ठ जिसे या तो वह अपने सिर पर दे मारे या फिर जमीन पर ठोकते हुए पांच साल कहते घूमे- जागते रहो…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here