समय बदलता है, बदल चुका है

रमाशंकर सिंह

मैं पिछले पचास साल से ग्वालियर व आसपास के जिलों की राजनीति प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, देखता आया हूँ और करीब ढाई सौ बरसों के इतिहास को सब ओर से सुना पढ़ा है। आज़ादी के बाद भी ग्वालियर रियासत क्षेत्र में सिंधिया ख़ानदान को सदैव ही जनसमर्थन मिलता रहा है। सिवाय चंद सोशलिस्टों व कम्युनिस्टों के, सिंधिया विरोध का झंडा उठाने की हिम्मत कोई नहीं करता था और धीरे धीरे ये दोनों ही राजनीतिक शक्तियां अपने अंदरूनी कारणों से विलुप्त सी हो गयी हैं।

होता तो यह था कि यदि सिंधिया ख़ानदान से कोई जनसंघ (भाजपा) से चुनाव लड़े तो कांग्रेस की आधी संगठनात्मक ताक़त उसे जिताने के लिये प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से भिड़ जाती थी। इसका उलटा भी होता था कि यदि कांग्रेस से कोई सिंधिया चुनाव लड़े तो भाजपा और यहां तक कि संघ कार्यकर्ता भी ‘आपला मानुष’ के बहाने उसका समर्थन करते थे। मेरी इस बात के समर्थन में ढेर उदाहरण हैं जो ग्वालियर के स्थानीय जन जानते व समझते हैं।

ऐसा भी हुआ कि गुना संसदीय क्षेत्र से स्मृतिशेष माधवराव सिंधिया निर्दलीय चुनाव लड़े तो जनता पार्टी का अंग बन चुके जनसंघ के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने खुलेआम 1977 में अपनी ही पार्टी के विरुद्ध प्रचार किया जिसकी पोल खुले शब्दों में एक दिन अटलबिहारी वाजपेयी ने अपनी भूल की स्वीकारोक्ति करते हुये कह दी, जब वे उसी राजनीति के भुक्तभोगी हुये ग्वालियर में माधवराव सिंधिया के हाथों परास्त होकर। इस ऐतिहासिक चुनाव में आधी भाजपा व संघ सिंधिया यानी कांग्रेस के लिये प्रचार करने व वोट दिलवाने उतर गई और वाजपेयी जी ने अपनी आँखों से वह सब देख लिया।

लुब्बोलुआब यह कि सिंधिया ख़ानदान को कभी भी तगड़े व कटु विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। सिंधिया विरोध में पिछले चालीस बरसों में सिर्फ़ दो तीन ही लोग ही उतरे जो अभी इस पोस्ट का विषय नहीं है और पाठकों द्वारा आत्मश्लाघा मान लिये जाने के कारण उस पर फ़िलहाल लिखने से बच रहा हूँ।

ऐसा तो न कभी देखा न ही मैंने सुना कि साठ लाख की आबादी के इस अंचल के मुख्य शहर में सड़कों पर इतनी बड़ी संख्या में सिंधिया विरोधी ऐसे कटु नारे लगे हों। नारे लगते थे लेकिन सोशलिस्ट, कम्युनिस्टों की तादाद ही कभी कभी जन उपहास का विषय बन जाती थी। लेकिन पिछले तीन दिनों में ग्वालियर की सड़कों ने ऐसा मंजर सदियों बाद पहली बार देखा।

इसका नतीजा यह होगा कि अब गली मोहल्लों गाँवों में यह नारा आम हो जायेगा और सिंधिया ख़ानदान अन्य सामान्य नेताओं की भाँति ही कटु आलोचना का केंद्र बनने से बच नहीं पायेगा। वह शायद बच सकता था यदि पुलिस प्रशासन की ज़्यादती, मनमानी और शक्ति प्रदर्शन के बगैर एक सामान्य व्यक्ति की भाँति वे आते। लेकिन सामान्य व्यवहार अपने ही घर में कभी भी सिंधियाओं को नहीं सुहाया जिसके कारण एक छोटे से पदकामी गुट के बीच घिर कर रह गये और अंतत: सिंधिया ख़ानदान इन सत्तर सालों में दूसरा चुनाव हार गया।

पहला था भिंड से वसुंधरा राजे का लोकसभा चुनाव हारना 1984 में। उसके बाद भिंड से कभी कोई सिंधिया चुनाव नहीं लड़ा, जैसे गुना से भी अब किसी सिंधिया के चुनाव लड़ने की संभावना बहुत कम है।

समय तो बदलता ही है, समय बदल चुका है।

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