अजय बोकिल
महापुरुषों के विचार ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या उनकी प्रतिमाएं? उनकी विशाल मूर्तियां उनके व्यक्तित्व का सही संदेश देती हैं या उनके विचारों का सम्प्रेषण-मनन समाज को सही दिशा देता है? ये सवाल इसलिए क्योंकि मुंबई में इंदु मिल परिसर में प्रस्तावित ‘स्टेच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ के रूप में संविधान निर्माता डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर की प्रतिमा का शिलान्यास कार्यक्रम फिर टल गया है। शिलान्यास शुक्रवार को मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को करना था। राज्य में कोरोना के भयंकर प्रकोप और मराठा आरक्षण को लेकर जारी विवाद के बीच यह कार्यक्रम होना था। इस स्मारक निर्माण योजना का शुभारंभ पूर्ववर्ती युति सरकार के कार्यकाल में हुआ था। बाद में सत्तारूढ़ हुई महाआघाडी सरकार ने प्रतिमा की ऊंचाई और पचास फीट बढ़ा दी।
इस स्मारक को लेकर बाबा साहब के दो पोतों के बीच भी गहरे मतभेद हैं। बड़े पोते प्रकाश आंबेडकर का तर्क है कि बाबा साहब की प्रतिमा पर खर्च करने की जगह यहां बौद्धिक केन्द्र बनाना चाहिए, जो बाबा साहब के सामाजिक समता के विचारों को प्रसारित करे। जबकि छोटे पोते आनंदराज आंबेडकर का मानना है कि यहां पर बाबा साहब का भव्य स्मारक ही बनना चाहिए। हालांकि राजनीति के चलते आयोजकों ने पहले तो बाबा साहब के दोनों ही पोतों को न्योता नहीं दिया था। लेकिन बवाल मचने पर ऐन वक्त पर आनंदराज को बुलावा भेजा गया। इसकी वजह इंदु मिल जमीन पर बाबा साहब का स्मारक बनाने को लेकर चलाए गए आंदोलन में उनकी प्रमुख भूमिका होना था।
ध्यान रहे कि ‘स्टेच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ के नाम से बाबा साहब का यह स्मारक दादर के इंदु मिल परिसर में बनने वाला है। इसका निर्माण मुबंई मेट्रोपोलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एमएमआरडीए) कर रही है। इंदु मिल एक कपड़ा मिल थी, जो बाद में एनटीसी के अधिकार में रही। मिल बंद होने के बाद उसकी 12.5 एकड़ जमीन पर बाबा साहब का स्मारक बनाने की मांग को लेकर दलित संगठनों ने काफी आंदोलन किया था। जिसके बाद तत्कालीन कांग्रेस-राकांपा सरकार ने यह जमीन स्मारक के लिए देने का निर्णय लिया। मामला और आगे बढ़ा। 11 अक्टूबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्मारक योजना का शुभारंभ किया। अब उसका शिलान्यास होने वाला था।
वर्तमान महाआघाडी सरकार ने दावा किया था कि स्मारक निर्माण का काम 14 अप्रैल 2020 तक पूरा हो जाएगा। लेकिन कोरोना और राजनीति के चलते उसका तो शिलान्यास ही अभी नहीं हो पाया है। ‘स्टेच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ देश में गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल के ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ के बाद दूसरा सबसे ऊंचा स्मारक होगा। ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ की ऊंचाई 182 मीटर है तो ‘स्टेच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ 137 मीटर ऊंचा होगा। प्रतिमा का मुख अरब सागर की तरफ होगा। स्मारक निर्माण पर 1 हजार करोड़ रू. खर्च होने का अनुमान है।
लेकिन स्मारक निर्माण, उसके स्वरूप और औचित्य को लेकर दोनों पोतों के विचार अलग-अलग हैं। बड़े भाई प्रकाश आंबेडकर ‘स्टेच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ का विरोध यह कहकर कर रहे हैं कि इस पर पैसा खर्च करने की जगह बाबा साहब के विचारों पर केन्द्रित अध्ययन केन्द्र बनाया जाए। प्रकाश आंबेडकर का कहना है कि बाबा साहब की मूर्ति लगाने से बेहतर है कि इस स्थान पर एक बौद्धिक विचार केन्द्र स्थापित हो। उन्होंने मीडिया से कहा कि मुझे इसके शिलान्यास कार्यक्रम में जाने में भी रुचि नहीं थी। प्रकाश के अनुसार पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इंदु मिल की जमीन ‘इंटरनेशनल स्कूल ऑफ स्टडीज’ के लिए दी थी। लेकिन महाराष्ट्र के राजनेताओं ने इसका उपयोग बाबा साहब की प्रतिमा स्थापित करने के लिए किया।
प्रकाश आंबेडकर ने अदालत से भी आग्रह किया था कि वह बाबा साहब स्मारक और सौंदर्यीकरण की निधि का उपयोग वाडिया अस्पताल के लिए करने के आदेश दे। प्रतिमा तो बाद में भी स्थापित हो सकती है। दूसरी तरफ छोटे भाई आनंदराज प्रतिमा निर्माण के समर्थन में हैं। आनंद का कहना है कि बाबा साहब का यह स्मारक अंतरराष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए। उन्होंने शिलान्यास समारोह टालने के फैसले का समर्थन यह कहकर किया कि जल्दबाजी में एक बड़ा कार्यक्रम करने का कोई औचित्य नहीं था।
हालांकि आनंद ने यह भी कहा कि मुझे शुरू में शायद इसलिए नहीं बुलाया गया क्योंकि मैंने निर्माण एजेंसी एमएमआरडीए के काम की गुणवत्ता पर सवाल उठाए थे। आनंद का यह भी कहना था कि स्मारक की गुणवत्ता की मॉनिटरिंग के लिए एक समिति बनाई जाए। उल्लेखनीय है कि प्रकाश आंबेडकर तीन बार सांसद भी रहे हैं। पहले उन्होंने भारिप बहुजन समाज की स्थापना की थी। दो साल पहले उन्होंने वंचित बहुजन आघाडी की स्थापना की और पिछले लोकसभा चुनाव में असदुद्दीन औवेसी की एआईएमआईएम पार्टी से चुनावी गठबंधन कर दलित-मुस्लिम वोटों की गोलबंदी की कोशिश की थी।
कुछ लोग प्रकाश को भाजपा की ‘बी’ टीम भी मानते हैं। जबकि आनंद को कांग्रेस के करीब माना जाता है। हालांकि दलित अधिकार, सामाजिक समता, एनआरसी और सीएए विरोध के मुद्दे पर दोनों भाइयों के विचार लगभग समान हैं। भीमा कोरेगांव प्रकरण में जेल में बंद डॉ. आनंद तेलतुंबडे, प्रकाश और आनंद के बहनोई हैं। आंनदराज देश में राजनीतिक आरक्षण के घोर विरोधी हैं। उनका मानना है कि इससे समाज को कोई फायदा नहीं होता। शुरू में आनंद भी वंचित बहुजन आघाडी से जुड़े थे। बाद में वो अपनी ‘रिपब्लिकन सेना’ लेकर अलग हो गए। खास बात यह है कि इन तमाम पार्टियों का गठन और बिखराव दलित एकता और लामबंदी के नाम पर ही होता है।
भारत रत्न बाबा साहब आंबेडकर का भव्य स्मारक बने, उनके सामाजिक समता के विचारों को देश आत्मसात करे, इस पर अधिकांश लोग सहमत हैं। लेकिन ‘स्टेच्यू ऑफ इक्वेलिटी’ का बिहार विधानसभा चुनाव से भी अघोषित सम्बन्ध है। पांच साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस स्मारक योजना का शुभारंभ किया था, उसके ठीक बाद बिहार में विधानसभा चुनाव हुए। इस बार भी वैसा ही हो सकता है। फर्क इतना है कि हितग्राही बदल गए हैं। यह बात अलग है कि उस समय आंबेडकर स्मारक योजना के शुभारंभ का बिहार चुनाव में भाजपा को कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ था। इस बार (अगर शिलान्यास न टलता तो) फायदे में कौन रहता, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
यहां असल मुददा यह है कि महापुरुषों की प्रतिमाओं से समाज को ज्यादा प्रेरणा मिलती है या फिर उनके विचारों से? दोनों में से ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है? इस बारे में लोगों की सोच अलग है। कुछ लोगों का मानना है कि प्रतिमाओं की स्थापना न केवल सम्बन्धित महापुरुष के महान कार्यों की याद दिलाती हैं बल्कि वे उस विचार के जीवंत और प्रभावशील होने का परिचायक भी हैं।
जबकि दूसरा विचार मानता है कि प्रतिमा स्थापना केवल व्यक्ति पूजा और अंधभक्ति का पर्याय है। बल्कि यह महापुरुष के विचारों से ध्यान हटाकर उसे पूजने तक सीमित करने की साजिश है। इसके पीछे सोच यही है कि महापुरुष के विचारों के बजाए उसके व्यक्तित्व या ‘देवत्व’ पर ही बात हो। जिससे लोगों के राजनीतिक हित भी सधते रहें। क्योंकि विचार स्थायी संघर्ष को जन्म देता है, प्रतिमाएं मूक होती हैं। वो इतिहास के साथ और वर्तमान को तकते हुए जीती हैं। लेकिन विचार समय के साथ बहुत कम समझौते करता है। यूं तो ये बहस अनंत है। बाबा साहब का स्मारक बने, अच्छी बात है, लेकिन उनके विचारों पर चिंतन जारी रहे, यह भी जरूरी है।