यह रिश्‍तों के नए पुल बनाने का समय है

गिरीश उपाध्‍याय

उत्‍तराखंड में गणतंत्र दिवस से ठीक दो दिन पहले राष्‍ट्रीय बालिका दिवस पर एक बच्‍ची को एक दिन का मुख्‍यमंत्री बनाया गया। बीएससी एग्रीकल्‍चर की छात्रा सृष्टि के, एक दिन का मुख्‍यमंत्री बनने के दौरान कई विभागों ने उनके सामने अपने कामकाज की प्रस्‍तुति दी और सृष्टि ने हर विभाग के कामकाज का आकलन करते हुए अपनी तरफ से सुझाव/निर्देश दिए। इन सारे सुझावों में से एक सुझाव ने मेरा ध्‍यान सबसे ज्‍यादा आकर्षित किया। लोक निर्माण विभाग की प्रस्‍तुति के दौरान सृष्टि ने निर्देश दिया कि राज्‍य के सभी पुराने व जर्जर पुलों को फिर से बनाया जाए और ऐसे सभी पुलों का व्‍यापक सर्वेक्षण किया जाए।

इस घटना पर सोचते हुए लगा कि आजादी के बाद हमने भले ही कितना भी विकास किया हो लेकिन ‘पुल’ के मामले में हम लगातार पिछड़ते और कमजोर ही साबित होते रहे हैं। यहां ‘पुल’ से मेरा आशय सिर्फ नदी नालों पर बनाया जाने वाला पुल नहीं है बल्कि समाजिक और आर्थिक विसंगतियों को पाटने के लिहाज से एक राष्‍ट्र और उसके समाज के तौर पर हमारे द्वारा बनाए जाने वाले ‘पुल’ से है।

संविधान निर्माताओं ने हमें एकता, सौहार्द, सद्भाव, भाईचारे, अमन के कई सारे पुल बनाने की सीख दी थी लेकिन हम आजाद होने के बाद इन पुलों को लगातार या तो गिराते आए हैं या फिर हमने इन्‍हें इतना जर्जर हो जाने दिया है कि वे काम के लायक नहीं रह गए हैं। बाबा साहब ने संविधान सभा की मसौदा समिति के सामने 25 नवंबर 1949 को अपने अंतिम भाषण में कहा था कि ‘’हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।‘’

लेकिन हुआ क्‍या? हमने समाजिक प्रजातंत्र के सिरों को मिलाने वाले स्‍वतंत्रता, समानता और बंधुत्‍व के इन तीनों ही पुलों को या तो तोड़ दिया या फिर उन्‍हें लगातार जर्जर हो जाने दिया। इतना जर्जर कि वे जरा से धक्‍के में ही भरभराकर गिर पड़ें। अंग्रेजों ने हमारे नदी नालों पर तो बहुत पुख्‍ता पुल बनाए लेकिन जाते जाते वे भारतीय समाज को जोड़े रखने वाले पुलों को तोड़कर या उनमें बारूद लगाकर गए थे। हमने अंग्रेजों का नदी नालों पर पुख्‍ता पुल बनाने का गुर तो नहीं सीखा, लेकिन समाज के पुल तोड़ने का उनका दिया सबक जरूर अच्‍छे से याद कर लिया। तो हम आज भी जब गणतंत्र दिवस पर अपने लोकतंत्र को कोस रहे होते हैं तो उसके पीछे मुख्‍य कारण समाज को जोड़े रखने वाले पुलों का ध्‍वस्‍त किया जाना अथवा उन्‍हें अपेक्षित कर देना ही है।

हमने विविधता में एकता के सूत्र को अपनाया तो सही, लेकिन सिर्फ जबानी तौर पर… एक नारे के रूप में… असलियत में तो हमने इस विविधता को भी ‘टुकड़ों-टुकड़ों’ में बांट देने की चालें चलीं। सरकार और जनता के बीच, शोषक और शोषित के बीच, अमीर और गरीब के बीच, संसाधन और जरूरत के बीच, लोक और तंत्र के बीच पुख्‍ता पुल बनाने की कोशिश हमने कभी नहीं की।

यही वजह है कि आज हम ‘सामाजिक प्रजातंत्र’ के बजाय ‘राजनीतिक प्रजातंत्र’ अधिक नजर आते हैं। और यह ‘राजनीतिक प्रजातंत्र’ भी कुरुक्षेत्र का मैदान अधिक दिखता है। यहां एक ही देश, एक ही मिट्टी से उपजे लोग कम और एक दूसरे का दुश्‍मन बन, मरने मारने पर उतारू कबीले ज्‍यादा नजर आते हैं। यानी हम मूल रूप से न तो राजनीतिक प्रजातंत्र हैं और न सामाजिक। हम कबीलों का ऐसा समुच्‍चय हैं जहां सह अस्तित्‍व की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है या कि है ही नहीं।

कुछ समय पहले मैंने लिखा था कि लोकतंत्र में प्रतिनिधित्‍व का अभीष्‍ट हमारे लिए स्‍वयं की विजय नहीं बल्कि सामने वाले की पराजय है। चुनाव इसी इरादे और इसी रणनीति से लड़े जाते हैं। और पराजित होने वाले के प्रति विजेता के मन का यह ‘शत्रु’ भाव चुनाव के बाद भी खत्‍म नहीं होता। दूसरी तरफ सरकार को भी ‘दुश्‍मन’ के पर्याय के रूप में स्‍थापित कर दिया गया है। हम मानकर चलने लगे हैं कि सरकार अगर है तो वह जनता की दुश्‍मन ही होगी। हैरानी तो तब होती है जब मीडिया भी अपने अस्तित्‍व को सरकार की मुखालफत से ही जोडकर देखने की बात करता है। पक्ष और विपक्ष या मित्र और शत्रु का यह भाव हमारे भीतर इतना गहरा होता जा रहा है कि हम एक राष्‍ट्र और एक समाज के तौर पर, एक समग्र इकाई के रूप में अपनी पहचान बना ही नहीं पा रहे हैं।

इसीलिये मुझे लगता है कि एक दिन की मुख्‍यमंत्री बनी उस बिटिया ने जर्जर और पुराने पुलों को फिर से बनाने और सभी पुलों का सर्वे कराने की जो बात कही है, वह बहुत मौजूं है। हमें भौतिक पुलों के साथ-साथ, मनुष्‍य के रूप में और एक राष्‍ट्र के नागरिक के रूप में, अपने रिश्‍तों के जर्जर हो गए पुलों को ठीक करने और नए पुल बनाने की सख्‍त जरूरत है। साथ ही यह ध्‍यान रखने की भी जरूरत है कि ऐसे सारे नए पुल, बदनीयती की सीमेंट और घृणा की रेत से न खड़े किए जाएं, वरना उनके कभी भी भरभराकर गिरने का खतरा हमेशा बना रहेगा…(मध्‍यमत)

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