राकेश दुबे
पत्र सूचना कार्यालय ने 6 और यू-टूयूब चैनल पर पाबंदी लगा दी है। इन चैनलों के लाखों दर्शक हैं। पाबंदी का कारण कोई एक नहीं है, अनेक हैं। अच्छी स्थिति होती यदि किसी संस्था या पेशे की विश्वसनीयता और मानवीय मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता की पहल भीतर उसके से ही हो, जिससे बाहर से किसी को नसीहत देने का अवसर न मिल सके। लेकिन जब-जब हम मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघते हैं तो अपनी स्वायत्तता पर आंच आने देने के लिये स्वयं स्थितियां बनाते हैं।
हाल ही में सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा सभी टीवी चैनलों को पुन: एक परामर्श जारी किया गया था। सरकार की दलील थी कि टीवी चैनल विचलित करने वाले वीडियो और तस्वीरों के प्रसारण से परहेज करें। सरकार का मानना है कि रक्तरंजित व्यक्ति, शवों व शारीरिक हमलों की तस्वीरों का दिखाया जाना कष्टप्रद है। कोशिश हो कि पीड़ित चेहरों की पहचान न होने पाये।
मंत्रालय का कहना है कि विवेक सम्मत ढंग से चैनलों के कार्यक्रम का प्रसारण न होने की वजह से इस एडवाइजरी को जारी करने की जरूरत महसूस हुई। सरकार की दलील थी कि सोशल मीडिया पर प्रसारित किये जा रहे हिंसा के वीडियो बिना संपादन के चैनलों पर प्रसारित किये जाते हैं। जिसका महिलाओं व बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है।
मत्रालय का यह भी कहना है कि हिंसा व दुर्घटनाओं में घायल व्यक्तियों की फुटेज और चित्रों को स्पष्ट दिखाये जाने से बचना चाहिए। इनसे बच्चों की मनोदशा पर घातक प्रभाव पड़ता है। निस्संदेह, यह बात तार्किक है। कभी-कभी चैनलों पर हिंसा व दुर्घटनाओं के ऐसे विजुअल दिखाये जाते हैं जिनसे दर्शकों का मन विचलित हो जाता है।
हाल ही में एक सड़क दुर्घटना में घायल भारतीय क्रिकेटर ऋषभ पंत के ऐसे चित्र इलेक्ट्रानिक मीडिया में सामने आये, जिनसे कुछ लोगों को अपने प्रिय क्रिकेटर की दशा देखकर परेशानी हुई। भारतीय सनातन परंपरा में बार-बार इस बात का जिक्र होता रहा है कि सत्य होना चाहिए, लेकिन उसका प्रिय होना जरूरी शर्त है।
कई बार हिंसा का सच कोमल हृदय व संवेदनशील लोगों को परेशान कर देता है। जिसको लेकर सावधानी बरती जानी जरूरी है। कहीं न कहीं ये स्थितियां टीवी चैनलों की व्यावसायिक स्पर्धा का भी नतीजा है। कह सकते हैं कि यह संपादक नामक संस्था के कमजोर होने का भी संकेत है।
कहते हैं, देश में तो सब कुछ सामान्य है मगर कुछ टीवी चैनलों में तूफान सा उठा है। कार्यक्रम की आक्रामक प्रस्तुति और सबसे पहले आने की होड़ मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को लांघती नजर आती है। कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले इतने आक्रामक अंदाज में सामने आते हैं कि दर्शक भी सहज नहीं रह पाते।
निस्संदेह, प्रिंट मीडिया आज भी जो विश्वसनीयता बनाये हुए है, उसके मूल में संपादक नामक संस्था की मजबूती भी है। खबरों को लेकर जो मर्यादाएं तय की गई थीं कमोबेश उनका पालन किया जा रहा है। यही वजह है कि कई सर्वेक्षणों में यह बात स्पष्ट हुई है कि प्रिंट मीडिया विश्वसनीयता के मामले में अव्वल है।
चिंताजनक स्थिति सोशल मीडिया की भी है। जिसका राजनीतिक दलों, सांप्रदायिक संगठनों तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है। इन वीडियो का टीवी चैनलों द्वारा बिना संपादन के प्रयोग करना समस्या को जटिल बना देता है। दरअसल, चैनलों ने अपने स्तर पर यह धारणा बना ली है कि मिर्च-मसालेदार व सनसनीखेज खबरें उनकी टीआरपी बढ़ाने में असरदार होती हैं। जिसके लिये वे मर्यादा की रेखा लांघने से गुरेज नहीं करते।
बेहतर होगा कि टीवी चैनलों के संगठन स्व-विवेक और संवेदनशील ढंग से खबरों के प्रसारण में संयम बरतें। मानवीय सरोकारों व संवेदनशीलता का ध्यान रखें। यदि चैनल स्वयं पहल नहीं करते तो निस्संदेह वे सरकार को हस्तक्षेप करने का अवसर देते हैं। मीडिया की स्वायत्तता के लिहाज से इसे अच्छा नहीं माना जाना चाहिए। साथ ही उसे मीडिया ट्रायल से भी बचना चाहिए।
हमें व्यक्ति की निजता का भी ध्यान रखना होगा। ऐसा न हो कि एक्सक्लूसिव देने के चक्कर में मीडिया किसी व्यक्ति विशेष की निजता का हनन करने लगे। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि सर्वकालिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाओं तथा निजता के अधिकार का सम्मान किया जाये। तभी इलेक्ट्रानिक मीडिया की विश्वसनीयता बरकरार रह पायेगी।(मध्यमत)
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