प्रमोद भार्गव
गांव से पलायन कर शहर पहुंचे लोग कोरोना महामारी से बचने के लिए फिर गांव पहुंच गए हैं। अब यदि देश की 130 करोड़ जनता को अन्न चाहिए तो इन ग्रामीणों में से ज्यादातर को गांव में रोककर गांव को समृद्धशाली बनाना होगा। जिससे इनको तो जीने का बेहतर अवसर मिले ही, देश को भी अनाज मिलता रहे।
दरअसल कोरोना का कहर लंबा चला तो शहर और उद्योगों के हालात बदतर होते चले जाएंगे। देश में करीब 47 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्रों में श्रमिक हैं। जबकि 26 करोड़ खेतिहर मजदूरों का बोझ पहले से ही कृषि क्षेत्र उठा रहा है। इसमें लगातार मशीनीकरण को बढ़ावा मिलने के कारण मजदूरों की मांग लगातार घट रही है। इसलिए अंदाजा है कि स्थिति सामान्य होते ही फिर से 90 प्रतिशत प्रवासी शहरों की ओर लौटेंगे, लेकिन इतने लोगों को काम मिल जाए यह कहना मुश्किल है।
कोरोना के चलते बेरोजगार हुई इस आबादी को केंद्र और राज्य सरकारें मुफ्त अनाज बांट पा रही हैं तो इसलिए क्योंकि अन्नदाता तमाम जोखिमों का सामना करते रहने के बावजूद अन्न का उत्पादन बढ़ा रहा है। यही अनाज न केवल ग्रामीण बल्कि शहरी अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाए रखने का प्रमुख आधार बना है। 2018-19 में 28 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हुआ था, जो 2019-20 में बढ़कर 29.19 करोड़ टन हो गया है।
दरअसल शहरीकरण देश की आवश्यकता नहीं है। इसके विकल्प मौजूद हैं। जरूरत इस बात की है कि ग्रामों और कस्बों में शहरों के समान बुनियादी सुविधाएं हासिल कराई जाएं। क्योंकि शहरीकरण को इसी प्रकार बढ़ावा दिया जाता रहा तो शहरों में पहले से ही अपर्याप्त नागरिक सुविधाओं के चरमरा जाने का खतरा बढ़ जाएगा। गोया इन लौटे ग्रामीणों के शहरों की ओर पलायन को रोकना नीति-नियंताओं की प्रथामिकता में होना चाहिए। जिससे विपरीत परिस्थिति में एक साथ इतनी बड़ी संख्या में लोगों के लौटने की पुनरावृत्ति न हो।
साफ है कि वर्तमान व्यवस्था पर गांधी के ग्राम स्वराज की जरूरत पर विचार किया जाए। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से इस मुद्दे पर गांधी का नीतिगत मतभेद था। क्योंकि उस समय भारत खाद्यान्न के लिए अमेरिका रूस और आस्ट्रेलिया पर निर्भर था। इससे देश के स्वाभिमान को ठेस पहुंचती थी। शायद इसीलिए नेहरू ने रूसी क्रांति से प्रभावित होकर ऐसे बड़े उद्योगों का निर्माण किया जिनमें रोजगार की गुंजाइश तो कम थी लेकिन आर्थिक निवेश की संभावनाएं अधिक थीं।
इसलिए गांधी के कुटीर व लघु उद्योगों के विचार को नकारते हुए देश में बड़े उद्योगों की आधाशिलाएं रख दी गईं। रही-सही कसर 24 जुलाई 1991 को ‘वाशिंगटन आम राय’ पर आधारित भूमंडलीकरण को कांग्रेस की नरसिंहराव सरकार ने स्वीकार करके पूरी कर दी। यह समझौता सरंचनागत समायोजन के नाम पर हुआ था। इस पर हस्ताक्षर करके हमने देश की आर्थिक आजादी को लंबे समय तक के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गोद में गिरवी रख दिया। नतीजतन हमने जो स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को प्राप्त की थी उसे नव-उपनिवेशवाद के हवाले कर दिया।
ऋग्वेद की एक ऋचा है ‘विश्व पुष्टं ग्रामीण आसमिन अनातुरम‘ अर्थात मेरे गांव से ही मुझे विशव के होने की पुष्टि होती है। मसलन खुशहाली और समृद्धि से परिपूर्ण ऐसे गांव हों जहां से विश्व के उत्थान और संपन्नता का रास्ता खुलता हो।एक समय हमारे गांव वास्तव में समृद्धि के ऐसे ही स्रोत थे इसीलिए देश सोने की चिड़िया कहलाता था। मुगलों के पतन और अंग्रेजों के पैर जमाने की शुरुआत के साथ 18वीं सदी के उत्तरार्ध में गांव की परंपरागत कृषि से जुड़ी आर्थिकी बिखरना शुरू हुई। इस बिखराव में फिरंगियों ने कुटिल चतुराई से भू-राजस्व व्यवस्था को गांव से जोड़ना शुरू कर दिया।
इस व्यवस्था के घालमेल से पहले तक कृषि-भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था। भूमि राज्य की हुआ करती थी। किसान को भू-राजस्व कर देने के बाद जमीन पर खेती करने की सुविधा प्राप्त थी। लगान के रूप में यह कर फसल के उत्पादन के बाद लिया जाता था। यह लगान भी उत्पादित फसल के एक निश्चित प्रतिशत के रूप में था न कि नगदी के रूप में। गोया पश्चिमी रंग के सामंतवाद से देश बचा हुआ था।
प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल्य में प्राकृतिक संपदा कृषि और गोवंश थे। नदियों के अक्षय और शुद्ध जलस्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और ऋतुओं के अनुकूल पोषक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश जीविका उपार्जन के लायक पौश्टिक खाष्टिक सामग्री उपलब्ध करा देती थी। इसके सेवन से व्यक्ति बीमार नहीं होता था।
आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषियों ने नए-नए प्रयोग किए। नतीजतन कृषि विविध उत्पादनों से जुड़ी। फलस्वरूप अनाज, दलहन, चावल और मसालों की हजारों किस्में पैदा होने लगीं। चावल की ही भारत में 80000 किस्में पाई जाती थीं। 167 फसलों 350 वन प्रजातियों 89000 जीव-जंतुओं और 47000 प्रकार की वनस्पतियों की खोज की गई। अब आनुवंशकीय परिवर्धन जैव तकनीक के जरिए इन्हें कंपनियां बीजों के रूप में हथियाने की कोशिश में लगी हैं।
यदि ‘कथा-सरित्सागर‘ और जातक-कथाओं को पढ़ें तो पता चलता है कि समुद्र पार जाकर माल के क्रय-विक्रय में अनेक युवा पीढ़ी लगी रही थीं। ईसवी संवत् की दूसरी सदी से लेकर 11वीं-12वीं सदी तक भारतीयों के लिए हालात बेहद अनुकूल थे लेकिन कालांतर में 11वीं सदी में मंगोल और अरबों के तथा 12वीं सदी में तुर्कों के आक्रमण ने भारत में उनकी सत्ता स्थापित कर दी।
बाद में मुगल और फिर अंग्रेजों के वर्चस्व के चलते देशी-सत्ताओं का जो क्षरण हुआ उसके कारण व्यापार का आर्थिक आधार खंडित होने लगा और भारत की समृद्धि लूट-तंत्र का हिस्सा बन गई। इसी समय खेती को बाजार का हिस्सा बना दिया गया। नतीजतन बाजार किसानों को आदेश देने लगा कि उन्हें कौनसी फसलें खेतों में बोनी हैं।
किसानों को नील, कपास, जूट और अफीम की खेती करने को मजबूर किया गया। ये किस मात्रा में पैदा करनी हैं यह हिदायत भी दी जाने लगी। इनका निर्यात भी अंग्रेजों ने अपने हाथ ले लिया। साफ है जिस विदेशी विश्व बाजार पर भारत का नियंत्रण था वह अंग्रेजों के हवाले हो गया। इसी के साथ अंग्रेजों ने गांव-गांव जिस हस्तशिल्प का निर्माण होता था उसे भी चौपट करने का बीड़ा उठा लिया। नतीजतन कृषि के साथ लघु और कुटीर उद्योगों से जुड़ा उत्पादन गिरता चला गया। किंतु इसके विपरीत जनसंख्या का दबाव जरूर बढ़ा और भुखमरी के हालात भी उत्पन्न होने लगे।
पुराने आंकड़े खंगालने से पता चलता है कि 1901-1951 के दौरान कृषि में लगे श्रमिकों की संख्या का अनुपात 62.4 प्रतिशत से बढ़कर 69 प्रतिशत हो गया, लेकिन राश्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 1900-01 में जो 63.6 प्रतिशत थी वह 1946-47 में घटकर 46 प्रतिशत रह गई। इस गिरावट से पता चलता है कि किसान की आय अंग्रेजों की गलत नीतियों के चलते घटी।
भारत के गांव कितने समृद्धिशाली थे इस तथ्य की पड़ताल यदि अतीत से करें तो पता चलता है कि ब्रिटेन का औद्योगिक साम्राज्य हमारे गांवों से लूटी गई धन-संपदा की ही नींव पर खड़ा हुआ था। अंग्रेजों की इस लूट का हैरतअंगेज खुलासा यहां अंग्रेज लेखकों की पुस्तकों से करते हैं। ब्रुक्स एडम्स ने अपनी पुस्तक ‘द लॉ ऑफ सिविलाइजेशन एंड डीके‘ में लिखा है ‘’शायद दुनिया के शुरू होने से अब तक कभी भी, किसी भी पूंजी से इतना लाभ किसी भी व्यवसाय में नहीं हुआ है, जितना भारतवर्ष की लूट से अंग्रेजों को हुआ। क्योंकि यहां करीब 50 साल तक इंगलिस्तान से कोई मुकाबला करने वाला नहीं था। इस लूटे गए धन का उपयोग 1760 से 1815 के बीच अंग्रेजों ने अपने देश के औद्योगिक विकास में लगाया।‘ वाकई ब्रिटेन का यही वह समय था जब वहां आश्चर्यजनक उन्नति हुई।
अकेली मुर्शिदाबाद की लूट का हवाला देते हुए अंग्रेज इतिहासकार ऑर्म ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ हिंदुस्तान‘ में लिखा है 6 जुलाई 1757 तक कलकत्ते की अंग्रेज कमेटी के पास चांदी के सिक्कों के रूप में 72 लाख 71 हजार 666 रुपए पहुंच गए थे। यह खजाना 100 संदूकों में भरकर 100 किश्तियों के जरिए नदिया पहुंचाया गया। वहां से अंग्रेजी जंगी जहाजों के मार्फत विजय का डंका पीटते हुए इस धन को ब्रिटेन रवाना किया गया। इससे पहले अंग्रेज कौम को एक साथ इतना अधिक नगद धन कहीं से नहीं मिला था।‘’
विलियम डिग्बे ने लिखा है ‘‘प्लासी से वाटर लू तक यानी 1757 से 1815 के बीच करीब एक हजार मिलियन पौंड यानी 15 अरब रुपए भारत से लूटकर इंगलिस्तान भेजे गए। मसलन इन 58 वर्षों में 25 करोड़ रुपए सालाना, कंपनी के अधिकारी भारतीयों को लूटकर ब्रिटेन भेजते रहे। इस लूट की तुलना में महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी की लूटें पहाड़ की तुलना में राई जैसी हैं।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से पहले भारत में देशी उपकरणों व तरीकों से की जाने वाली खेती को समझा और फिर उसे मशीनीकरण में बदलने के षड्यंत्रकारी उपाय किए। भारत की खेती को उन्नत और वैज्ञानिक बताते हुए 1795 में कैप्टन थॉस हालकॉट ने कंपनी को लिखे एक पत्र में कहा- ‘’अब तक मैं मानता था कि कतारबद्ध जुताई एवं बुवाई आधुनिक यूरोप का आविष्कार है लेकिन अभी मैं दक्षिण भारत के एक खेत से गुजरा तो खेती की तकनीक देखकर हैरान रह गया। मैंने पंक्तिबद्ध हल-बैलों से जुताई देखी। वह अद्वितीय हल भी देखा जो बेहद कलात्मक तरीके से बनाया गया था।
किसानों से पूछने पर पता चला कि इसी तरीके से पूरे देश में जुताई व बुवाई होती है। कई प्रकार के अनाज, दालों, कपास, सन और तिलहन फसलें उगाई जाती हैं। बीज बोने की यहां जो तकनीक हाथ से अमल में लाई जाती है वह ब्रिटेन में अपनाई जाने वाली यांत्रिकीकरण से कहीं ज्यादा कारगर है। यहां प्रयोग में लाया जाने वाला हल भी हमारे यांत्रिक हल से कहीं ज्यादा बेहतर, सस्ता और सरल है। इसे खराब होने पर स्थानीय बढ़ई ही दुरुस्त कर देते हैं।‘’
इस जानकारी के बाद फिरंगियों ने ब्रिटेन में निर्मित खेती के काम आने वाले यांत्रिक उपकारणों को भारत लाना और उनसे खेती करने का रास्ता प्रशस्त करने की विधि अपनाई। इसके बाद उत्तरोत्तर ऐसा मशीनीकरण होता चला आ रहा है कि हम आजादी के 70 साल बाद भी उससे छुटकारा नहीं पा पाए हैं। आज यही यांत्रिकीकरण कृषि और किसान की दुर्दशा का प्रमुख कारण है।
पिछली सदी के छठवें व सातवें दशक में हरित क्रांति आई। फलस्वरूप देश तेजी से खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होता चला गया। 1969 में इंदिरा गांधी ने राजा-महाराजाओं को बैठे-ठाले मिलने वाले प्रीविपर्स बंद किए और निजी बैंकों व बीमा कंपनियों का एक झटके में राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे किसानों को खेती के लिए ऋण लेना आसान हो गया। शिल्प उद्योग में छूटें दी गईं और अनाज, खाद, कैरोसिन एवं बिजली पर गरीबों को सब्सिडी के प्रावधान किए गए।
जवाहर रोजगार योजना से ग्रामीण विकास की नींव रखी और इसे स्थानीय ग्रामीणों से जोड़ा। इंदिरा आवास कुटीर योजना के माध्यम से अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के लोगों को मुफ्त में घर दिए गए। इन कारणों के चलते गांवों में न तो असंतोष पनपा और न ही बड़ी संख्या में पलायन हुआ।
साफ है कृषि इस समय तक अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बनी रही। किंतु 1991 में भूमंडलीकरण की नीतियों को मजबूत करने के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र के ऐसे अनुत्पादक वर्ग की आमदनी बढ़ाई गई जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भोग-विलास के उपकरण खरीद सके। सरकारी अमले को छठे और सातवें वेतनमान इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए दिए गए। इन्हें 108 प्रकार के भत्ते भी मिलते हैं।
इससे आर्थिक विसंगति तेजी से बढ़ी। इस कारण किसान की जमीन सरकारी कर्मचारियों द्वारा खरीदी जाने लगी। राश्ट्रीय नमूना सर्वेक्शण 2013 की रिपोर्ट के अनुसार नौ करोड़ किसान परिवारों में से 75 प्रतिशत के पास 1.5 एकड़ से कम कृषि भूमि है। 2011 में किए गए सामाजिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि गांवों में रहने वाले करीब 67 करोड़ लोग 33 रुपए प्रति दिन पर गुजारा करते हैं और एक किसान परिवार की औसत आय 60 रुपए प्रति दिन रह गई है। नतीजतन खेती घाटे का सौदा बन गई और खेती-किसानी से जुड़े 40 प्रतिशत लोग यदि आजीविका का कोई अन्य विकल्प मिले तो तत्काल खेती छोड़ने को तैयार हैं।
साफ है भूमंडलीकरण ने ऐसी नीतियों को बढ़ावा दिया जिससे अनुत्पादक वर्ग की मुट्ठी में धन समाता चला गया और फसल उत्पादक किसान खाली हाथ होता गया। बावजूद देश की अर्थव्यवस्था को इस संकट की घड़ी में किसान ने ही थामा हुआ है। औद्योगिक निर्यात से ज्यादा कृषि निर्यात होता है। जबकि उन बड़े उद्योगों के पसीने छूट रहे हैं जिन्हें बाजार और अर्थव्यवस्था की रीढ़ बताया जाता रहा था। अब ये कंपनियां सरकार से करों में छूट और आर्थिक पैकेज की मांग कर रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)