ये कहाँ आ गए हम?

डॉ. नीलम महेंद्र

‘’फ़रिश्ता बनने की चाहत न करें तो बेहतर है, इन्सान हैं इन्सान ही बन जाएं यही क्या कम है!’’

तारीख़ : 25 अगस्त 2016

स्थान : ओड़िशा के कालाहांडी जिले का सरकारी अस्पताल

अमंग देवी टीबी के इलाज के दौरान जीवन से अपनी जंग हार जाती हैं। चूँकि वे एक आदिवासी, नाम, ’दाना माँझी’ की पत्नी हैं, एक गुमनाम मौत उन्हें गले लगाती है।

लेकिन हमारी सभ्यता की खोखली तरक्की, राज्य सरकारों की कागज़ी योजनाओं, पढ़े लिखे सफेदपोशों से भरे समाज की पोल खोलती इस देश में मानवता के पतन की कहानी कहती एक तस्वीर ने उस गुमनाम मौत को अखबारों और न्यूज़ चैनलों की सुर्खियाँ बना दिया।

जो जज्बात एक इंसान की मौत नहीं जगा पाई वो जज्बात एक तस्वीर जगा गई। पूरे देश में हर अखबार में हर चैनल में सोशल मीडिया की हर दूसरी पोस्ट में अमंग देवी को अपनी मौत के बाद जगह मिली, लेकिन उनके मृत शरीर को एम्बुलेंस में जगह नहीं मिल पाई।

पैसे न होने के कारण तमाम मिन्नतों के बावजूद जब अस्पताल प्रबंधन ने शव वाहिका उपलब्ध कराने में असमर्थता जताई तो लाचार दाना माँझी ने अपनी पत्नी के मृत शरीर को कन्धे पर लाद कर अपनी 12 वर्ष की रोती हुई बेटी के साथ वहाँ से 60 किमी दूर अपने गाँव मेलघारा तक पैदल ही चलना शुरू कर दिया। करीब 10 कि.मी. तक चलने के बाद कुछ स्थानीय लोगों के हस्तक्षेप और मीडिया में खबर आ जाने के बाद उन्हें एक एम्बुलेंस नसीब हुई।

पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर जिला कलेक्टर का कहना था कि माँझी ने वाहन का इंतजार ही नहीं किया। वहीं ‘ द टेलीग्राफ’ का कहना है कि एक नई एम्बुलेंस अस्पताल में ही खड़ी होने के बावजूद सिर्फ इसलिए नहीं दी गई क्योंकि किसी वीआईपी के द्वारा उसका उद्घाटन नहीं हुआ था। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि ऐसी ही स्थितियों के लिए नवीन पटनायक की सरकार द्वारा फरवरी माह में  ‘महापरायण’ योजना की शुरुआत की गई थी। इस योजना के तहत शव को सरकारी अस्पताल से मृतक के घर तक पहुंचाने के लिए मुफ्त में परिवहन सुविधा दी जाती है। बावजूद इसके एक गरीब पति ‘पैसे के अभाव में’ अपनी पत्नी के शव को 60 किमी तक पैदल ले जाने के लिए मजबूर है।

अगर परिस्थिति का विश्लेषण किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि बात दाना माँझी के पास धन के अभाव की नहीं है, बल्कि बात उस अस्पताल प्रबंधन के पास मानवीय संवेदनाओं एवं मूल्यों के अभाव की है। बात एक गरीब आदिवासी की नहीं है, बात उस तथाकथित सभ्य समाज की है जिसमें एक बेजान एम्बुलेंस को किसी वीआईपी के इंतजार में खड़ा रखना अधिक महत्वपूर्ण लगता है बनिस्‍बत किसी जरूरतमंद के उपयोग में लाने के। बात उस संस्कृति के ह्रास की है जिस संस्कृति ने भक्त के प्रबल प्रेम के वश में प्रभु को नियम बदलते देखा है, लेकिन उस देश में सरकारी अफसर किसी मनुष्य के कष्ट में भी नियम नहीं बदल पाते। यह कैसा विकास है जिसके बोझ तले इंसानियत मर रही है?  जो सरकारें अपने आप को गरीबी हटाने और गरीबों के हक के लिए काम करने का दावा करती हैं उन्हीं के शासन में उनके अफसरों द्वारा अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है।

किसी की आँख का आंसू

मेरी आँखों में आ छलके;

किसी की साँस थमते देख

मेरा दिल चले थम के;

किसी के जख्म की टीसों पे ;

मेरी रूह तड़प जाये;

किसी के पैर के छालों से

मेरी आह निकल जाये;

प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे इस दिल को तुम भर दो;

मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत का दरिया तुम कर दो

किसी का खून बहता देख

मेरा खून जम जाए;

किसी की चीख पर मेरे

कदम उस ओर बढ़ जाएं;

किसी को देख कर भूखा

निवाला न निगल पाऊँ;

किसी मजबूर के हाथों की

मैं लाठी ही बन जाऊं;

प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे इस दिल को तुम भर दो;

मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत का दरिया तुम कर दो ( डॉ. शिखा कौशिक)

बात हमारे देश के एक पिछड़े राज्य ओडिशा के आदीवासी जिले की अथवा सरकार या उसके कर्मचारियों की नहीं है, बात तो पूरे देश की है, हमारे समाज की है हम सभी की है।

16 अगस्त 2016  : भारत की राजधानी दिल्ली

एक व्यस्त बाजार, दिन के समय एक युवक सड़क से पैदल जा रहा था और वह अपनी सही लेन में था। पीछे से आने वाले एक लोडिंग ऑटो की टक्कर से वह युवक गिर जाता है, ऑटो वाला रुकता है और बाहर निकल कर अपने ऑटो को टूट फूट के लिए चैक करके, बिना एक बार भी उसकी टक्कर से घायल व्यक्ति को देखे निकल जाता है। सीसी टीवी फुटेज अत्यंत निराशाजनक है क्योंकि कोई भी व्यक्ति एक पल रुक कर घायल की मदद करने के बजाय उसे देखकर सीधे आगे निकलते जाते हैं।

कहाँ जा रहे हैं सब? कहाँ जाना है? किस दौड़ में हिस्सा ले रहे हैं? क्या जीतना चाहते हैं सब? क्यों एक पल ठहरते नहीं हैं? क्यों जरा रुक कर एक दूसरे की तरफ प्यार से देखने का समय नहीं है, क्यों एक दूसरे की परवाह नहीं कर पाते, क्यों एक दूसरे के दुख दर्द के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते, क्यों दूर से देख कर दर्द महसूस नहीं कर पाते? क्यों हम इतने कठोर हो गए हैं कि हमें केवल अपनी चोट ही तकलीफ देती है? क्या हम सभी भावनाशून्य मशीनों में तो तब्दील नहीं हो रहे?

विकास और तरक्की की अंधी दौड़ में हम समय से आगे निकलने की चाह में मानव भी नहीं रह पाए। बुद्धि का इतना विकास हो गया कि भावनाएं पीछे रह गईं। भावनाएं ही तो मानव को पशु से भिन्न करती हैं। जिस विकास और तरक्की की दौड़ में मानवता पीछे छूट जाए, भावनाएँ मृतप्राय हो जाएं, मानव पशु समान भावना शून्य हो जाए, उस विकास पर हम सभी को आत्ममंथन करने का समय आ गया है।

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