अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। उसी तरह खबर की दुनिया का सिद्धांत है कि बुरी या चौंकाने वाली खबरें गंभीर विषयों पर केंद्रित खबरों को निगल जाती हैं। मीडिया इन दिनों हमें जो खबरें परोस रहा है उनमें ऐसे खबरों की तादाद ज्यादा है जो समाज को सोचने विचारने पर मजबूर करने या उन्हें दिशा दिखाने वाली खबरों को निगलकर ऊपर आ रही हैं।
हिन्दू धर्म में मान्यता है कि चौमासे के दिनों में देवता सो जाते हैं और वे दिवाली के बाद आने वाली एकादशी जिसे देवउठनी एकादशी भी कहा जाता है, उस दिन जागते हैं और उसके बाद से शुभ कार्यों के संपन्न होने के मुहूर्त भी तय होने लगते हैं। ऐसा लगता है कि इस बार देवउठनी एकादशी पर केवल देव ही नहीं जागे देश की सर्वोच्च अदालत भी जाग गई है। आठ नवंबर को देवउठनी एकादशी के अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट ने राममंदिर पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
नौ नवंबर से शुरू हुआ महत्वपूर्ण मामलों पर फैसले सुनाने का सिलसिला जारी है और इसी कड़ी में 14 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले की जांच कराने की याचिका नामंजूर कर दी, कोर्ट की अवमानना मामले में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का माफीनामा मंजूर कर लिया। हालांकि प्रधानमंत्री के लिए परोक्ष रूप से ‘चोर’ शब्द के इस्तेमाल पर अदालत ने अप्रसन्नता भी जाहिर की। सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर अपने पुराने आदेश को अदालत ने बदला तो नहीं, लेकिन इससे जुड़ी याचिका को विचार के लिए और बड़ी पीठ को संदर्भित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में देश के अहम मामलों से जुडी खबरें लगातार आने से यह भ्रम बन सकता है कि हमारी न्याय प्रणाली बहुत सक्रियता से काम कर रही है। इस सक्रियता को देखकर हिन्दी फिल्म का वह डॉयलाग बीते दिनों की बात लग सकता है जिसमें अदालतों की कार्यप्रणाली को लेकर ‘तारीख पर तारीख’ जैसा तंज किया गया था। लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए, जिस समय सुप्रीम कोर्ट से महत्वपूर्ण मामलों पर फैसले आने का सिलसिला शुरू हुआ, उसके तीन दिन पहले आई एक रिपोर्ट को ध्यान से देखने की जरूरत है। देश में इस तरह की रिपोर्ट पहली बार तैयार की गई है। टाटा ट्रस्ट और अन्य कई संस्थानों के सहयोग से तैयार इस रिपोर्ट को 6 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एमबी लोकुर ने दिल्ली में जारी किया है।
‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ नाम से तैयार इस दस्तावेज में भारत की न्याय व्यवस्था और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर ध्यान दिया गया है। इनमें अदालतों की स्थिति और न्यायाधीशों की उपलब्धता से लेकर पुलिस तंत्र और जेलों की स्थिति तक का ब्योरा शामिल है। रिपोर्ट जारी करते समय जस्टिस लोकुर का यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है कि- ‘’यह मार्गदर्शक अध्ययन है जिसके नतीजों से साबित होता है कि निश्चित तौर पर हमारी न्याय प्रणाली में बहुत गंभीर कमी है। न्याय प्रणाली की चिंताओं को मुख्यधारा में लाने का यह बेहतरीन प्रयास है जो समाज के हर हिस्से, शासन और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है।‘’
देश में न्याय प्रणाली और उसकी स्थिति को लेकर चिंताएं नई नहीं हैं। समय समय पर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में काम करने वाले संगठनों से लेकर स्वयं उच्च अदालतें तक इस दिशा में ध्यान दिलाती रही हैं। लेकिन आज भी स्थिति यह है कि एक तरफ अदालतें मुकदमों के बोझ से धंसती जा रही हैं वहीं न्याय में होने वाली देरी ने पूरी न्याय व्यवस्था पर से लोगों के विश्वास को डिगाया है। मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं के वैसे तो अन्य कई कारण हैं, लेकिन लोगों या भीड़ के द्वारा इस तरह के कदम उठाने का एक कारण यह भी है कि उनका यह भरोसा अब बहुत कम हो चला है कि यदि कोई अपराध करेगा तो उसे सजा भी मिलेगी।
अविश्वास की यह बुनियाद पुलिस में एफआईआर दर्ज होने में की जाने वाली देरी या लापरवाही से ही डल जाती है। फिर जांच में देरी, जांच का विभिन्न कारणों से प्रभावित होना, जांच एजेंसियों पर पड़ने वाले तमाम तरह के दबाव, सब के सब मामले को कमजोर बनाते चलते हैं। इसके बाद भी यदि कोई मामला कोर्ट के दरवाजे तक पहुंच जाता है तो वहां भी इंतजार का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। हाथ आती है तो केवल तारीखें और वकीलों के बिल।
और अकसर यह होता है कि जांच में रह जाने वाली खामियों के चलते अपराधी छूट जाते हैं। इसी साल अगस्त में खुद देश के गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के स्थापना दिवस समारोह में कहा था कि यह ‘थर्ड डिग्री’ का युग नहीं है, हमें जांच के लिए वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करने की आवश्यकता है। क्रिमिनल और क्रिमिनल माइंडेड लोगों से पुलिस को चार कदम आगे रहना चाहिए। और ये तभी संभव हो सकता है जब पुलिस का आधुनिकीकरण सही प्रकार से हो।
मुझे याद है भोपाल में ही एक कार्यक्रम के दौरान मध्यप्रदेश के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ला, जो इन दिनों सीबीआई के निदेशक हैं, ने बहुत मार्के की बात कही थी। उनका कहना था कि अपराध तंत्र संचार और तकनीक के अत्याधुनिक संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल कर रहा है और उसकी तुलना में पुलिस के पास संसाधन और तरीके आज भी पुराने जमाने के ही हैं। सोशल मीडिया का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था कि यदि कहीं कोई तनाव पैदा करने वाली वारदात हो जाए तो पुलिस तंत्र जब तक उससे निपटने के लिए खुद को तैयार करेगा तब तक वह मामला सोशल मीडिया के जरिये कई जगहों तक फैल चुका होगा। ऐसे में जहां एक जगह ध्यान केंद्रित कर मामले को संभाला जा सकता है वहीं पुलिस को कई जगह एकसाथ अपनी ताकत और संसाधन लगाने पड़ते हैं।
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट भी कमोबेश इसी तरफ इशारा करती है। इसकी एक ही बानगी काफी है। रिपोर्ट कहती है कि देश के छह राज्य ऐसे हैं जहां पुलिस बल में महिलाओं की भागीदारी 33 फीसदी करने में 100 से 300 साल लग जाएंगे। और जम्मू-कश्मीर में तो ऐसा करने के लिए 3535 साल लगेंगे। …तो आप ही सोच लीजिए न्याय की डगर कितनी कठिन है…