फ़िक्र गरीबों की कीजिये, अमीरों की नहीं

राकेश अचल

कोरोना के मकड़जाल में देश को उलझाकर समूचे जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देने वाली सरकार की प्राथमिकताओं में लगता है कि गरीब अभी भी कहीं नहीं है। मामला चाहे 20 लाख करोड़ के विशेष पैकेज का हो, चाहे सार्वजनिक यातायात आरम्भ करने का। सरकार 51 दिन बाद भी सड़कों पर हजारों किमी की पदयात्रा के लिए अभिशप्त गरीब के साधनों की नहीं सोच रही, उसे वातानुकूलित रेल और हवाई सेवाएं शुरू करने की चिंता है।

देश में गत 12 मई से गिनी-चुनी वातानुकूलित रेल शुरू करने वाली सरकार को पता नहीं कि देश का 80 करोड़ आदमी इन रेलों में बैठने की हैसियत आज भी नहीं रखता। उसकी जरूरत बिना ऐसी वाली रेल ही नहीं, सुविधाहीन बस और टेम्पो आज भी हैं। सरकार ने इनके बारे में अभी तक कुछ भी नहीं सोचा, क्योंकि सोचने की फुरसत नहीं है। सरकार जानती है कि इस नंगे-भूखे वर्ग को अभी कुछ दिन और कैद रखा जा सकता है, क्योंकि ये वर्ग अब प्रतिकार करने की स्थिति में है ही नहीं।

खबरें आ रहीं है कि सरकार 17 मई से विमान सेवा शुरू करने के बारे में भी गंभीर है। क्योंकि वातानुकूलित रेल सेवाओं का लाभ लेने वाले वर्ग की तरह विमान सेवा भी उसी वर्ग के लिए जरूरी हो गयी है जो सरकार की जेबें भर सकता है या सरकार को आंखें दिखा सकता है। आपको याद ही है कि विमान सेवाओं पर समय रहते रोक न लगाने से ही दुनिया में कोरोना इतना फैला। मैं तो उन लोगों में से हूँ जो आवागमन की किसी भी सेवा को बाधित करने के खिलाफ हैं। ये साधन तो जीवन रेखा हैं, इन्हें बंद कर आपने जनता का गला घोंट दिया है।

दुर्भाग्य की बात ये है कि स्टंटबाजी में दक्ष सरकार 20 लाख करोड़ के पैकेज का ढोल पीटकर उसके शोर में गरीब जनता की सिसकियाँ दबा देना चाहती है। हकीकत ये है कि इस 20 लाख करोड़ में से सड़कों पर कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंगती जनता के हाथ में कुछ आने वाला नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था और जीवनशैली दूसरे देशों से भिन्न है। यहां की आबादी को देखते हुए अंत्योदय का फार्मूला ही बेहतर है, लेकिन अब इसे भुला दिया गया है, अब उसका उदय किया जा रहा है जो सड़क पर नहीं है। जिसके पास पचास दिन क्या, पचास महीने के खाने-पीने का इंतजाम है।

सब जानते हैं कि जिस अविवेकपूर्ण तरीके से देश में तीन चरणों में लॉक डाउन लागू किया गया उससे बाहर आना कितना कठिन है? लेकिन लॉक डाउन से बाहर तो आना ही होगा, इसलिए सबसे पहले उस वर्ग के बारे में सोचा जाना चाहिए था जिसके पांव घर में बैठे-बैठे सुन्न हो गए हैं, हाथ जकड़ गए हैं। शुरुआत वातानुकूलित रेलों से नहीं, ऑटो-रिक्शा और बसों से की जाना चाहिए थी।

पहले स्थानीय, फिर अंतरजिला और फिर अंतर्राज्यीय आवागमन आरम्भ किया जाना चाहिए था, अंतर्राष्ट्रीय आवागमन को सबसे अंत में खोला जाना चाहिए। लेकिन हो उलटा रहा है। आप अपने घर से बाजार तक जाने के लिए तरसिये लेकिन वातानुकूलित ट्रेन आपको दिल्ली से कोलकाता, मुंबई और बेंगलूरू जरूर ले जा सकती है।

सरकार ने जो वातानुकूलित रेलें चलाईं, उनमें भी कोरोना रोकने के लिए बनाये गए नियमों का पालन नहीं कराया गया, हो भी नहीं सकता ऐसा। क्योंकि ये असंभव काम है। न हमारी रेलों की बैठक व्यवस्था बदली गयी है और न यात्रियों की मानसिकता। और सबसे बड़ी बात है कि हमारे पास कोई प्रबंध या दीर्घकालिक योजना ही नहीं है।

जब मजदूरों ने देश को हिला दिया तो श्रमिक स्पेशल चला दी और जब मध्यम वर्ग कुनमुनाया तो वातानुकूलित रेल चला दी। ये अनाड़ीपन है। जमीनी हकीकत का आकलन कर फैसले लेने की जरूरत है, केवल राष्ट्र के नाम आभासी सन्देश देने से भारत की तस्वीर बदलने वाली नहीं है।

हर समय आलोचना आपका मकसद न भी हो तो सरकार इसके लिए विवश करती है। सरकार के फैसले दिन-प्रतिदिन बेहूदगी से भरे होते हैं, उन्‍हें देखकर कभी हँसी आती है तो कभी गुस्सा आता है। लेकिन आप कुछ कर नहीं सकते, सिवाय आलोचना के। मै ऐसे तमाम उम्रदराज लोगों को जानता हूं जो 80 साल के ऊपर के हैं, बैंक जाना चाहते हैं, लेकिन नहीं जा सकते। शहर में ऑटो-रिक्शा नहीं चल रहे, बेचारे किसके साथ जाएँ?

बैंकों ने ऐसे उम्रदराज लोगों के लिए घर बैठकर लेनदेन की सुविधा का ढिंढोरा पीटा था लेकिन हकीकत ये है कि बैंक के पास इस योजना पर अमल के लिए स्टाफ ही नहीं है। अब ये समस्या तो प्रधानमंत्री जी नहीं जानते। मुख्यमंत्री जी को नहीं पता, फिर इसका निराकरण कैसे होगा?

मै सचमुच भारतीय जनमानस की वंदना करना चाहता हूँ जो इतनी असहज परिस्थिति में भी सरकार के खिलाफ बगावत पर नहीं उतरा। राष्ट्रवाद के नाम पर उसने सब झेल लिया। न आंसू बहाये और न फरियाद की। सरकार ने इसे ही जनता का तप और त्याग मान लिया, काश इतना तप और त्याग नेता बिरादरी और नौकरशाही भी कर दिखाती, सो नहीं, इसके लिए तो गरीब जनता ही बनाई गयी है।

मैं पता नहीं क्या अलाप करने में लगा हूँ! मै क्या करूं, आम आदमी जो ठहरा। आम आदमी की मुसीबतों के साथ जीने के लिए अभिशप्त। मुझे कोई बता नहीं रहा कि सर्राफा बजार में पानी-पूरी बेचने वाले सोनू को 20 लाख करोड़ के पॅकेज का लाभ कैसे मिलेगा, जबकि उसे पानी-पूरी बेचने की इजाजत ही नहीं मिल रही।

हजामत बनाने वाला, मिट्टी के घड़े बनाकर बेचने वाला या कि फुटपाथ पर बैठकर अपनी रोजी कमाने वाले आदमी को इस 20 लाख करोड़ के विशेष पैकेज में से अपना हिस्सा पाने के लिए कौन से दफ्तर में जाकर कतार में लगना होगा?

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