लोगों का भला सोचिए, राजनीतिक लाभ तो वैसे ही मिल जाएगा

0
1209

भोपाल में स्‍मार्ट सिटी के वर्तमान प्रोजेक्‍ट को रद्द करने की खबर जब आई तो शहरी नियोजन को लेकर कई सारे सवाल जेहन में आ गए। लगा कि मध्‍यप्रदेश में शहरी नियोजन की वैसी दृष्टि अभी न तो राजनीतिक स्‍तर पर और न ही प्रशासनिक स्‍तर पर विकसित हो पाई है, जो विकास की गतिविधियों को पर्यावरण संरक्षण के साथ आकार दे सके। मुश्किल यह है कि हम एक ध्रुव पर खड़े होकर विकास की बात करते हैं और दूसरे ध्रुव पर खड़े होकर पर्यावरण संरक्षण की। ऐसी सोच नहीं दिखती जहां यह कहा जा सके कि दोनों के बीच बेहतर सामंजस्‍य स्‍थापित करके भविष्‍य की रूपरेखा तय की जा रही है।

विकास संबंधी योजनाओं के साथ सबसे बड़ी दिक्‍कत यह है कि वे मूल रूप से प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा तैयार की जाकर राजनीतिक नेतृत्‍व के सामने प्रस्‍तुत की जाती हैं। मैं ऐसा नहीं कहता कि राजनीतिक नेतृत्‍व बिलकुल नासमझ होता है, लेकिन उसकी जो भी समझ होती है, वह लोगों से मिलने वाले अनुभव के आधार पर बनती है क्‍योंकि नेता जनता के द्वारा चुनकर आता है। दूसरी तरफ प्रशासनिक समझ मैदानी नहीं बल्कि ज्‍यादातर किताबी होती है। भारत की प्रशासनिक लॉबी दरअसल एक बहुत विशाल घराना है, जहां राग कोई भी गाया जाए मूल सुर और ताल नहीं बदलते।

तो जब स्‍मार्ट सिटी के नाम पर भोपाल के शिवाजी नगर और तुलसी नगर की बलि देने की योजना तैयार हुई तो उसका विरोध होना स्‍वाभाविक था। मध्‍यप्रदेश विकास जरूर कर रहा है, पिछले कुछ सालों में उसने अपने शरीर से बीमारू होने की केंचुल भी उतार फेंकी है, लेकिन अभी भी उसकी चमड़ी इतनी मजबूत नहीं हुई है कि वह मौसम की हर मार को सहन कर सके। दूसरी बात यह कि विकास की तमाम गतिविधियों, बढ़ते शहरीकरण और आधुनिक संसाधनों के बावजूद राज्‍य में आज भी एक भी शहर ऐसा नहीं है जो मेट्रो या कॉस्‍मोपॉलिटन शहर की श्रेणी में रखा जा सके। हम कहने को इंदौर जैसे शहर को अपनी तसल्‍ली या शान बढ़ाने के लिए अपना मेट्रो कह जरूर देते हैं, लेकिन इंदौर भी अपनी मूल आत्‍मा में आज भी एक वृहद आकार वाला कस्‍बा ही है। हां, उसमें कुकुरमुत्‍ते की तरह कुछ आधुनिक बस्तियां जरूर उग आई हैं। यही हाल भोपाल का है। यहां भी आज ज्‍यादातर इलाके ऐसे हैं जिनकी शक्‍ल और सूरत पिछले चालीस-पचास सालों में भी वैसी की वैसी ही है। खासतौर से नए भोपाल की बस्तियों की। तो यहां विकास के लिए और इस शक्‍ल सूरत को बदलने के लिए नियोजनकर्ताओं को तरीके भी वही अपनाने होंगे जो यहां के मानस के मुआफिक हों। वरना किसी भी प्रोजेक्‍ट का वैसा ही हाल होगा जो र्स्‍माट सिटी योजना का हुआ।

दूसरी बात जनता को सही बात बताने और सही बात पर उसकी सही राय लेने की है। आपकी प्रक्रिया इतनी पारदर्शी और निष्‍पक्ष होनी चाहिए कि, आप जब भी किसी योजना का अंतिम खाका लेकर आएं, तो खम ठोक कर कह सकें कि ये फैसला मुट्ठी भर लोगों का नहीं बल्कि इलाके की जनता का है। शिवाजी नगर और तुलसी नगर वाली स्‍मार्ट सिटी के साथ यही गड़बड़ हुई। कहने को भोपाल नगर निगम के कर्ताधर्ताओं ने रायशुमारी जरूर करवाई, लेकिन उसका तरीका ऐसा रखा जो, उस समय बिलकुल काम नहीं आया जब यह आरोप लगा कि वह रायशुमारी तो फर्जी थी। ऐसे मामलों में रायशुमारी किसी आमसभा की तरह नहीं होती। न ही बंद कमरों में चंद लोगों के साथ चाय-चूड़ा करके हो सकती है। उसका बाकायदा पक्‍का डाक्‍यूमेंटेशन जरूरी है। ताज्‍जुब इस बात का है कि एक चुनी हुई नगरीय संस्‍था ने रायशुमारी करवाई और जब जरूरत पड़ी तो खुद उसी पार्टी के विधायक और मंत्री यह कहते हुए सामने आ गए कि हमसे तो पूछा ही नहीं गया। यानी उस बात पर खुद सत्‍तारूढ़ दल के प्रतिनिधियों ने ही मुहर लगा दी, जो स्‍मार्ट सिटी की वर्तमान योजना का विरोध करने वाले लोग कह रहे थे।

अब सवाल यह कि आगे क्‍या? तो आगे जो भी योजना बने, उसमें अव्‍वल तो वो गलतियां न दोहराई जाएं जो पहले वाले प्रोजेक्‍ट में की गई थीं, जैसे कि जो भी कुछ किया जाए उसका पूरी तरह पारदर्शी तरीके से डाक्‍यूमेंटेशन हो। जनता और जनप्रतिनिधियों, सभी को विश्‍वास में लिया जाए। किसी भी शहर का विकास, किसी एक या खास राजनीतिक दल का विषय नहीं है। फिर भले ही वह दल सरकार से लेकर नगरीय निकाय तक ही सत्‍तारूढ़ क्‍यों न हो। इसमें आप सभी से बात करें, सहमति बनाएं और समावेशी विकास की सोच के साथ आगे बढ़ें। चूंकि स्‍वयं मुख्‍यमंत्री ने जनभावनाओं का सम्‍मान करते हुए स्‍मार्ट सिटी के स्‍थान परिवर्तन की बात कही है, इसलिए जाहिर है, अगले प्रोजेक्‍ट की रूपरेखा तैयार करवाने में सारा दारोमदार भी उन्‍हीं के कंधों पर आ गया है। जो बड़ा दिल पुराना प्रोजेक्‍ट वापस करने में दिखाया गया है उससे भी बड़े दिल से यदि नए स्‍मार्ट सिटी प्रोजेक्‍ट की रचना होगी तो उससे शहर का भी भला होगा और लोगों का भी। और वास्‍तव में यदि लोगों का भला हो, तो राजनीतिक लाभ तो वैसे ही मिल जाता है। बात भी लोगों के भले और राजनीतिक लाभ तक ही सीमित रहनी चाहिए, वरना बहुत दूर तक चली जाती है।

गिरीश उपाध्‍याय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here