सजा तो है, लेकिन सजा का डर और असर भी है क्‍या?

जो चुनाव आयोग पिछले कई दिनों से हंसी और आलोचना का पात्र बना हुआ था, उसने चौतरफा दबाव के चलते आखिरकार 15 अप्रैल को चार नेताओं, उत्‍तरप्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी, बसपा प्रमुख मायावती और सपा नेता आजम खान को चुनाव प्रचार करने से कुछ घंटों के लिए प्रतिबंधित कर यह दिखाने की कोशिश की कि वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा है। यह बात अलग है कि आयोग का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के हस्‍तक्षेप के बाद उठ पाया।

16 अप्रैल को इसी सिलसिले में हुई कुछ और घटनाएं चुनाव प्रकिया को साफ सुथरा और निष्‍पक्ष बनाने की दिशा में आने वाली व्‍यावहारिक अड़चनों की ओर इशारा करती हैं। सबसे पहले तो यह हुआ कि बसपा सुप्रीमो मायावती, खुद पर लगाए गए प्रतिबंध के खिलाफ, सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्‍हें कोई राहत न देते हुए आयोग के आदेश में हस्‍तक्षेप से इनकार कर दिया। प्रधान न्‍यायाधीश रंजन गोगोई ने गहरे अर्थों वाली टिप्‍पणी के साथ आयोग का बचाव करते हुए कहा- ‘’लगता है चुनाव आयोग को उसकी शक्तियां वापस मिल गई हैं।‘’

पर चुनाव आयोग ने भले ही नेताओं को 48 से 72 घंटे तक चुनाव प्रचार से प्रतिबंधित कर उन्‍हें उनके किए की सजा देने की कोशिश की हो, लेकिन प्रतिबंध के बाद हुई घटनाएं बताती हैं कि सचमुच चुनाव आयोग को और अधिक मजबूती दिए जाने की जरूरत है। इसके साथ ही आचार संहिता के उल्‍लंघन के मामलों में उठाए जाने वाले कदमों/सजा पर भी और विस्‍तार से बहस होनी चाहिए ताकि सजा सिर्फ दिखावटी न लगे बल्कि उसका असर भी हो।

होता यह है कि ऐसे मामलों में लाठी ही टूट जाती है और सांप जिंदा रहता है। आयोग कदम तो उठाता है, लेकिन हर बात का तोड़ निकालने में माहिर राजनेता डाल-डाल और पात-पात वाली कहावत से भी आगे निकलकर, तू पात-पात तो हम रेशा-रेशा की तर्ज पर रास्‍ता निकाल लेते हैं। वे सजा का भी मजा लेने लगते हैं। ऐसे में लगता ही नहीं कि किसी को कोई सजा मिली है या कि दी गई सजा से संबंधित व्‍यक्ति के आचरण अथवा व्‍यवहार में कोई परिवर्तन आया है।

अब योगी आदित्‍यनाथ का ही मामला ले लीजिए। चुनाव आयोग ने उन्‍हें प्रचार करने से रोका तो 16 अप्रैल को वे लखनऊ के प्रसिद्ध हनुमान सेतु मंदिर में दर्शन करने पहुंच गए। उन्होंने दर्शन के बाद मंदिर परिसर में ही हनुमान चालीसा का पाठ किया। खबरों के मुताबिक उनके साथ पार्टी के तमाम नेता भी थे। इससे पहले योगी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर जवाब दिया था कि मैं हर शुभ काम की शुरुआत से पहले ’बजरंग बली’ को याद करता हूं…

आप कह सकते हैं कि चुनाव आयोग ने सिर्फ योगी के प्रचार करने पर पाबंदी लगाई है। उन्‍हें मंदिर में ‘दर्शन’ करने जाने से तो रोका नहीं जा सकता। पर खेल क्‍या है? योगी जी अपने कथनानुसार, भले ही किसी शुभ काम से पहले बजरंग बली को याद करते हों या न करते हों, लेकिन इस मौके पर बजरंग बली को ही याद करना लाजमी था। क्‍योंकि उन पर आरोप ही ‘अली और बजरंग बली’ वाला बयान देने का है। योगी ने खुद को मिली सजा के चलते चुनाव प्रचार भले ही न किया हो, लेकिन बजरंग बली के मंदिर में जाकर उन्‍होंने किसी चुनावी सभा से कहीं अधिक गहरा और व्‍यापक संदेश अपने समर्थकों को दे दिया।

यह भी दलील दी जा सकती है कि योगी को इस तरह समर्थकों के साथ मंदिर जाने से रोका जाना चाहिए था। पर जरा कल्‍पना कीजिए कि यदि योगी को मंदिर जाने से रोक दिया जाता तो क्‍या होता? तूफान खड़ा हो जाता। मंदिर दर्शन से भी और बड़ा संदेश, इस सवाल के जरिये पूरे देश में पसरा दिया जाता कि, क्‍या अब भारत में एक हिंदू, मंदिर दर्शन करने भी नहीं जा सकता?  क्‍या उसे अपने आराध्‍य की पूजा अर्चना से भी रोका जाएगा? आप बस सोचकर देखिए, यदि यह प्रचार पूरे देश में हो तो, क्‍या योगी की दो-चार नहीं, सैकड़ों सभाओं से ज्‍यादा भारी साबित नहीं होगा?

चुनाव आयोग और उसके असर की जब भी बात चलती है तब पूर्व चुनाव आयुक्‍त टी.एन.शेषन का उदाहरण हमेशा दिया जाता है। निश्चित रूप से शेषन ने अपने समय में दिखा दिया था कि आयोग के पास नाखून भी हैं और दांत भी। लेकिन शेषन जब चुनाव आयुक्‍त थे उस बात को 23 साल बीत चुके हैं और इन 23 सालों में देश के नालों में न सिर्फ बहुत गंदगी बह चुकी है बल्कि उन नालों को पाटकर उन पर आलीशान कॉलोनियां खड़ी कर ली गई हैं।

समय और परिस्थितियां बहुत बदल गई हैं। शेषन ने अपने समय में झंडे, डंडे, बैनर और लाउडस्‍पीकर पर प्रतिबंध लगाकर वाहवाही लूट ली थी, लेकिन आज संचार क्रांति का जमाना है, सोशल मीडिया का जमाना है। आज इस तरह के प्रतिबंधों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। व्‍यक्ति को अपनी बात पहुंचाने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं, मीडिया और संचार के तमाम साधन, उसके घर से हिले बगैर, पूरी दुनिया में उसका संदेश फैला सकते हैं।

मेरी एक आपत्ति और है… यूं तो मीडिया चीखता चिल्‍लाता रहता है कि आचार संहिता का उल्‍लंघन करने वाले नेताओं पर कार्रवाई होनी चाहिए और जब कार्रवाई होती है तो वही मीडिया, उन्‍हीं नेताओं के, उन्‍हीं आपत्तिजनक बयानों कोबार-बार दिखाता है। 16 अप्रैल को पूरे दिन यही हुआ। नेता पर यदि प्रतिबंध है तो क्‍या मीडिया पर ऐसी कोई लगाम नहीं होनी चाहिए कि प्रतिबंध की अवधि में उस नेता से संबंधित कोई भी सामग्री, खासतौर से उसकी प्रचारात्‍मक सामग्री प्रकाशित या प्रसारित नहीं की जाएगी। और कोई कहे या न कहे, यदि आप चुनावों में नैतिकता और शुचिता के इतने ही बड़े झंडाबरदार हैं तो क्‍या आप को खुद भी ऐसे बयानों पर टीआरपी बटोरने के बजाय उन्‍हें प्रतिबंधित करने का साहस नहीं दिखाना चाहिए?

चुनाव प्रक्रिया में नैतिकता और शुचिता को बनाए रखना सिर्फ चुनाव आयोग की नहीं, हम सबकी जिम्‍मेदारी है। यदि माहौल ऐसा बना दिया जाए कि संवैधानिक संस्‍थाएं जो भी फैसला सुनाती रहें, हमें तो मनमर्जी ही करनी है, तो फिर कोई भी नियम कायदा लागू नहीं हो सकता। सजा का डर यदि लाभ के सौदे में बदल दिया जाएगा तो सजा से डरेगा कौन? 

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