आज लोकसभा चुनाव 2019 को लेकर दो तीन मुद्दे विचार करने लायक हैं। इनमें सबसे पहला मुद्दा 17वीं लोकसभा के लिए हो रहे मतदान का है। मोटे तौर पर जो खबरें आ रही हैं वे कहती हैं कि चुनाव को लेकर जितना घमासान राजनेताओं और मीडिया के बीच दिखाई दे रहा है उसकी छाया मतदाताओं द्वारा किए जाने वाले मतदान में दिखाई नहीं दे रही है।
मध्यप्रदेश में जब चार महीने पहले विधानसभा का चुनाव हुआ था तब उसके आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए मैंने लिखा था कि भले ही जाहिरा तौर पर मतदान में 2.92 फीसदी की बढ़ोतरी का हल्ला मचाया जा रहा हो, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से, मतदाताओं की संख्या में हुई बढ़ोतरी के लिहाज से देखें तो, विधानसभा क्षेत्रवार मतदान में वास्तविक वृद्धि सिर्फ 0.08 फीसदी की ही हुई है।
ऐसे समय में जब चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दलों तक यह घनघोर प्रचार किया जा रहा हो कि मतदान अवश्य करिए, करोड़ों रुपए लोगों को मतदान के लिए प्रेरित करने पर खर्च किए जा रहे हों वहां उसका असर एक प्रतिशत से भी कम हो तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर प्रचार के इस तामझाम का औचित्य क्या है?
मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि 17 वीं लोकसभा के लिए कुल सात चरणों में होने वाले मतदान के पहले तीन चरणों में क्रमश: 69.45, 69.43 और 64.66 फीसदी मतदान हुआ है। यह कॉलम लिखे जाने तक चौथे चरण में शाम सात बजे तक 61.51 फीसदी मतदान हुआ है। अंतिम आंकड़ों में इसमें दो तीन फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। लेकिन फिर भी यह अपेक्षानुरूप नहीं है।
टीवी चैनलों पर मैं सोमवार को देख रहा था, लगभग सारे ही चैनल मुंबई के फिल्मकारों के आगे पीछे घूमते हुए चुनावी स्याही लगी उनकी उंगलियां दिखा रहे थे। अब जरा मुंबई का हाल सुनिये। वो शहर जो सबसे पढ़े लिखे, जागरूक, प्रगतिशील, आधुनिक और संपन्न लोगों का शहर माना जाता है। जहां रहने वाली बॉलीवुड हस्तियों को अपने दल में लाने और उन्हें चुनाव लड़ाने के लिए पार्टिंयां मरी जाती हैं। वो शहर जहां की फिल्मी हस्तियां देश भर में लोगों को मतदान के लिए प्रेरित करने वाले संदेश देती हैं। उस शहर में मतदान की हालत बहुत दयनीय थी।
शाम सात बजे तक के आंकड़े बता रहे थे कि उत्तर मुंबई में 57.57 प्रतिशत, उत्तर पश्चिम में 53.53, उत्तर पूर्व में 54.93, उत्तर मध्य में 47.94, दक्षिण मध्य में 53.49 और मुंबई दक्षिण में 49.52 फीसदी ही मतदान हुआ। अब कहां हैं वे लोग जो कहते हैं कि जानी मानी हस्तियों के प्रचार प्रसार करने से मतदान के प्रतिशत में बढ़ोतरी होती है। दरअसल यह भी बाजार का एक खेल है जिसमें न सिर्फ राजनीतिक दल बल्कि हमारा चुनाव आयोग भी दीवाना नजर आता है।
और चुनाव आयोग की बात चली है तो एक किस्सा और सुनते चलिए। सोमवार को ही आयोग ने अपनी वेबसाइट पर एक आदेश और एक नोटिस की प्रतियां पोस्ट कीं। इनमें से आदेश, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के खिलाफ दिया गया फैसला है, जबकि नोटिस केंद्रीय मंत्री गिरिराजसिंह को आचार संहिता के उल्लंघन पर दिया गया है।
मेनका गांधी वाला किस्सा 14 अप्रैल को सुलतानपुर चुनाव क्षेत्र के सरोठा गांव में ली गई चुनाव सभा का है। उसमें मेनका ने कहा था-
‘’मुझे नहीं मालूम, यहां करूंगी कि नहीं, क्योंकि पीलीभीत में मैं हर राउण्ड को इलेक्शन के बाद परखती हूं कि कितने वोट मिले। फिर अंदाज लेते चार खानों ए,बी,सी,डी में (रखती हूं) पहला खाना ए है जहां मुझे 80 फीसदी वोट मिले। दूसरा बी जिसमें 60 फीसदी वोट मिले, सी जिसमें 50 फीसदी वोट मिले और डी जिसमें हम हारे। अब जब काम शुरू होता है तो बहुत तगड़े से ए में शुरू होता है, जब ए खत्म हो जाए तभी बी में होता है और जब बी खत्म हो जाए तभी सी में होता है। डी में होता है या नहीं होता है मुझे नहीं पता… आप समझ गए… अब आपको कोशिश ये करनी है कि हर गांव को ए और ए नहीं तो बी में रखें, क्योंकि मैं आज आई हूं देने के लिए, लेकिन आपको मुझे बहाना देना है देने का…’’
आपको याद होगा मैंने मेनका गांधी के इसी भाषण को लेकर इसी कॉलम में लिखा था कि ‘’चुनाव लोकतंत्र का अनुष्ठान है, कोई अड़ीबाजी नहीं’’ अब सोमवार को चुनाव आयोग ने इस मामले में जो फैसला सुनाया है वह मेनका गांधी को जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत घूस और भ्रष्टाचार संबंधी धाराओं के उल्लंघन का दोषी ठहराता है। आयोग ने मंत्री को याद दिलाया है कि पहले भी उनके आपत्तिजनक भाषणों के चलते उन पर 16 अप्रैल को 48 घंटों के लिए प्रचार से प्रतिबंधित करने का फैसला सुनाया गया था।
अब जरा ताजा आदेश की भाषा सुनिये। मंत्री को कानून के उल्लंघन पर पूर्व में दी गई सजा का उल्लेख करने और दुबारा कानून के उल्लंघन का दोषी पाए जाने के बावजूद आयोग कहता है- ‘’हम श्रीमती मेनका गांधी द्वारा दिए गए बयान की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं और उन्हें चेतावनी देते हैं कि भविष्य में वे इस तरह का कदाचरण न दोहराएं।‘’
यानी हो गई खानापूरी। जब आचार संहिता के आदतन अपराधी के साथ यह सलूक है तो क्या तो मतलब है इस जनप्रतिनिधित्व कानून का और क्या तो हैसियत है चुनाव आयोग की। और फैसला भी कमाल का है। पहली बार के अपराध पर सजा, लेकिन दुबारा अपराध किए जाने पर सिर्फ निंदा… यह कौनसा न्याय सिद्धांत और कौनसी निष्पक्षता है भाई…
और चलते चलते गिरिराजसिंह का मामला भी सुनते जाइए। वैसे तो गिरिराजसिंह और उनके बड़बोलेपन पर बताने की ज्यादा जरूरत नहीं है, लेकिन आयोग ने उनके जिस भाषण पर नोटिस जारी किया है उसमें वे कहते हैं- ‘’जो वंदे मातरम नहीं कह सकता, जो भारत की मातृभूमि को नमन नहीं कर सकता, अरे गिरिराज के तो बाबा-दादा सिमरिया घाट में गंगा के किनारे मरे, उसी भूमि पर कब्र भी नहीं बनाया, तुम्हें तो तीन हाथ की जगह भी चाहिए, अगर तुम नहीं कर पाओगे तो देश कभी माफ नहीं करेगा…’’
तय मानिए, इस बयान पर गिरिराज का भी कुछ नहीं होने वाला। उन्हें भी निंदा या चेतावनी जैसी प्रतीकात्मक सजाएं मिल जाएंगी। मैंने पहले भी लिखा था कि ‘’सजा तो है लेकिन सजा का डर और असर भी है क्या?’’ आज फिर कहता हूं, इस ढीठ और धूर्त राजनीतिक दौर में ऐसी चेतावनी-फेतावनी और चुप्पी सजाओं की परवाह कौन करता है…?