राकेश दीवान
पिछले करीब तीन दशकों से हर साल पांच जून को विधि-विधान से ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाने वालों का इस साल भांडा फूट गया है और इसे अंजाम देने वाली है – एक अज्ञात कुल-शील की ऐसी बीमारी जिसके न तो कोई स्पष्ट लक्षण हैं और न ही कोई इलाज। मुकुट यानि क्राउन के आकार के कोरोना वायरस से उपजी ‘कोविड-19’ नाम की इस बीमारी ने और कुछ किया हो, न किया हो, पर्यावरण को लेकर किए जाने वाले हमारे कर्मकांडों की बेशर्मी को खुलकर उजागर कर दिया है।
‘गांधी पुण्यतिथि’ यानि 30 जनवरी को केरल में मिले इस बीमारी के पहले प्रभावित को दर्ज करने तक किसी को अंदाजा नहीं था कि ‘कोविड-19’ पर्यावरण के लिए इतने काम का निकलेगा। मार्च की 24 तारीख को पहले ‘लॉकडाउन’ की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री समेत कोई सोच भी नहीं रहा था कि कोरोना वायरस को भगाने का यह अललटप्पू इलाज असल में कोई और गुल भी खिला देगा।
‘लॉकडाउन’ की दूसरी-तीसरी किस्त लगते-लगाते जिस बात का खुलासा हुआ वह पिछली कई सदियों में नहीं हुआ था। देश-बंदी के इस दौर में लगातार गटर बनती जाती हमारी वे नदियां अचानक साफ-सुथरी दिखाई देने लगीं जिन्हें हम मां-बाप से लगाकर पुण्य-सलिला तक न जाने कितनी तरह के विशेषणों से संबोधित करते, पूजते नहीं थकते। गंगा उनमें से एक हैं जिनके प्रदूषण, गंदगी को रोकने के लिए पिछले ढाई-तीन सालों में ही पांच साधुओं ने अपनी जान की बाजी लगाई है।
गंगा को अविरल बहने देने और नतीजे में साफ-सुथरी बनाए रखने की मांग करने वाले इन साधुओं में एक, विश्वविख्यात ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) – कानपुर’ के पूर्व प्राध्यापक डॉ. जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद भी थे जिन्हें केन्द्र सरकार ने ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ का गठन कर उसका पहला सदस्य-सचिव नियुक्त किया था।
इसी गंगा को साफ, प्रदूषण-मुक्त करने के लिए राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव, अटलबिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्रियों ने खासी पहल की थी और प्राधिकरण, विभाग और फिर मंत्रालय बनाकर लाखों-करोड रुपयों का बजट आवंटित किया था। ऐसे में गंगा-सेवा से न्यायपालिका और विधायिका भी क्यों वंचित रहती?
इसलिए देश की सर्वोच्च अदालत ने कई-कई बार गंगा को साफ करने-रखने के लिए तत्कालीन सरकारों को निर्देशित-आदेशित किया और संसद, विधानसभाओं ने अपने-अपने तौर-तरीकों से गंगा-माई के डूबते अस्तित्व पर भावुक, निर्णायक बहसें भी करवाईं, लेकिन सब जानते हैं कि इस सारी मार-मशक्कत के बावजूद मार्च 2020 के अंतिम हफ्ते तक गंगा कतई साफ नहीं हो पाईं।
सत्तर दिन के चार किस्तों वाले इस नामुराद ‘लॉकडाउन’ ने आखिर ऐसा क्या कर दिया? अव्वल तो सरकारी, असरकारी, गैर-सरकारी क्षेत्र के ढेर सारे विद्वानों को भौंचक करते हुए इसने गंगा के अलावा दूसरी कई नदियों को अगली कई दशाब्दियों तक जीने लायक बना दिया। इनमें एक गंगा की सहायक और ऐन देश की राजधानी के बीचम-बीच से गुजरने वाली, उसे पानी पिलाकर उसका मल-मूत्र समेत तरह-तरह का रासायनिक, मेडिकल कचरा ढोने वाली, मृत्यु के देवता यम की बहन यमुना हैं और दूसरी, दर्शन मात्र से ‘तार’ देने वाली, देश को उत्तर-दक्षिण में बांटने वाली, सुख-दात्री नर्मदा हैं।
वैसे तो इस ‘लॉकडाउन’ ने देशभर की अनेक छोटी-बडी नदियों का ढाई महीने की छोटी-सी अवधि में ‘उद्धार’ कर दिया है, लेकिन यह तो देखा ही जाना चाहिए कि यह मामूली-सा दिखने वाला काम हम, अपनी तरह-तरह की चतुरंगिणी सेना के बावजूद क्यों नहीं कर पाए?
‘अनटच्ड बाई ह्यूमन हैन्ड्स’ के दर्जे के, यानि इंसानी हस्तक्षेप के बिना हुए नदियों की सफाई के इस कमाल की वजह बताई जा रही है- रासायनिक कचरे से लगभग पूरी मुक्ति। नदियों और अन्य जलस्रोतों में यह रासायनिक कचरा कारखानों, अस्पतालों और मशीनी कामकाजों की मार्फत बहता रहा है और चूंकि ‘लॉकडाउन’ में ये सारे प्रतिष्ठान बंद थे, इसलिए गंगा, यमुना और नर्मदा समेत सारी नदियां प्रदूषण-मुक्त हो गईं।
ध्यान दें, इस सारे धतकरम में इंसानी मल-मूत्र, सीवर लाइनों आदि को ‘पाप’ का भागीदार नहीं माना जा रहा है, क्योंकि आखिर ‘लॉकडाउन’ में भी ‘नित्य-क्रियाओं’ से तो मुक्ति नहीं पाई जा सकती। यानि यदि दिल्ली और यमुना की बात करें तो स्पष्ट है, जल-प्रदूषण के लिए वे छोटे-बड़े सैकडों कारखाने जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं जिन्हें छोड़कर अभी हाल में, इसी नामुराद ‘लॉकडाउन’ की ‘मेहरबानी’ से हजारों मजदूर थोक में अपने-अपने घर-आंगन की ओर भाग गए हैं।
जाहिर है, हम बहु-चर्चित, बहु-उद्धृत ‘रोजगार का निर्माण’ नदियों यानि पर्यावरण की मौत की नींव पर रखते रहे हैं। यानि आम नागरिकों की रोजी-रोटी पर्यावरण की बर्बादी से पैदा की जाती है।
‘आवश्यक बुराई’ मानकर यदि रोजगार से पर्यावरण-प्रदूषण के इस सीधे जोड़ को अनदेखा भी कर दिया जाए तो सवाल है कि रोजगार की मार्फत मजदूरों को क्या, कैसे मिल पाता है? ‘कोरोना’ वायरस के ‘भारत अवतरण’ के आसपास जनवरी में ही स्विट्जरलैंड के दावोस शहर में दुनिया के धनी-मानी लोगों का एक जमावडा ‘वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम’ के नाम से हुआ था। उसमें मौजूदा अर्थव्यवस्था की पोल-पट्टी खोलते हुए वैश्विक, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ‘ऑक्सफेम’ ने बताया था कि भारत की एक फीसदी आबादी का देश के सालाना बजट से अधिक सम्पत्ति पर कब्जा है।
ये एक प्रतिशत लोग देश की सत्तर फीसदी दौलत के मालिक हैं। दूसरी तरफ, वे लोग हैं जिन्हें रोजगार के नाम पर ललचाकर बेरहम शहरों में बुलाया जाता है और संकट में खाली हाथ, खाली जेब और खाली पेट वापस उनके घर हकाल दिया जाता है। अब यदि रोजगार, प्रदूषण और पूंजी को साथ रखकर देखें तो आसानी से खुलासा हो सकता है कि अव्वल तो रोजगार के नाम पर होने वाला धतकरम असल में आत्महंता है। दूसरे, रोजगार के ‘निर्माण’ का सीधा तआल्लुक पर्यावरण की बर्बादी है और तीसरे, इन सारे खटरागों का फायदा ‘ऊपर’ की एक-डेढ़ फीसदी आबादी को ही होता है।
सचमुच, ईमानदारी से ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाने की हुलस हो तो सत्ता, सेठ और समाज को इन सवालों के ऐसे जबाव खोजने पडेंगे जो सचराचर जगत में इफरात से बिखरे पडे़ हैं और आपको केवल विनम्रता, आदर के साथ उन्हें देखना-समझना भर है। अनेक में से एक बानगी नर्मदा किनारे के आदिवासियों की है।
यदि आप मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, आलीराजपुर, बड़वानी, महाराष्ट्र के धूलिया, नंदूरबार और गुजरात के राजपीपला, नर्मदा जिलों में नर्मदा किनारे बसे भील, भिलाला, मानकर, बारेला आदिवासियों के घर जाएं तो आपको बांस के विभिन्न आकार-प्रकार के कई बर्तन टंगे दिखाई पड़ेंगे। पूछने पर बताया जाएगा कि ये बर्तन मछली मारने के काम आते हैं। और पूछने पर पता चल सकता है कि जब एकाध अकेला मेहमान आए तो सबसे छोटी डलिया में एक-दो मछली मारी जाती है, यदि ज्यादा लोग हों तो थोडे बडे़ बर्तनों का उपयोग किया जाता है और यदि समूची बारात ही द्वार पर आ जाए तो उन्हें खिलाने के लिए जाल उपयोग किया जाता है।
याद रखिए, इस समझदार किफायत से अपने संसाधनों का इस्तेमाल करने वाला इंसान तरह-तरह की मछलियों के भंडार, ठेठ नर्मदा उर्फ ‘मोटली माई’ के ‘पेट’ में पीढि़यों से बसा है। एक उदाहरण यदि आपको संतुष्ट न करे तो पड़ोस के बड़वानी जिले के पाटी ब्लॉक के उन आदिवासियों की भी एक बानगी है जहां अपने ‘सरमदान’ (श्रम-दान) के जरिए बनाए गए करीब 18 गांवों के तालाब, कुंए बनने पर सबसे पहले इस बात की चिंता की गई कि इस रोके गए पानी का उपयोग ‘काए’ में होगा?
अपनी क्षमताओं, संसाधनों और मित्रों की मदद से तैयार जलस्रोतों के बनने पर सबने तय किया कि इस पानी से गन्ना, संकर-गेहूं जैसी ज्यादा पानी वाली फसलों की बजाए मक्का, बाजरा, ज्वार जैसी कम पानी की फसलें ली जाएंगी। ये उदाहरण हमें बेहद बारीकी से सिखाते हैं कि बिना किसी तरह का अहित किए, विकास कैसे किया जा सकता है। अब आदिवासियों से सीखना, न सीखना तो हमारे ही बस में है।
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