प्रदीप शर्मा

एक पुस्तक की यात्रा तब शुरू होती है,  जब कोई पाठक उसको पढ़ना शुरू करता है। यह यात्रा कहीं से भी शुरू हो सकती है,  घर में ही स्टडी रूम से,  बैडरूम से,  लाइब्रेरी से,  दफ्तर अथवा कॉलेज में चुराए हुए पल से या फिर… लंबे ट्रेन के सफर के साथ साथ।

कुछ लोग पुस्तक चखते हैं, कुछ सरसरी निगाह से देखकर रख देते हैं, कुछ पूरी पढ़ते हैं और बहुत कम ऐसे होते हैं, जो पुस्तक को चबा-चबा कर हजम कर जाते हैं। पुस्तक चाटने का मज़ा कोई दीमक से सीखे। सभी जानते हैं, कुछ पाठक किताबी कीड़े होते हैं तो कुछ पुस्तक प्रेमी भी होते हैं। उन्हें पुस्तक से बहुत प्रेम होता है। हर पराई पुस्तक उन्हें अपनी लगती है। अपने घर की पुस्तक उन्हें अखबार बराबर लगती है और पराई पुस्तकों पर वे डोरे डाला करते हैं।

उन्हें पुस्तक हथियाने का बड़ा शौक होता है। एक पुस्तक प्रेमी को पुस्तक मांगने में शर्म नहीं करनी चाहिए। पुस्तकों का हरम ही तो पर्सनल लाइब्रेरी कहलाता है। पुस्तक पढ़े कोई भी,  अथवा न भी पढ़े,  लेकिन अच्छी से अच्छी और महंगी से महंगी पुस्तक रखना हर पढ़े लिखे, बुद्धिजीवी इंसान की पहचान है।

पुस्तक कभी नहीं कहती, वह खरीदी हुई है अथवा किसी से मांगी गई है। वह तो बेचारी कभी यह भी रहस्य उद्घाटित नहीं करती कि वह अपने स्वामी द्वारा छुई भी गई है अथवा नहीं। कुछ बेचारी अभागी पुस्तकों के तो पन्ने ही चिपके रहते हैं। जब ऐसी कुंवारी किताब जब किसी सच्चे पुस्तक प्रेमी के हाथ लगती है, तब उसके बंद पन्ने फड़फड़ा उठते हैं। पुस्तक के भाग जाग जाते हैं।

कोई पुस्तक आसमान से नहीं टपकती,  इतनी आसानी से उसका जन्म नहीं होता। उसके जन्म की भी अजीब दास्तान है। हर पुस्तक किसी की कृति है, रचना है, उसका भी कोई सरजनहार है। किसी लेखक द्वारा पहले उसे शब्दों में उतारा जाता है, इसे भी सृजन की ही प्रक्रिया कहते हैं। एक लेखक के कई वर्षों की तपस्या का फल होता है जब उसकी रचना पुस्तक रूप में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचती है।

लेखक ही उसे एक नाम देता है। किसका बच्चा है, की तरह उसकी पहचान भी लेखक से ही होती है। अच्छी किताब है,  इसका लेखक कौन है। किताब प्रकाशक की नहीं होती, खरीददार की नहीं होती, किसी पाठक की बपौती नहीं होती, किताब सिर्फ और सिर्फ एक लेखक की मेहनत होती है। उसके बरसों का सपना होती है एक किताब।

हर पुस्तक एक सुधी पाठक तक पहुंचे, यही उसका गंतव्य है। धन्ना सेठों की तरह, महंगे महंगे वार्डरोब की तरह, वह पुस्तकालय और व्यक्तिगत बुक शेल्फ की शोभा न बढ़ाए। सब जानते हैं, लक्ष्मी कहां कैद है। सरस्वती का वाहन हंस है,  जो नीर, क्षीर और विवेक का प्रतीक है। पुस्तक ज्ञान का भंडार भी है और स्वाध्याय का सर्वश्रेष्ठ विकल्प। कहीं सरस्वती कैद ना हो। पुस्तकों की यात्रा अनवरत चलती रहे।

एक प्रबुद्ध पाठक ही एक अच्छी पुस्तक का वाहक हो सकता है। वर दे,  वर दे,  वर दे,  वीणावादिनी वर दे…

(लेखक की फेसबुक पोस्‍ट से साभार)

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