अंग्रेस अफसर को सुभाष का वह करारा थप्‍पड़

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सुभाषचंद्र बोस को मैं भारत का आठवां चिरंजीवी मानता हूँ – अश्वत्थामा, हनुमान, बलि, व्यास, विभीषण, कृप और परशुराम की तरह। सुभाष लगता ही नहीं कि कभी मरे। यों तो हम सारे शहीदों को अमर रहे कहते हैं, लेकिन सुभाष का अमर होना दूसरी तरह का है। भारत की जनता उनकी मृत्यु को कभी स्वीकार नहीं करती। बल्कि उनके हवाले से हमें दूसरे सात लोगों का चिरंजीवी होना भी समझ आता है।

सुभाष अश्वत्थामा की तरह अभिशप्त अमरता के शिकार नहीं थे और परशुराम की तरह उनकी दिव्य व अवतारी अमरता भी नहीं थी। उनकी अमरता में एक रहस्यमयता है। भारत का मन अपने इस पुत्र को लेकर सदा धड़कता रहता है। वे ह्दय जिन्हें वे पीछे छोड़ गए, उनमें आज भी सुभाष वैसे ही चमकते हैं, जैसे आकाश में ध्रुव तारा चमकता है और यह चमक बढ़ती जाती है।

क्या है सुभाष के इस विशेष आकर्षण का परिणाम? क्या है जो उन्हें चिर युवा बनाए हुए हैं हमारे मन में ? सुभाष होने का मतलब क्या है? सुभाष हमारे मन के कौन से खाली आकाशों को भरते हैं? कुछ ऐसे जिस तरह से गांधी या नेहरू तो भरते ही नहीं, चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह भी नहीं भरते। क्या यह आकर्षण उस वर्जना या निषेध से पैदा होता है जिसके चलते सुभाष इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में एक फुटनोट बना दिए गए? क्या यह आकर्षण उस चाल से पैदा होता है जिसके तहत सुभाष की सफलता की संभावना का ही कुछ लोग दानवीकरण करके उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं?

सुभाष ने जब अंग्रेज प्रोफेसर को थप्पड़ मारा था, तो वह थप्पड़ पूरी मैकाले प्रणीत शिक्षण व्यवस्था पर एक थप्पड़ था। मेरा बस चले तो मैं उस दिवस को एक अनुवार्षिक जयंती में बदल दूं जब हम अपनी शिक्षा-व्यवस्था के बारे में आत्मालोचन करें कि उसमें औपनिवेशिकता के कीटाणु कहां कहां शेष रह गए हैं । हमें यदि शिक्षा को प्राधिकार के समक्ष समर्पण की एप्रेंटिसशिप वाली कला से आगे निकालना है तो सुभाष के जीवन का वह दिन हमारी जिंदगी का भी एक दिन होना चाहिए। तब हो सकता है कि कुछ शिक्षा परिसरों में भारत के विरुद्ध कुछ तो भी पढ़ाने वालों को उस थप्पड़ की गूंज देर तक और दूर तक सुनाई दे। अनुशासन को जिन्होंने एक अपरिवर्त्य शैक्षणिक मूल्य बना दिया है, सुभाष का थप्पड़ उन्हें उस संस्कृति की याद भी दिलाए जिसमें माना गया था–दोषा: वाच्या गुरोरपि। कि गुरु का भी दोष कह देना चाहिए। जब कुछ लोग परिसरों में महिषासुर और होलिका के अनुवार्षिक पर्व मना सकते हैं तो सुभाष का यह दिवस उसका एक प्रामाणिक और इतिहास-पुष्ट जवाब है।

सुभाष भारत की स्वतंत्रता की एक शर्त हैं। सुभाष होने के कारण आज़ादी संभव हुई। यदि भारत ने अंग्रेजों के दिल में भय पैदा किया तो सुभाष के कारण। अंग्रेज छिटपुट क्रांतिकारियों को सह सकते थे। खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, बाघा जतिन के जमाने से सहते चले आ रहे थे। किंग्सफोर्ड या सांडर्स को मारना या स्वयं दुश्मन की कंदरा में पहुंचकर ओ’डायर को मारना यह सिद्ध करता था कि भारत में पौरूष अभी बचा हुआ है, लेकिन भारत में एक योद्धा बचा हुआ है, एक रण-वीर, एक संग्राम-शूर बचा हुआ है, एक युयुत्सू बचा हुआ है, यह सुभाष और उनके साथियों ने ही सिद्ध किया। 1857 के संग्राम का दुःस्वप्न देख चुके अंग्रेज बहुत आश्वस्त थे कि बातूनी वर्गों को – chattering classes को – अंग्रेजी तौर तरीकों के साथ सविनय बोलना सिखाकर वे सुरक्षित हो गए हैं। सुभाष ने उनके भीतर deza vu की खौफनाक अनुभूति स्फुरित की। अंग्रेजों के दिमाग़ में 1857 की रील चलने लगी।

सुभाष ने सिंगापुर के अपने प्रसिद्ध भाषण में INA की विजय की कामना जरूर की थी, लेकिन उनके भीतर के यथार्थवादी ने यह भी कहा था कि हारने पर भी उनके दृष्टांत भारत भर के लोगों को प्रेरणा देंगे और बात यह भी सुभाष की अन्य बातों की ही तरह खरी निकली। INA की कहानियां भारत भर में फैलीं।आज़ाद हिन्द रेडियो के समय से जो उत्सुकता भारतीय मन में बनी, वह INA के तीन वीरों के मुकदमों के बाद सुभाष के प्रति आध्यात्मिक श्रद्धा में बदल गई।

रायल इंडियन नेवी का मुंबई विद्रोह एक फ्लैश प्वांइट की तरह मुंबई से शुरू हुआ और कराची से कलकत्ता तक 66 Ship and shore establishment में फैल गया था। पुणे और जबलपुर और चेन्नई में आर्मी विद्रोह भी शुरू हो गए। तब जनरल औचिन्लेक ने लिखा था Every Indian commissioned officer is a Nationalist and rightfully so. आर्मी के लोगों ने विद्रोही नेवी सैनिकों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था। यहाँ तक कि रायल इंडियन एयर फोर्स के वायुवीरों ने भी विद्रोह कर दिया और उन्होंने भी नेवी के अपने साथियों पर एयर स्ट्राइक के विरूद्ध स्ट्राइक कर दी थी।

यह एक बहुत लंबी कहानी है जिसे एटली ने भारत में सत्तांतरण का वास्तविक कारण बताया था, लेकिन जिसे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से मिटा दिया गया। देखें कि न केवल सुभाष बल्कि उनकी आर्मी भी अपने शरीर से जितनी प्रभावी थी, उनकी आत्मा-हुतात्मा उससे ज्यादा प्रभावी सिद्ध हुई। उपनिवेशकारी अंग्रेजों के लिए तो वह आत्मा न थीं, प्रेत था। सुभाष और उनकी आजाद हिन्द फौज का प्रेत भी अंग्रेजों का पीछा करता रहा। चिरजीविता यों भी फली।

सुभाष चंद्र बोस का उत्तर बहुत रैडिकल था और वह प्रतिरोध की जियो-पॉलिटिक्स से सम्बद्ध था। उनकी वैश्विक दृष्टि हैरो और कैम्ब्रिज से नहीं आई थी बल्कि एक डीप मेडिटेशन से आई थी जो उन्होंने नज़रबंदी के दौरान उपलब्ध की थी। वह नजरबंदी सिर्फ दाढ़ी बढ़ानेे के लिए काम नहीं आई थी। वह भू-राजनीति को समझने के लिए भी थी। वह समझ जो शिक्षण और प्रशिक्षण का परिणाम नहीं थी, बल्कि एक भीतरी आँख के खुलने का नतीजा थी। वह जो पिंड में ब्रह्माण्ड देख लेती है। वह उधार की दृष्टि नहीं थी। वैसे भी उधार से दृष्टि नहीं मिलती, चश्मा मिलता है।

सो सुभाष ने जिस भारतमाता का साक्षात्कार किया था, वह भारतमाता मेट्रो-कैपिटल की सुविधा के लिए और आंग्ल जीवन-मूल्यों की नकल के लिए नहीं थी। उस समय औपनिवेशीकरण का सबसे बड़ा तंत्र ऑग्ल नेतृत्व में ही चलता था और सुभाष ने उस तंत्र को विश्व-पटल पर चुनौती दी। उन्होंने भारत से पहले सिंगापुर को अंग्रेजों से मुक्त कराया था। उनकी सरकार को, उनकी आरजी हुकूमते आजाद हिन्द को, उनकी प्रॉविजिनल गवर्नमेंट ऑफ फ्री इंडिया को जर्मनी, जापान और इटली से ही नहीं, फिलीपीन, कोरिया, चीन, आयरलैंड, मान्चुको आदि देशों से भी मान्यता मिली थी और वामियों के सरताज सोवियत यूनियन से भी।

प्रो. कोलेश्निकोव अपने लेख ‘डेस्टिनी एंड डेथ : सुभाष चंद्र बोस’ जो मास्को के 3 जनवरी 1997 के Ezhenedelnaiya Gazeta के अंक में छपा,यह बताते हैं कि उन्होंने ओम्स्क में अपना राजदूत भेजा था जिसे रूसी अधिकारियों द्वारा रिसीव किया गया। सो सुभाष के राजनय का स्वीकार बहुत व्यापक था।

लोग यह कहकर हमें सुभाष के बारे में डराना चाहते हैं कि सुभाष को अपने मार्च में यदि सफलता मिल गई होती तो देश एक मिलिट्री रिजीम होता। ये उन लोगों के पक्षधर बोलते हैं जिन्होंने बहुमत के आधार पर जीते सुभाष को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर मजबूर कर दिया। यह उस सुभाष के बारे में कहा गया जो कलकत्ता के मेयर रहे। और यह भी जरूरी नहीं कि हर सैन्य विद्रोह लोकतंत्र के विरुद्ध हो। शीत युद्ध के बाद हुए सैन्य विद्रोहों में से 40% ने लोकतंत्र की स्थापना की।

(वरिष्‍ठ आइएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्‍तव की फेसबुक वॉल से साभार)

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