हिमाचल प्रदेश के मंडी के किरनगांव से आंखो देखी रिपोर्ट
पहाडी इलाकों में बादलों का फटना या फिर भूस्खलन होना कोई नई बात नहीं है। पहाडों पर रहने वाले लोग जानते हैं कि उन्हें इन खतरों के साथ ही जीना है इसलिए वे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार भी रहते हैं। लेकिन 9 जुलाई की रात जो हुआ, वो उनकी इस मानसिक तैयारी को भी हिला देने वाला था।
उस रात मैं वैसे ही कुछ देर से सोई थी। अचानक रात करीब 1:00 बजे ज़ोरदार गड़गड़ाहट से मेरी नींद टूटी। पहाड़ों में रहते हुए ऐसी आवाजों से बच्चों की दोस्ती बचपन से ही हो जाती है। पर उस रात मामला काफी अलग था। वो आवाजें एक अलग ही अहसास करा रही थीं। मेरा दिल डर से सहम उठा। मैंने साथ वाले बिस्तर पर मां को टटोला, पर वहां कोई नहीं था। मैंने उन्हें जोर से आवाज दी पर कोई जवाब नहीं आया। मेरी घबराहट बढ रही थी, मन ऐसे किसी भी खतरे का सामना करने के लिए तैयार नहीं था जो किसी भी क्षण मेरे सामने उपस्थित हो सकता था।
मैं जितनी जोर से मां को बुला रही थी मेरी आवाज उतनी ही रुंधती जा रही थी। हर तरफ अंधेरा था। मैंने हिम्मत करके उठने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही बिस्तर से उतरकर फर्श पर पैर रखा, मुझे डूबने का आभास हुआ। पानी मेरे घुटनों तक पहुंच चुका था। मेरा घर तालाब बन गया था। मैंने जैसे ही आगे बढ़ने के लिए कदम उठाया, एक बार फिर जोरदार गड़गड़ाहट मेरे कानों को चीरते हुए पूरे घर को हिलाने लगी। इस बार मैं अपनी पूरी ताकत लगाकर बाहर भागी। बाहर मां, पापा, बहन, भाई सब आसमान से गिरने वाली आफत को असहाय से देख रहे थे। मानो वहां से पूरा समंदर ही जमीन पर उडेला जा रहा था।
पहाड़ी पर बसा मेरा अकेला घर, जिसमें मेरे सहित सिर्फ 9 लोग रहते थे, वहां मेला सा लगा हुआ था। सारे गांव के लोग वहां आकर जमा हो गए थे और ऊपर खडे होकर दूर से अपने-अपने घरों के अंतिम दर्शन कर रहे थे। वो घर, जो आसमान से गिरने वाला सैलाब, देखते ही देखते अपने साथ बहाकर ले जा रहा था। घर के साथ ही बह गए थे उनके सारे सपने, सारी उम्मीदें…
लोग चिल्ला चिल्ला कर एक दूसरे को सावधान कर रहे थे। सभी इस आशंका से सहमे हुए थे कि किसी भी वक्त पानी का एक तेज बहाव आएगा और हम सबको बहा ले जाएगा। ऐसा लगा मानो जिंदगी के बस कुछ ही पल बाकी बचे हों। एक सांस के बाद दूसरी सांस के आने की आशा जैसे खत्म होती जा रही थी।
जैसे तैसे खुद की खैर मनाते सुबह हुई। उजाला हमेशा उम्मीद लेकर आता है, लेकिन उस दिन का उजाला बदनसीबी और तबाही की तसवीर लेकर आया था। ऐसी तसवीर जो हममें से कोईं भी, कभी भी नहीं देखना चाहता था। और देखने को वहां बचा ही क्या था सिर्फ पानी, पानी और पानी… इसके अलावा कुछ नहीं….
उस दिन मेरी एक जरूरी चिट्ठी आने वाली थी। पर मैं जान गई थी कि अब वो शायद ही मुझ तक पहुंचे। क्योंकि एक तो पानी सडकें, पुल-पुलिया सब बहा ले गया था, और अगर आने का कोई जरिया बचता भी तो भी उसका कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि जिस गांव के पते पर वो चिट्ठी आनी थी उस गांव का ही नामोनिशान मिट गया था। कुछ लोगों ने आसपास के गांव से संपर्क करने की कोशिश की पर हताशा में ही वापस लौट आए। मैं बैठ कर रो रही थी, तभी मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी। याद आया कि आज उसकी शादी थी। उसके हाथ में बहुत सुंदर मेहंदी लगी थी और सर पर भीगा पल्लू ओढ़े वह फफक-फफक कर रो रही थी। उसे देखकर ना जाने क्यों मेरे आंसू थम गए। बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। लोगों के पास उनके खुद के अलावा और कुछ नहीं बचा था ना घर-बार, ना कोई उम्मीद। बस सहारा था तो कुछ मानवीय रिश्तों का..।
जब कभी मुसीबत पड़ती है तो हम घर की ओर भागते हैं, पर जब घर ही मुसीबत में हो तो कहां भागें, यही सोचते सोचते पूरे 3 दिन बीत चुके हैं। अब पानी कुछ कम है, मेरे घर में और गांव में भी। बताया जा रहा है कि सरकार कुछ मदद भेज रही है। लोग उस मदद का इंतजार कर रहे हैं और मैं सोच रही हूं कि क्या यह हमें दी गई सज़ा है, प्रकृति की? फिर सोचती हूं कि, अगर सज़ा होती तो शायद आज हम जिंदा नहीं खड़े होते। तो शायद यह चेतावनी है, एक अवसर है, प्रकृति के साथ किए जाने वाले खिलवाड को रोकने का… आने वाले दिनों में इससे भी बहुत बुरा होने को टालने का। पर क्या हम ऐसा कर पाएंगे… ???
(मध्यमत)