इतिहास से सबक लेकर कश्‍मीर का वर्तमान सुधारें

समझदार समाज या देश वही कहलाता है जो अपनी गलतियों और इतिहास में हुई चूकों से सबक ले। वर्तमान के कंधों पर यह दायित्‍व होता ही है कि वह इतिहास का सम्‍मान करने के साथ-साथ उसका वस्‍तुपरक मूल्‍यांकन भी करे और यदि किसी नियम, परंपरा या व्‍यवस्‍था को देश व समाज के व्‍यापक हित में बदलना आवश्‍यक हो तो उसके लिए उचित कदम उठाए। ऐसे मामलों में इतिहास पर आंख मूंदकर खड़े रहना, बदली हुई परिस्थितियों के संदर्भ में उसकी पुनर्व्‍याख्‍या न करना या उस पर अडि़यल रुख अपनाए रखना, समाज के विकासक्रम को बाधित करने का कारण बन सकता है।

यहां यह भी ध्‍यान में रखना जरूरी है कि इतिहास से खेलना भी खतरों से खाली नहीं होता। इसलिए जब भी हम इतिहास को लेकर या ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर कोई कदम उठाएं या निर्णय करें तो सबसे पहले यह तय कर लेना जरूरी है कि जिस आधार पर हम इतिहास का मूल्‍यांकन कर रहे हैं, उसके कथ्‍य और तथ्‍य दुरुस्‍त हों। मूल्‍यांकन की प्रक्रिया भी कोई खोट लिए हुए न हो। क्‍योंकि कई बार ऐतिहासिक घटनाओं की मनमानी व्‍याख्‍या या फिर उनके मनोनुकूल अर्थ निकाल लेने से भी देश और समाज को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है।

जम्‍मू कश्‍मीर में धारा 370 की समाप्ति की सरकार की पहल को भी इन्‍हीं संदर्भों में देखा और मूल्‍यांकित किया जाना चाहिए। विवेकपूर्ण तरीका तो यह है कि ऐसा करते समय हम न तो इतिहास के नायकों पर दोषारोपण की नीयत रखें और न ही बदलाव की पहल करने वालों को खलनायक मानें। यह ऐतिहासिक तथ्‍य है कि भारतीय संविधान में कश्‍मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय जोड़ी गई। निश्चित रूप से नेहरू ने जो निर्णय किया होगा उसके भी आधार रहे होंगे और आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व वाली सरकार जो निर्णय करने जा रही है उसके लिए भी आधार की लंबी सूची होगी।

देश ने धारा 370 को लागू किए जाने के करीब 70 सालों तक जम्‍मू कश्‍मीर को विशेष राज्‍य का दर्जा देने वाली संविधान की धारा 370 के प्रभाव और दुष्‍प्रभाव दोनों को देखा है। निश्चित ही जिस समय इस धारा को संविधान में शामिल किया गया था, उस समय की भावना और कारण अलग रहे होंगे। उन कारणों की चीरफाड़ करने या तत्‍कालीन लोगों की छीछालेदर करने का अब कोई अर्थ नहीं है। आज यदि किसी बात का अर्थ है तो वह इस बात का है कि वर्तमान परिस्थितियों में यह धारा जम्‍मू कश्‍मीर के विकास और देश के समग्र ढांचे से उसके जुड़ाव में साधक है या बाधक।

वर्तमान सरकार का मानना है कि इस धारा के चलते जम्‍मू कश्‍मीर में अलगाववाद और आतंकवाद को और बढ़ावा मिला है, इसलिए इसका खत्‍म होना जरूरी है ताकि राज्‍य को देश की मुख्‍यधारा में लाकर वहां विकास की गतिविधियों में तेजी लाई जा सके। जिस तरह नेहरू सरकार को अपने तर्कों के आधार पर धारा 370 लाने का अधिकार था, उसी तरह वर्तमान सरकार को अपने तर्कों के आधार पर इसे हटाने का अधिकार है। यदि हमने करीब 70 सालों तक नेहरू के प्रयोग को आजमाया है तो अब उससे हटकर नए प्रयोग को अपनाकर देखने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

राज्‍यसभा और लोकसभा दोनों ने सरकार के प्रस्‍ताव को चूंकि भारी बहुमत से पारित भी कर दिया है, इसलिए अब इस मामले में राजनीतिक नुक्‍ताचीनी की गुंजाइश और भी कम हो जाती है। हां, जो लोग इस प्रस्‍ताव की प्रक्रिया में कानून कायदों के पालन को लेकर सवाल उठा रहे हैं, वे न्‍यायालय की शरण में जाने को स्‍वतंत्र हैं। और 6 अगस्‍त को खबर आ भी गई है कि इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी गई है। यानी सरकार का यह फैसला न्‍यायिक कसौटी पर भी कसा जाएगा।

मुझे इस पूरे मामले में कांग्रेस का रवैया थोड़ा अजीब लगा। मेरे हिसाब से जिस तरह तीन तलाक मामले में कांग्रेस के पास पुराने दाग धोने का एक अवसर था, उसी तरह 370 के मामले में भी उसके पास इतिहास की एक कथित भूल को सुधारने का अवसर आया था। वह दोनों सदनों में सीधा विरोध करने के बजाय 370 को हटाने के प्रस्‍ताव का समर्थन कर, सिर्फ जम्‍मू कश्‍मीर के पुनर्गठन का विरोध करते हुए राजनीतिक समझदारी दिखा कर खुद को बेहतर स्थिति में रख सकती थी।

लेकिन ऐसा लगता है कि यहां भी कांग्रेस के सामने नेहरू गांधी परिवार के प्रति अनुराग आड़े आ गया। निश्चित रूप से नेहरू देश के दूरदृष्‍टा प्रधानमंत्री थे और कोई चाहे जितनी कोशिश कर ले, लेकिन उनके योगदान को भारत के इतिहास से न तो मिटा सकता है न खारिज कर सकता है। पर देश की बदली हुई परिस्थितियों में और खासकर पार्टी के वर्तमान हालात को देखते हुए,आत्‍मनिरीक्षण की प्रक्रिया से गुजर कर कांग्रेस को अब यह स्‍वीकार करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि नेहरू भी इंसान थे और गलती उनसे भी हो सकती है।

पर इसके उलट कांग्रेस ने किया क्‍या? राज्‍यसभा में गुलाम नबी आजाद की बात को तो फिर भी इसलिए नजरअंदाज किया जा सकता है कि वे खुद जम्‍मू से आते हैं और उस नाते इस मुद्दे पर उनका भावनात्‍मक झुकाव स्‍वाभाविक है। पर लोकसभा में मनीष तिवारी ने बहस की शुरुआत करते हुए एक अच्‍छे भाषण के बावजूद, राज्‍यों के विलीनीकरण मामले में सरदार पटेल की उपेक्षा करते हुए सारा श्रेय नेहरू को देकर सबकुछ गुड़गोबर कर दिया। इसी तरह कांग्रेस दल के नेता अधीररंजन चौधरी तो एक कदम और आगे बढ़कर पता नहीं किस रौ में बह गए और भारत की आधिकारिक लाइन के अलग, कश्‍मीर मामले में संयुक्‍त राष्‍ट्र तक को घसीट लाए।

मुझे लगता है धारा 370 के मामले में कांग्रेस ने संसद में जो स्‍टैण्‍ड लिया है, वह पार्टी में कहीं बड़े विभाजन का कारण न बन जाए। क्‍योंकि संसद में चर्चा के मामले पर व्हिप जारी करने को लेकर, राज्‍यसभा में  कांग्रेस के चीफ व्हिप भुवनेश्‍वर कलीता ने तो इस्‍तीफा ही दे दिया। जबकि जर्नादन द्विवेदी जैसे वरिष्‍ठ नेता से लेकर राहुल गांधी के मित्र और युवा पीढ़ी के नेता ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया ने सार्वजनिक रूप से धारा 370 खत्‍म करने की सराहना की है।

वैसे अब बेहतर यही होगा कि सरकार के इस फैसले के परिणामों का इंतजार किया जाए। और यदि सचमुच सभी लोगों को कश्‍मीर की बेहतरी की चिंता है तो राजनीतिक पूर्वग्रहों से ऊपर उठकर इसके लिए एकजुट प्रयास किए जाएं। हां, कांग्रेस यदि अपने विरोध पर कायम ही रहना चाहती है तो एक विकल्‍प उसके लिए अब भी खुला है कि वह बयान जारी कर ऐलान कर दे कि अगर वह सत्‍ता में आई तो धारा 370 को पुराने स्‍वरूप में ही बहाल कर देगी।

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