पता नहीं इस सर्वे का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव और वहां सरकार गठन को लेकर चली उठापटक से कोई लेना देना था या नहीं या फिर इसका झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनाव से कोई संबंध है या नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि इसकी टाइमिंग बहुत कुछ कहती है।
यह सर्वे भारत में भ्रष्टाचार को लेकर है जो कहता है कि पिछले एक साल में (यह अवधि ध्यान देने लायक है) देश के कई राज्यों में भ्रष्टाचार में कमी आई है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया (TII) और लोकल सर्कल्स के द्वारा ‘इंडिया करप्शन सर्वे 2019’ के नाम से किए गए इस सर्वेक्षण में देश के 20 राज्यों के 248 जिलों में 1,90,000 लोगों से बातचीत की गई। इनमें से 51 फीसदी यानी आधे से अधिक लोगों ने माना कि सर्वे अविध के पिछले 12 महीनों में उन्होंने किसी न किसी काम के लिए घूस दी है। हालांकि सर्वे में यह भी दावा किया गया है कि देश में घूसखोरी के मामले में 10 फीसदी की कमी आई है।
दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा, ओडिशा के लोगों ने माना कि उनके यहां भ्रष्टाचार के मामले कम हुए हैं। दूसरी तरफ राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, झारखंड और पंजाब में भ्रष्टाचार के ज्यादा मामलों की शिकायत आई है। सात फीसदी लोग मानते हैं कि कर संबंधी विभागों में भ्रष्टाचार कम हुआ है। जबकि एक तथ्य यह भी है कि पिछले 6 महीने में सरकार ने आयकर विभाग के 25 वरिष्ठ अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त किया है।
सर्वे में शामिल 35 फीसदी लोगों ने कहा कि पिछले 12 महीने में अपना काम कराने के लिए उन्हें घूस के रूप में नकदी देनी पड़ी है। जबकि 16 फीसदी के मुताबिक उनका काम बगैर घूस के हुआ। सबसे ज्यादा घूसखोरी प्रॉपर्टी रजिस्ट्रेशन एवं जमीन से जुड़े विभाग, पुलिस और नगर निगमों में होती है ऐसा मानने वालों की संख्या 26 फीसदी है। सिर्फ 12 फीसदी लोग मानते हैं कि इन विभागों में पिछले एक साल में घूसखोरी में कमी आई है।
सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि सरकारी विभागों में सीसीटीवी कैमरे लग जाने और कंप्यूटरीकरण से घूसखोरी थोड़ी मुश्किल जरूर हुई है, लेकिन यह अब भी जारी है और दलाल अब भी पनप रहे हैं। 49 फीसदी लोगों का कहना है कि घूसखोरी पहले की तरह जारी है जबकि सिर्फ 8 फीसदी मानते हैं कि इसमें कमी आई है।
टीआईआई द्वारा जारी करप्शन परसेप्शन इंडेक्स 2018 में भारत की रैकिंग में सुधार आया है। 180 देशों की सूची में भारत को 78वां स्थान मिला है, इस तरह इसके पिछले साल के मुकाबले भारत की रैंकिंग 3 पायदान सुधरी है। सर्वे के अनुसार घूस के रूप में अब भी सबसे ज्यादा नकदी देना या लेना पसंद किया जाता है।
अगर हम अपने मध्यप्रदेश की बात करें तो सर्वे कहता है कि राज्य में 55 फीसदी लोगों ने माना कि उन्हें अपना काम करवाने के लिए कम से कम एक बार रिश्वत जरूर देनी पड़ी। इसके साथ ही मध्यप्रदेश अकेला ऐसा राज्य है जहां नगर निगम सबसे भ्रष्ट विभाग निकले। 11 राज्यों में सबसे ज्यादा रिश्वतखोरी प्रापर्टी रजिस्ट्रेशन और जमीन संबंधी मामलों में पाई गई तो 6 राज्यों का पुलिस विभाग सबसे ज्यादा घूसखोर निकला।
इस सर्वे के कुछ और निष्कर्ष बड़े दिलचस्प हैं। जैसे कम से कम एक बार रिश्वत देने वालों की संख्या 2018 में 56 फीसदी थी तो इस बार यह घटकर 51 फीसदी रह गई। 64 फीसदी लोगों ने तर्क दिया कि उन्होंने समय पर अपना काम पूरा करवाने या ज्यादा भागदौड़ और परेशानी से बचने के लिए रिश्वत दी। जबकि 82 फीसदी का कहना था कि या तो भ्रष्टाचार पर लगाम के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया या फिर उठाया गया तो वह प्रभावहीन रहा।
और यही वह बिंदु है जिसके इर्दगिर्द इस सर्वे के निष्कर्षों को देखा जाना चाहिए। जब 82 फीसदी लोग यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार पर लगाम के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया और यदि उठाया गया तो वह प्रभावहीन रहा तो इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या हम यह मानें कि एक साल में देश में इतना अधिक चारित्रिक और नैतिक उत्थान हुआ कि सरकारी महकमों के लोगों ने स्वयं रिश्वत लेना बंद कर दिया। पर अपने रोजमर्रा के अनुभवों के आधार पर क्या लोग इस बात को गले उतार पाएंगे?
दरअसल जब भी इस तरह के सर्वे भ्रष्टाचार में कमी की बात कहते हैं तो उन पर विश्वास करना कठिन मालूम पड़ता है। इस कठिनाई को सर्वे के निष्कर्षों के आधार पर बनने वाली वे खबरें और बढ़ा देती हैं जिनके शीर्षक कहते हैं- ‘’मोदीराज में कई राज्यों में कम हुआ भ्रष्टाचार! एक साल में 10 फीसदी घटी घूसखोरी’’
देश में भ्रष्टाचार की पिछली दशा को टटोलते हुए मेरे हाथ एक और सर्वे लगा। सीएमएस नाम के किसी ‘थिंक टैंक’ के सर्वे के हवाले से आए निष्कर्षों के आधार पर 28 अप्रैल 2017 को जारी इस खबर का शीर्षक था- ‘’20 राज्यों में सर्वे: नोटबंदी ने कम किया भ्रष्टाचार, घूसखोरी घटी’’ यह शीर्षक ही अपने आप में कई संदेश (या संदेह) पैदा करता है।
2017 की रिपोर्ट के मुताबिक ‘’2005 में जहां करीब 53 फीसदी परिवारों ने सार्वजनिक सेवाओं में पूरे साल में कम से कम एक बार भ्रष्टाचार से रूबरू होने की बात मानी थी, वहीं 2017 में ये संख्या घटकर 33 फीसदी रह गई। 2005 में जहां 73 फीसदी परिवारों का मानना था कि सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार बढ़ा वहीं 2017 में ऐसी राय सिर्फ 43 फीसदी परिवारों की थी। 20 राज्यों की 10 सार्वजनिक सेवाओं में जहां 2005 के दौरान करीब 20 हजार 5 सौ करोड़ रुपये बतौर घूस दिए गए, वही 2017 में ये रकम घटकर 6350 करोड़ रुपये रह गई।‘’
अब यह बात समझ से परे है कि एक एजेंसी कह रही थी कि 2005 की तुलना में कम से कम एक बार भ्रष्टाचार से रूबरू होने वाले 2017 में 33 फीसदी रह गए जबकि दूसरी एजेंसी के मुताबिक 2018 में कम से कम एक बार रिश्वत देने वालों का आंकड़ा 56 फीसदी था जो 2019 में घटकर 52 फीसदी रह गया। अब इसे भ्रष्टाचार में कमी मानें या बढ़ोतरी?
वैसे जिस राजनीतिक व्यवस्था में हजारों करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले के आरोपी को जोड़तोड़ की सरकार के लिए उप मुख्यमंत्री बनाने में कोई गुरेज न हो और उसी व्यक्ति को नई राजनीतिक व्यवस्था में भी वही पद फिर से दिए जाने की चर्चा चल रही हो वहां भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई मतलब भी निकलता है क्या?