आस्थाओं के साथ खिलवाड़ का ‘तांडव’ तो जायज नहीं है..!

अजय बोकिल

विवा‍दित वेब सीरीज ‘तांडव’ में हिंदू देवी-देवताओं के अपमान का मामला जिस ढंग से बीजेपी ने उठाया है, उससे लगता है कि केन्द्र सरकार जल्द ही इस पर रोक लगा सकती है। उधर यूपी में ‘तांडव’ के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज होने के बाद लखनऊ पुलिस जांच के लिए मुंबई रवाना हो गई है। पुलिस पूरे मामले में वेब सीरीज के निर्देशक और लेखक से पूछताछ करेगी। आरोप है कि  इस सीरीज के प्रथम एपीसोड के 17 वें मिनट में देवी-देवताओं को बोलते दिखाया गया है, जिसमें निम्न स्तरीय भाषा का प्रयोग है। कई जगह साम्पद्रायिक भावनाओं को भड़काने वाले संवाद और महिलाओं का अपमान करने जैसे दृश्य भी हैं। साथ ही इस सीरीज की मंशा एक समुदाय विशेष की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली है।

इस वेब सीरीज के खिलाफ मामला दर्ज करने के पीछे राजनीति भी हो सकती है, लेकिन उससे भी अहम बात यह है कि न केवल ‘तांडव’ बल्कि अन्य वेब सीरीज में भी बेलगाम गालियों, अभद्र भाषा और अश्लीलता दिखाने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। इसका एक कारण यह है कि वेब सीरीज के लिए कोई सेंसरशिप नहीं है। इसलिए जो और जैसा चाहे दिखाया जा रहा है। हैरानी की बात यह है कि बावजूद इतनी आलोचना के, लोग इसे दिलचस्पी के साथ देख रहे हैं। इस पूरे मामले ने उस मुद्दे को फिर हवा दे दी है कि सिनेमा, टीवी चैनलों की तरह ओटीटी प्लेटफार्म पर दिखाई जाने वाली इन सीरीज को भी सेंसरशिप के तहत लाया जाना चाहिए। आखिर जनसंचार का कोई भी माध्यम पूरी तरह निरंकुश और मनमाने ढंग से कैसे चल सकता है? उसे क्यों चलने दिया जाना चाहिए?

मेरे जैसे कई लोग वेब सीरीज और ओटीटी प्लेटफार्म से बहुत ज्यादा वाकिफ भले न हों, लेकिन ओटीटी ( यानी ओवर द टॉप) एक ऐसा प्लेटफार्म है, जिस पर आप अपनी सुविधा और ‍रुचि के हिसाब से कार्यक्रम देख सकते हैं। संक्षेप में कहें तो यह इंटरनेट से चलने वाला प्लेटफार्म है। वेब सीरीज दरअसल कथायुक्त या कथारहित ऑन लाइन वीडियो होते हैं, जिन्‍हें धारावाहिक रूप में पेश किया जाता है। एपीसोड की तर्ज पर इन्हें ‘वेबीसोड’ भी कहा जाता है। इसमें सुविधा यह है कि टीवी सीरियल की तरह आपको उन्हें देखने के लिए निश्चित समयावधि तक इंतजार नहीं करना पड़ता। वेब सीरीज आप क्रमिक रूप से या एकसाथ भी देख सकते हैं, जब मर्जी हो तब देख सकते हैं। इसे टीवी से लेकर मोबाइल तक कहीं भी देखा जा सकता है।

दुनिया में वेब सीरीज की शुरुआत अमेरिका में 1995 में व्यावसायिक इंटरनेट के साथ ही हुई। पहले इसे ‘वेब टेलीविजन’ कहा जाता था। ‘द स्‍पॉट’ को इस तरह की पहली एपीसोडिक ऑनलाइन स्टोरी माना जाता है। सन 2000 में जापान में पहली ओरिजनल वीडियो एनीमेशन सीरीज इंटरनेट पर प्रदर्शित की गई। 2003 में माइक्रोसॉफ्‍ट ने एमएसएन वीडियो लांच किया। इस पर कई लोकप्रिय वेब सीरीज प्रस्तुत की गई।

2009 में लॉस एजेंल्स में पहला वेब सीरीज फेस्टिवल आयोजित हुआ। तब से अब तक वेब सीरीज की दुनिया काफी बड़ी हो चुकी है। टेबलेट और स्मार्ट फोन आने से ओटीटी प्लेटफार्म की पहुंच हर व्यक्ति तक हो चुकी है। अब तो वेब 2.0 का जमाना है, जिसमें दर्शक अपनी प्रतिक्रिया भी वेब सीरीज पर दे सकते हैं। अच्छी वेब सीरीज के लिए कई पुरस्कार भी दिए जाते हैं।

जहां तक भारत का सवाल है तो हमारे यहां वेब सीरीज की शुरुआत 2014 में पहली भारतीय वेब सीरीज ‘परमनेंट रूममेट्स’ के साथ हुई। इसे तीन साल में 5 करोड़ से ज्यादा व्यूज मिल चुके थे। युवा दर्शकों में वेब सीरीज लगातार लोकप्रिय होती जा रही थीं। लेकिन कोरोना लॉक डाउन तक इसे मुख्‍य धारा का मनोरंजन प्लेटफार्म फिर भी स्वीकार नहीं किया गया। यह मौका लॉक डाउन ने दे दिया। बड़ी संख्या में लोग ओटीटी प्लेटफार्म की तरफ शिफ्ट होने लगे। मनोरंजन संस्कृति एक नए दौर में प्रविष्ट हो गई। उधर देश में परंपरागत सिनेमाघरों में कोरोना के कारण जो ताले पड़े तो आज तक उसमें कोई खास सुधार नहीं आया है।

दूसरी तरफ ओटीटी प्लेटफार्म की लोकप्रियता और बाजार तेजी से बढ़ रहा है। आज देश में इसके करीब 50 करोड़ यूजर बताए जाते हैं और 2023 तक ओटीटी का बाजार 400 अरब रुपए तक पहुंचने के आसार हैं। साथ ही, वेब सीरीज आने से कलाकारों और मनोरंजन उद्योग से जुड़े सभी लोगों को एक नया विकल्प मिला है। काम और कमाई के नए रास्ते खुले हैं। आश्चर्य नहीं कि जल्द ही सिनेमाघर में जाकर सिनेमा देखना इतिहास की बात बन जाए।

बावजूद इन तमाम बातों के वेब सीरीज और वेब सीरीज संस्कृति आज अगर निशाने पर है तो इसका मुख्य कारण है इसकी निरंकुश प्रस्तुति। कुछ लोग इसे ‘संपूर्ण आजादी’ भी मान सकते हैं, लेकिन मनोरंजन के नाम भी कुछ भी परोसना तर्क संगत नहीं लगता। तांडव से पहले ‘मिर्जापुर’ वेब सीरीज की भी काफी आलोचना इसलिए हुई थी, क्योंकि उसमें बहुत ही अभद्र भाषा का प्रयोग था। ‘तांडव’ वेब सीरीज के बारे में कहा जा रहा है कि इसमें कई अशोभनीय बातें और प्रधानमंत्री के गरिमामय पद का निर्वहन करने वाले व्यक्ति का बहुत खराब तरीके से‍ चित्रण ‍किया गया है।

इन्हीं आरोपो के चलते इस वेबसीरीज के डायरेक्टर अली अब्बास जफर, निर्देशक हिमांशु कृष्ण मेहरा, लेखक गौरव सोलंकी और अमेजन प्राइम की ओरिजनल कंटेन्ट इंडिया हेड अपर्णा पुरोहित के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है। इनके खिलाफ आईपीसी की धारा 153-ए, 295, 505 एक बी, 505 टू, 469, आईअी एक्ट 66, 66 एफ, 67 के तहत मुकदमा कायम किया गया है। भाजपा ने इस वेब सीरीज को जन भावना के साथ खिलवाड़ और हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला बताते हुए इस पर तुरंत रोक लगाने की मांग की है।

मप्र के मुख्यमंत्री शिवरा‍जसिंह चौहान ने केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर के समक्ष यह मुद्दा उठाया तो राज्य के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने केन्द्रीय मंत्री को चिट्ठी भी लिखी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी ट्वीट कर इस सीरीज के आपत्तिजनक दृश्यों को हटाने की मांग की है। इस बीच केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने अमेजन प्राइम वीडियो से जवाब तलब किया है। सोशल मीडिया में भी इस वेब सीरीज के खिलाफ गुस्सा फूट रहा है।

उधर मुंबई में भी भाजपा विधायक राम कदम ने सीरीज बनाने वालों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई है कि इससे हिंदू धर्म की भावनाएं आहत हो रही हैं। ट्विटर पर ट्रेंड हुए #बैनतांडवनाउ में यूजर्स ने कहा कि इस सीरीज के माध्यम से राष्ट्रविरोधी एजेंडे को बढ़ावा दिया जा रहा है। यूजर्स का पहला निशाना सीरीज के निदेशक अली अब्बास जफर पर है। उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग का सदस्य तक बताया गया। जफर ‘गुंडे, ‘सुल्तान’, ‘टाइगर जिंदा है’ जैसी सफल फिल्मों के निर्देशक रहे हैं। ‘तांडव’ उनकी पहली वेब सीरीज है।

तांडव एक पॉलिटिकल ड्रामा है। लेकिन अपने प्रसारण की शुरुआत से ही यह निशाने पर आ गया है। इस बीच निर्देशक अली अब्बास ने यह कहकर माफी मांगी है कि यह वेब सीरीज काल्पनिक है, फिर भी इससे किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं तो वो क्षमा याचना करते हैं। इस माफी के बाद भी वेबसीरीज पर रोक लगेगी या नहीं, यह साफ होना है।

असल सवाल यह है कि मनोरंजन के नाम पर वेब सीरीज में कुछ भी दिखाने की आजादी दी जानी चाहिए या नहीं? जब मुख्य धारा का मीडिया, मनोरंजन टीवी चैनल्स भी उत्तरदायी हैं तो ओटीटी प्लेटफार्म्स को सोशल मीडिया की तरह बेलगाम क्यों रखा गया है? यह सवाल भी जायज है कि अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में हिंदू देवी-देवताओ को ही क्यों लाया जाता है।

अगर इसे हम धार्मिक उदारवाद के आईने में देखें तो हिंदू इतर धर्मों के चेहरे लगभग गायब दिखते हैं? धार्मिक आस्थाओं के प्रति संवेदना के अलग-अलग पैमाने नहीं हो सकते। और सहिष्णुता का अर्थ संवेदनशून्य होना भी नहीं है। ‘तांडव’ का राजनीतिक ड्रामा जो भी हो, लेकिन उसे आस्था से खिलवाड़ का ‘तांडव’ करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। और ‘तांडव’ ही क्यों ‘वेब सीरीज’ और सोशल मीडिया की निरंकुश दुनिया पर भी कुछ तो अंकुश होना ही चाहिए। भले ही इसके राजनीतिक दुरुपयोग का खतरा हो।

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