उस घटना को हुए डेढ़ साल से अधिक समय बीत चुका है लेकिन इस दौरान देश में जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें शायद ही कोई ऐसा रहा हो जिसमें 29 सितंबर 2016 को पाकिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का सीना फुलाकर जिक्र न किया गया हो।
उस डेढ़ साल पुरानी घटना को आज भी समय समय पर अपनी शौर्य गाथा की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है और उसके बहाने यह भी बताने की कोशिशें होती रही हैं कि कैसे यह सरकार पाक समर्थित आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है। यह भी जोर शोर से कहा जाता रहा है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा हौसला कभी नहीं दिखाया था।
लेकिन उन तमाम दावों और सीने पर सर्जिकल स्ट्राइक का मैडल लटका होने के बावजूद जम्मू कश्मीर में जो हो रहा है वह पूरे देश के लिए चिंता का सबब है। राजनीतिक मजबूरियां आपको क्या से क्या बना देती हैं, कश्मीर के हालात उसका जीता जागता उदाहरण हैं।
पिछले दो दिनों के दौरान घाटी में जिस प्रकार की घटनाएं हुई हैं वे अब तक के सारे किए धराए पर मानो पानी फिर जाने का ही संकेत हैं। वहां बंदूक और कलम दोनों के सिपाही सरेआम कत्ल किए जा रहे हैं। यानी समस्या का हल न बुलैट से निकलने की सूरत छोड़ी जा रही है और न बैलेट से।
दहशतगर्दी और अलगाववाद जैसी समस्याओं के दो ही हल पूरी दुनिया में मौजूद हैं। या तो आप ऐसे तत्वों को सख्ती से कुचल दें या फिर बातचीत की प्रक्रिया के जरिए उन्हें मुख्यधारा में लेकर आएं। लेकिन कश्मीर में इन दोनों ही विकल्पों का कामयाब न हो पाना मसले को और जटिल बना रहा है।
पिछले महीने रमजान शुरू होने से पहले जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने केंद्र सरकार के सामने यह मांग रखी थी कि रमजान के पवित्र महीने में सरकार सीजफायर की पेशकश कर एक उदाहरण प्रस्तुत करे। सुरक्षा बलों को यह आदेश दिए जाएं कि वे इस दौरान कोई ‘ऑपरेशन’ लांच न करें।
गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने महबूबा के इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए उम्मीद जताई थी कि इसका सकारात्मक असर होगा और इससे घाटी में शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में तेजी आएगी। इससे पहले इस तरह का सीजफायर वाजपेयी सरकार के दौरान वर्ष 2000 में किया गया था।
इस फैसले के तहत केंद्र सरकार ने सेना और सुरक्षाबलों को यह अधिकार दिया था कि हमलों के समय वे ही तय करें कि उन्हें आतंकियों को किस भाषा में जवाब देना है। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि राज्य की सत्ता में सहभागी भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय इकाई ने इस फैसले का विरोध किया था।
अब जो कुछ घट रहा है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि सरकार की इस पहल का वैसा कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया है जैसीकि उम्मीद की जा रही थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण रमजान महीने के अंतिम दिनों में, ईद से ऐन पहले, सेना के एक जवान और एक संपादक की हत्या से मिल जाता है।
जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में आतंकवादियों ने गुरुवार को सेना के जिस जवान का अपहरण किया था, उसकी देर शाम हत्या कर दी। मारे गए जवान का नाम औरंगजेब था और वे पुंछ जिले के रहने वाले थे। उनका शव पुलवामा के गूसो इलाके में पाया गया।
औरंगजेब सेना के उस कमांडो ग्रुप का हिस्सा थे, जिसने हिजबुल कमांडर समीर टाइगर को मार गिराया था। एंटी-टेरर ग्रुप के सदस्य औरंगजेब 44 राष्ट्रीय राइफल्स में शोपियां जिले में तैनात थे। आतंकियों ने उनका अपहरण उस वक्त किया, जब वे ईद की छुट्टी लेकर घर लौट रहे थे।
इसी तरह गुरुवार को ही वरिष्ठ पत्रकार एवं राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी और उनके दो निजी सुरक्षा अधिकारियों (पीएसओ) की श्रीनगर में उनके कार्यालय के बाहर ही आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। हमला उस समय हुआ जब बुखारी अपने दफ्तर से इफ्तार पार्टी के लिए निकल रहे थे।
बुखारी ने ‘द हिन्दू’ के कश्मीर संवाददाता के रूप में काम किया था। उन्होंने कश्मीर घाटी में कई शांति सम्मेलनों के आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे पाकिस्तान के साथ ट्रैक-2 प्रक्रिया का भी हिस्सा थे। उन्हें घाटी में मानवाधिकारों के समर्थक के तौर पर जाना जाता था।
घाटी में जिस तरह से हिंसा का लगातार फैलाव होता जा रहा है और जिस तरह युवाओं और किशोरों को पत्थरबाजी जैसी वारदातों में मोहरा बनाया जा रहा है, वह बताता है कि देश के इस सबसे संवेदनशील राज्य में कानून व्यवस्था के साथ साथ गवर्नेंस के हालात भी काबू से बाहर चले गए हैं।
सीजफायर जैसे भावनात्मक फैसलों का अलगाववादियों के लिए कोई महत्व नहीं रहा है। सेना और अन्य सुरक्षा बलों के जवान तो वहां निशाना बनाए ही जा रहे थे लेकिन अब मीडिया को भी आतंकियों ने निशाने पर ले लिया है। इसका एक मकसद यह भी है कि कश्मीर से आने वाली सूचनाओं को भी बाधित किया जाए।
सीजफायर जैसे फैसलों की असलियत को लेकर विदेश मंत्रालय का यह बयान महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान ने वर्ष 2018 में यानी पिछले पांच महीनों में ही संघर्षविराम उल्लंघन की 1000 से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया है। संघर्षविराम उल्लंघन का इस्तेमाल आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ के लिए किया जा रहा है।
सीजफायर का फैसला लागू होने से पहले बीच में एक वक्त ऐसा आया था जब लगने लगा था कि सेना और सुरक्षाबलों की सख्त कार्रवाई ने आतंकियों और पत्थरबाजों के हौसले को तोड़ा है लेकिन उस सख्ती में ढील दिए जाने का नतीजा यह निकला है कि पुराने सारे किए धराए पर एक तरह से पानी फिर गया है।
गृह मंत्रालय के आंकड़े भी कहते हैं कि घाटी में खूनी खेल का दायरा और बढ़ गया है। कार्रवाई स्थगित करने से आतंकवादियों को दोबारा एकजुट होने का मौका मिला है। वे खुलेआम घूमने के साथ ही युवाओं को आतंकवाद में शामिल होने के लिए समझाने में भी कामयाब हुए हैं।
ध्यान देने वाली बात तो यह भी है कि एक तरफ देश में जहां औरंगजेब के नाम पर बनी सड़कों के नाम बदलने का हल्ला जारी है वहीं दूसरी ओर घाटी में कुछ ‘औरंगजेब’ देश के लिए जान भी दे रहे हैं।