मैं आमतौर पर लिखते समय यह ध्यान रखता हूं कि ऐसा कुछ न लिखूं जो समाज में किसी गलत धारणा को जन्म दे। इसलिए कल जब मेरे कॉलम को पढ़ने के बाद कुछ प्रतिक्रियाएं ऐसी आईं जो उस लिहाज से अपेक्षित नहीं थीं, तो मैंने अपने लिखे को दुबारा पढ़ा और इस नतीजे पर पहुंचा कि अपनी बात को और ज्यादा साफ तरीके से कहना जरूरी है।
दरअसल मैंने कल कहा था कि हमने जिस तरह सिर्फ जीत को ही अंतिम लक्ष्य मान लिया है, उसमें हमें हार की गुंजाइश के लिए भी थोड़ी जगह रखनी चाहिए। जरूरी नहीं कि हर बार हमें जीत ही मिले। जब हम सिर्फ और सिर्फ जीत को हासिल करने की मानसिकता लिए हुए होते हैं तो ऐसे में छोटी सी हार भी हमें बहुत ज्यादा विचलित कर देती है।
मेरे एक पुराने सहपाठी ने इस बात पर आपत्ति ली कि मैं ऐसे कैसे पराजित होने या असफल होने का ‘महिमामंडन’ कर सकता हूं। उसका कहना था कि हम हार या पराजय के बारे में सोचें ही क्यों? यदि हार को मन के किसी भी कोने में जगह दी गई तो वह जीत को कभी पाने ही नहीं देगी। हमारा लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ जीत होना चाहिए, चाहे वह खुद से होने वाली जंग हो या दुनिया से…
एक अन्य पाठक की राय कुछ और ही थी। उन्होंने भय्यू महाराज की आत्महत्या का जिक्र करते हुए कहा कि कई बार जिंदगी के दर्द इतने बढ़ जाते हैं कि व्यक्ति उन्हें सहन करने की ताकत खो देता है और टूट जाता है। दर्द चाहे शारीरिक हो या मानसिक, यदि वह हद से गुजर जाए तो फिर व्यक्ति किसी भी सीमा तक जा सकता है। यही वह स्थिति होती है जब वो उस दर्द से निजात पाने के लिए अपनी जान तक दे देता है।
ये दोनों प्रतिक्रियाएं अपनी जगह ठीक हैं और आमतौर पर समाज में ऐसा ही चलन देखा भी जाता है। लेकिन इस चलन को लेकर मेरा हस्तक्षेप सिर्फ इतना सा ही है कि हम सांसारिक अर्थों में या फिर शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट की स्थिति में भी चीजों को निरपेक्ष भाव से लेने का मानस बनाकर रखें, तो टूटन उतनी नहीं होगी या उतनी महसूस नहीं होगी।
युद्ध नीति भी कहती है कि कई बार लड़ाई जीतने के लिए कुछ मोर्चों पर पीछे हटना पड़ता है या फिर उन्हें खोना पड़ता है। यही स्थिति जीवन की भी है। यदि दो कदम पीछे हटने से आपकी जान बच सकती है तो उसमें हर्ज क्या है? लेकिन यदि हम इस हठधर्मिता में रहें कि नहीं हम तो एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे, तो गंवा बैठिये अपनी जान…
रही बात दर्द के असहनीय होने की तो उसमें मुझे खुद पर ही बीता एक किस्सा याद आ रहा है। यह नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों की बात है। मुझे अचानक चक्कर आ जाने की शिकायत हुई। डॉक्टरों को दिखाया तो अलग अलग राय मिली। कुछ ने ब्रेन का सीटी स्कैन कराने की बात कही तो कुछ ने अलग तरह के टेस्ट कराने का सुझाव दिया।
ऐसा ही एक टेस्ट मुझे सुझाया गया जिसकी सुविधा उन दिनों पीजीआई चंडीगढ़ में ही उपलब्ध थी। मैं अपने एक परिजन के साथ चंडीगढ़ गया। वहां ईएनटी विभाग में एक एसोसिएट प्रोफेसर ने मेरी जांच की। जांच के बाद उन्होंने वह टेस्ट कराने की अनुमति दी और टेस्ट रिपोर्ट के साथ दो दिन बाद आने को कहा।
दो दिन बाद जब मैं उनके पास पहुंचा तो उन्होंने रिपोर्ट देखकर मेरी फिर से जांच की और कहा- ‘’देखिए आपको कुछ नहीं हुआ है, आपको वर्टिगो की समस्या है जिसमें ऐसे चक्कर आते हैं। इस बीमारी का स्थायी रूप से कोई इलाज नहीं है, आप इसके साथ जीना सीख लीजिए, यह गारंटी मैं लेता हूं कि इससे आप मरेंगे नहीं…’’
मैं हैरान था कि यहां तो मैं अपनी पीड़ा लेकर, उपचार की उम्मीद के साथ इस डॉक्टर के पास आया हूं और यह मुझे सलाह दे रहा है कि जिस पोजीशन में आपको ज्यादा चक्कर आते हैं आप अपने सिर को बार बार उस पोजीशन में लाते रहें। कुछ दिनों बाद ये चक्कर आपको महसूस नहीं होंगे या फिर बहुत कम महसूस होंगे।
डॉक्टर की सलाह पर मेरी खीज भरी प्रतिक्रिया इसलिए थी क्योंकि मैं यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि कोई दर्द के साथ कैसे जी सकता है? और दर्द के साथ की बात तो छोडि़ये यह डॉक्टर तो मुझे सलाह दे रहा है कि मैं बार बार उस दर्द को पैदा कर उसका सामना करूं… मैंने उस पर भरोसा न करते हुए और भी कई डॉक्टरों को दिखाया पर कोई आराम न हुआ।
अंत में उसी डॉक्टर की सलाह काम आई। मैंने उस कष्ट के साथ जीने की आदत डाली। ऐसा नहीं है कि वह बीमारी जड़ से खत्म हो गई या फिर अब मुझे परेशान नहीं करती। आज भी गाहे बगाहे वह कष्ट हो जाता है लेकिन, उस डॉक्टर की सलाह का असर कहिए कि अब मैं उस कष्ट को उतना महसूस नहीं करता जितना शुरुआती दिनों में करता था।
कहने का मतलब यह कि हमें अपने आपको, अपने बच्चों को हर स्थिति के लिए तैयार करना होगा। हम यदि उन्हें सिर्फ अनुकूलताओं के बीच ही बड़ा होने देंगे या उनके लिए हमेशा अनुकूलताएं ही बनाते रहेंगे तो वे प्रतिकूलता को कभी समझ ही नहीं पाएंगे। उन्हें हर बात का अहसास होना चाहिए, रोटी का भी और भूख का भी, पानी का भी और प्यास का भी, बहुत कुछ होने का भी, तो कुछ न होने का भी…
याद रखिए, बच्चों को इफरात का अनुभव हो या न हो, उन्हें अभाव का अनुभव जरूर होना चाहिए, यदि वे अभाव के अनुभव के साथ बड़े होंगे तो उन्हें अल्प मात्रा में उपलबध चीजें भी इफरात ही लगेंगी… वरना इफरात की भूख इतनी असीमित होती है कि एक दिन आदमी को ही निगल जाती है…
कल मैंने शकील बदायूंनी का जिक्र किया था। आज मैं आपको अपने पसंदीदा गीतकार शैलेंद्र की इन पंक्तियों के साथ छोड़े जाता हूं-
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें, हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है खुशी, आँसू भी छलकते आते हैं
काँटों में खिले हैं फूल हमारे, रंग भरे अरमानों के
नादां हैं जो इन काँटों से, दामन को बचाये जाते हैं